Thursday, April 6, 2017

गज़ल

वंदे मातरम्! मित्रो!आज एक ताजा गज़ल हाज़िर है।आप सभी का स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

दर्द की दाहक,कथाओं सी लगी।
जिंदगी बेबस,विथाओं सी लगी।

दिल मे इक,बहती हुई गूंगी नदी,
अनकही ,संवेदनाओं सी लगी।

बात कितनी भी कहूँ,अच्छी मगर,
उनकी नजरों में,खताओं सी लगी।

झूठ की बेशर्म सी,मुस्कान उनकी,
महज़ वेश्या की,अदाओं सी लगी।

वक्त की साजिश है,या किस्मत मिरी,
आजकल अंधी,गुफाओं सी लगी।

घृणा के आकाश में,हर सोच उनकी,
मुझको तेज़ाबी,घटाओं सी लगी।

डॉ मनोज कुमार सिंह

No comments:

Post a Comment