वंदे मातरम्!मित्रो!एक ताजा गज़ल समर्पित करता हूँ।स्नेह सादर अपेक्षित है।
नाम उन्हीं के मेले हैं।
दाव पेंच जो खेले हैं।
है गुरुओं की भीड़ लगी,
ढूंढ़ रहे सब चेले हैं।
शब्द मेरे कड़वे लगते,
जैसे नीम-करेले हैं।
रहते मुझमें लोग बहुत
दिखते भले अकेले हैं।
काव्य ऋचायें जीवन की,
जज्बातों के रेले हैं।
रुपयों से महँगे,मेरे,
स्वाभिमान के ढेले हैं।
शहरी सेवों से अच्छे,
गाँव के मेरे केले हैं।
राजधानियों में बैठे,
कुछ अपनी ही पेले हैं।
रोज रोज की महफ़िल में,
पुरस्कार अलबेले हैं।
बाजारों में रद्दी की,
अद्भुत ठेलम ठेले हैं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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