मित्रो! जय प्रकाश मानस जी के वाल पर गगन गिल जी की एक कविता को पढ़ते हुए मेरी प्रतिक्रिया भी एक कविता बन गई है क्या?पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया देने की कृपा करें। सादर,
गम का गुबार या बढ़ती हुई नदी
आखिर तोड़ ही देते हैं
सब्र के बाँध।
बह जाते हैं
बड़े-बड़े दरख़्त
वक्त के सैलाब में।
पिघल जाते है पत्थर
हूक की ज्वालामुखी में।
दुख तो मोम है
वह तो पिघलेगा ही।.....
डॉ मनोज कुमार सिंह
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