वन्दे भारतमातरम! मित्रो,आज पुनः एक सामयिक ग़ज़ल हाजिर करता हूँ ।आपकी टिप्पणी ही मेरा हौसला है। अपना स्नेह अवश्य दें-
तू हीं बता यहाँ ,क्या नहीं होता।
हर कदम क्या ,हादिसा नहीं होता?
गैर तो गैर है,उसकी बात क्या करना,
खुद के रिश्तों में ,क्या दगा नहीं होता?
बिखर गया होता मैं ,कभी का जमाने में,
गर ख़ास मिट्टी का ,बना नहीं होता।
टपकते हैं लफ्ज,मेरी आखों से,
जुबां से जब कुछ ,अदा नहीं होता।
जबसे मालूम हुई ,जिंदगी की सच्चाई,
अब किसी बात पे मैं ,खफा नहीं होता।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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