नित्य जड़ विचार पर,प्रबल प्रखर प्रहार कर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
1
विचर विचार व्योम में,
प्रचंड वेग तुल्य तू।
सिद्ध कर अनंत के,
अनादि सर्व मूल्य तू।
अखंड दिव्य ज्योति से,
मन मणि धवल करो।
धरा तमस से मुक्त हो,
नित नवल पहल करो।
पतझरों की शुष्कता में,स्नेह भर बहार कर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
2
घर नगर प्रदेश में ,
या कहीं भी देश में।
मनुष्यता मिटे नहीं,
रहो किसी भी वेश में।
ब्रह्माण्ड सा बनो कि तुममें,
हों अनेक भूमियाँ।
विराट भव्य भाव से,
रचो नवीन सृष्टियाँ।
प्रणय पुनीत नींव में,घृणा की मत दीवार भर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
3
फैलो सुरभि-से इस तरह,
महक उठे दिशा दिशा।
बरस कि शुष्क पुष्प की,
हरी हो उसकी हर शिरा।
मधुर सरस गुंजार से,
खिला चमन की हर कली।
पलक पर स्वप्न पालकर,
चखो तू प्रेम की डली।
सदा हृदय आकाश में,तू मेघ बन विहार कर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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