वन्देमातरम्!मित्रो,आज एक कविता आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ जिसका शीर्षक आप दें ,मैं कविता दे रहा हूँ। कविता पसंद आये तो आप अपनी टिप्पणी अवश्य दें। आप सभी का स्नेह सादर अपेक्षित है-(बिना पढ़े अपनी टिप्पणी न दें।)
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जब घेर लेते हैं
एक औरत को
बहुत सारे बूढ़े,जवान पुरुष
जैसे एक हिरन को
बहुत से भूखे शेर
जंगल में ?.......नहीं,
राह में?...........नहीं,
मेले में?...........नहीं,
चौराहे पर?.......नहीं,
अकेले में?..नहीं रे बाबा!
फिर कहाँ?
सार्वजनिक जुगाली की दीवार
फेसबुक पर।
जब कोई औरत चेंपती है
गाहे-बगाहे
बाँकपन अदाओं के साथ
अपनी तस्वीर
तो भौरे मन को
मिल जाती है एक खुराक।
परिचय,अपरिचय की
कोई बाउन्डरी नहीं।
बिना सोचे
ठोकते हैं लाईक
फिर उंगुलियों से
स्पर्श करते हैं धीरे से
औरत की तस्वीर।
फिर उसे थोड़ा बड़ा करते हैं
जो आँखों में सही-सही
समा जाये।
फिर छूने लगते हैं
रेशा रेशा अस्मिता के ।
फिर लिखते हैं
ड्यूड,लोल्ल,वाउ।
न जाने कितने नए शब्द
गढ़े हमनें।
हे शब्दकोष!
कब दोगे इन शब्दों को
इनका अधिकार
अपने में समेटकर।
चल भ्रमर मन !
भिनभिनाएं फिर
अपनी दीवार फांदकर
वहाँ जाएँ फिर
जहाँ उग आती है
एक फूल-सी औरत
अपनी खुश्बू से तर
व्यक्तित्व के साथ
फेसबुक पर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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