वंदे मातरम्!मित्रो!एक गजल समर्पित है।
रिश्ते जब रिश्तों को ,छलने लगते हैं।
विश्वासों पर खंजर ,चलने लगते हैं।
जब जब स्वार्थ घटाएँ मंडरातीं मन में,
रिश्तों के सूरज फिर, ढलने लगते हैं।
स्वर्ण रचित हो भले,अहं-लंका के घर,
खुद ही इक ना इकदिन ,जलने लगते हैं।
फूल खिलने पर,आमादा होते जब,
मौसम अपने आप,बदलने लगते हैं।
बिछड़ों से मिलने पर,एहसासों के घर,
जाने कितने ख़्वाब,यूँ पलने लगते हैं।
सच तो सच है ,पर कहना आसान नहीं,
कड़वे सच ये ,सबको खलने लगते हैं।
स्नेहिल ताप लिए जो,खुद रौशन होता,
जमे दिलों के बर्फ,पिघलने लगते हैं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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