Thursday, April 27, 2017

दोहे मनोज के

वंदे मातरम्!मित्रो!मेरे सात सामयिक खुरदुरे दोहे हाजिर हैं।आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

सुनियोजित षड्यंत्र का,अद्भुत है ये खेल।
पुरस्कार अब हो गया,मालिश वाला तेल।।

सबके अपने मंच हैं,और सबके प्रपंच।
पुरस्कार बँटने लगे,जैसे मिड डे लंच।।

कथा,कहानी,काव्य के,खतरे में आदित्य।
निगल रहे निशदिन यहाँ,नफरत के साहित्य।।

जिस कविता में है नही,जीवन का सुख शोध।
उसमें मिलता है सदा,नफरत औ प्रतिशोध।।

कुछ माओ औ लेनिन के ,संग मार्क्स औलाद।
सदा वर्ग संघर्ष से, करे देश बर्बाद।।

जितना जो नाटक करे,निशदिन आत्मप्रचार।
हाथो हाथ ले लेता,अर्थध्येय बाजार।।

बिकने वाली चीज पर,लट्टू है बाजार।
चाहे सरस सलिल हो,या स्वारथ का प्यार।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

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