Tuesday, February 6, 2018

दोहे मनोज के...

सत्य तेल के बुंद सा,कभी भी छिप न पाय।
कितना भी जल डालिए, ऊपर ही छितराय।।

उसे समझ आता नहीं, त्याग,समर्पण,प्यार।
पैसा ही जिनका खुदा,सुविधा ही संसार।।

कभी उन्हें न दीजिए,सद् शिक्षा का दान।
जिनका घुटनों में बसा,समझ-बूझ औ ज्ञान।।

बिन सबूत ये न्याय भी,बन जाता है रोग।
जब विवेक औ ज्ञान का,होता नहीं प्रयोग।।

प्रतिभा ईश्वर की कृपा,नाम जगत की देन।
पर घमंड अपनी उपज,छीनै मन का चैन।

अहंकार से भिन्न है,स्वाभिमान का रूप।
एक घृणा की उत्स है,एक प्रेम की धूप।।

जो विचार से शून्य है,होता वृषभ समान।
नहीं ठिकाना कब कहाँ,कर देगा अपमान।।

चोरी, झूठ,फरेब के,दिखते बहुत वकील।
जिनके कारण से हुआ,हरदम देश ज़लील।।

पी जाएँ मल मूत्र भी,ज्यों प्रसाद का भोग।
ऐसा है इस देश में, जातिवाद का रोग।।

गंगा को करते रहे,अब तक जो बीमार।
तीन साल में चाहते,अद्भुत स्वास्थ्य सुधार।।

दिखने में सब एक-से,भिन्न मगर व्यवहार।
बिना मिले गुण,कर्म के,मिलते नहीं विचार।।

पश्चिम की अंधी नकल,गई हृदय में बैठ।
संतो के इस देश में, सांता की घुसपैठ।।

नित्य नयन जो देखते,सारा ये संसार।
क्यों देख पाते नहीं, खुद को भी इक बार।।

दुराचार में कम नहीं,मातु पिता का हाथ।
बेटी को जो भेजते,बाबाओं के साथ।।

भ्रष्ट कुर्सियाँ एक हैं,मातहतों में फूट।
इसीलिए हर एक को,नित्य रहे ये लूट।।

मुफ्त में सब कुछ मिले,अंडा,छोला,खीर।
भर चुनाव चलता यहाँ,मछली,मीट,पनीर।।

जब शठता छोड़े नहीं, हठी, ढीठ,शठ,नीच।
उसे व्यंजना की जगह,अभिधाओं से फीच।।

स्वार्थपूर्ति में खेलते,लोग यहाँ हर दाव।
धीरे धीरे मर रहा,जीवन में सद्भाव।।

बेटा,बेटी एक से,पर अंतर है एक।
बेटों से ज़्यादा सदा,मिलीं बेटियाँ नेक।।

समाचार बस पूछता,बेटा कभी कभार।
दौड़ीं आती बेटियाँ,माँ जब पड़े बिमार।।

बेटी है ससुराल में,बेटा गया विदेश।
माँ बाप घर बैठकर,काटे जीवन शेष।।

उस बूढ़े माँ बाप का,सबसे खस्ता हाल।
जिसका बेटा जा बसा,छोड़ उन्हें ससुराल।।

आत्मकेंद्रित हो गया,जबसे ये इंसान।
मरी पड़ी संवेदना,कुंठित है ईमान।।

स्वार्थ,अहं के फेर में,खो देता सर्वस्व।
कैसा ये इंसान है,चाहे बस वर्चस्व।।

साहब का दिखने लगा,बदला हुआ स्वभाव।
जाति मूल का आचरण,कुत्सित कुंठित भाव।।

कितना भी अच्छा करूँ,देते नहीं ख़िताब।
मगर ज़रा सी चूक पर,करते रपट खराब।।

गलती पर तो ठीक है,जुर्माना औ दण्ड।
मगर सही भी कार्य पर,ताने हैं कोदंड।।

जिनके मन अहमन्यता और आचरण हीन।
पद पाकर वे समझते,खुद को बड़े प्रवीन।

कितना कुंठित दिख रहा,कुर्सी का आचार।
सही कार्य को भी करे,गलत सिद्ध हर बार।।

लाइक के संग टिप्पणी, कुछ तो करें हुजूर।
अर्थवान रचना बने,सन्नाटे हों दूर।।

लाभान्वित हम हो सकें,खुद में करें सुधार।
कुछ तो मुझको दीजिये,अपना शुभ्र विचार।।

यहाँ हजारों मित्र हैं,पर कुछ ही साकार।
देते हैं अनमोल वे,निशदिन ललित विचार।।

दोहा,मुक्तक औ ग़ज़ल,का लेकर हथियार।
कविता मेरी नित करे,विडम्बना पर वार।।

काव्य कुसुम सुरभित रहे,दे नव नित्य सुवास।
जीवन को लय छंद में,बाँधू यहीं प्रयास।।

गुजराती दुर्गंध ले,पूणे किया प्रवेश।
जातिवाद का कोढ़िया,मेवाणी जिग्नेश।

खालिद औ जिग्नेश हैं,जहरीले ज्यों नाग।
लगा दिए जाकर पुणे,जातिवाद की आग।।

देश तोड़ने में लगे,कुंठित खेमेबाज।
जातिवाद के जहर का,हो अब शीघ्र इलाज।।

देख सामने जुर्म भी ,रहते हैं जो मौन।
अपराधी हैं या बता,आखिर हैं ये कौन?

हम चोरों के बीच में,रहते हैं दिनरात।
चोर,चोर को कह सकें,नहीं पड़ी औकात।।

वो सुविधा सुख व्यर्थ है,और महज इक भ्रांति।
जो जीवन में छीन ले,सहज हृदय की शांति।।

पैसा ऐसा है अगर,तोड़े जो घर बार।
पैसा जाए भाड़ में,बचा रहे परिवार।।

ब्रिटिशों से मिल तोड़ दी,अपनों का ही नीड़।
कितनी बड़ी गुलाम थी,जयचंदों की भीड़।।

गद्दारों का आजतक,छिपा रहा इतिहास।
बीच सड़क पर हो गया,जिनका पर्दाफाश।।

वामी कामी लिख गए,उलट पुलट इतिहास।
आज देश ये भोगता,नित्य दर्द संत्रास।।

नहीं आज जो मानते, खुद को मनु-संतान।
वहीं बताएँ कौन हैं,पूछे हिंदुस्तान।।

छोड़ प्रेम का वाङ्मय,रख मन में बस गाँठ।
पढ़ा रहे इतिहास के,नफरत वाले पाठ।।

कर्तव्यों को भुल गए,याद रहे अधिकार।
बिना कर्म,श्रम चाहते,हम सुविधा संसार।।

वोट प्रपंची देश को,सदा किये गुमराह।
प्रतिभाओं का क़त्ल कर,ढूढ़ें उन्नति राह।।

आग लगाने से हुआ,शत्रु का मोहभंग।
देखा कि हर आग में,लहरे भगवा रंग।।

सुन 'मनोज' होता नहीं,इतना बड़ा नवाब।
गर अपने देते नहीं,सुरभित प्रेम गुलाब।।

नफ़रत पाले मर गया,भरी जवानी ख़्वाब।
इक बुड्ढा जीता रहा,पाकर प्रेम गुलाब।।

सीखा सदा गुलाब से,अद्भुत एक उसूल।
खुद रख लेता शूल है, दूजों को दे फूल।।

जाति एक यथार्थ है,जातिवाद है व्यर्थ।
दुनिया इस के सत्य को,समझे वहीं समर्थ।।

सुसिद्धिर्भवति कर्मजा,का करिए नित पाठ।
हट जाएंगे देखना,स्वयं राह के काठ।।

कुंठाओं की ठोक कर,दिल में अपने कील।
मानव करता आ रहा,खुद को सदा ज़लील।।

जब ईश्वर ने दे दिया,तुमको पंख,आकाश।
फिर पिंजरे में कैद क्यों,बने पड़े हो दास?

इसीलिए कुछ जाति को,बना लिए हथियार।
मुफ्तमाल देती रहे,सदा उन्हें सरकार।।

पल्लवग्राही ज्ञान से,भरे पड़े विद्वान।
आता जाता कुछ नहीं,चाहे बस सम्मान।।

गर्दभ वाला ज्ञान ले,औ कूकर अनुभूति।
कुछ करते रहते सदा,शूकर-सी करतूति।।

लीक पकड़ सब चल रहे,वही पुरानी चाल।
नव्य निरामय सोच का,पड़ न जाए अकाल।।

गर्वीले इतिहास पर,भले लग रही चोट।
भंसाली को चाहिए,पद्मावत से नोट।।

व्यापारिक हर सोच का,होता यही चरित्र।
पैसा ही माँ बाप है,पैसा ही है मित्र।।

टीवी एंकर में दिखे,कितना भरा गुबार।
समाचार पढ़ता सदा,चिल्लाकर हर बार।।

समाचार बनते सदा,लेकर षष्ठ ककार।
क्या,कब,कहाँ,कौन और,क्यों,कैसे आधार।।

समाचार है सूचना,बिन कोई लाग लपेट।
मिर्च मसाला डालकर,करते मटियामेट।।

नहीं रही निष्पक्षता,दिखे महज़ हथियार।
विचारधारा के बने,ये चैनल सरदार।।

लोकतंत्र में हम जिसे,समझे चौथा स्तंभ।
बाँट रहा वो देश में,जाति,मज़हबी दंभ।।

मार डालते सत्य का,रूप हमेशा शिष्ट।
समाचार में डालकर,संदेहों का ट्विस्ट।।

पत्रकारिता बन चुकी,बाजारु अब माल।
पैसे खातिर कर रही,निशदिन सत्य हलाल।।

संसद में जब तब दिखे,चैनल में नित यार।
कुत्तों-सी भौं भौं लिए,शब्दों की बौछार।

सूचनाओं में सनसनी,धोखे का व्यापार।
बीच हमारे बाँटकर,करते अत्याचार।।

सत्य सूचना की जगह,विज्ञापन अश्लील।
जिसे देख दर्शक सदा,होते यहाँ जलील।।

बहुत दोगला मीडिया,दिखे आचरण हीन।
चंदन पर करता नहीं,अब काली स्क्रीन।।

चौथा खंभा हो चुका,सड़ियल आज अँचार।
जिसका नहीं समाज से,सरोकार या प्यार।।

सौ में नब्बे सूचना,राजनीति से आज।
देता है ये मीडिया,ले घटिया अंदाज।।

जब नक्सली चरित्र पर,किया गया इक शोध।
पूँजीवादी बन चुके,कर पूँजी प्रतिरोध।।

स्वागत है तब वाल पर,सही कीजिए तर्क।
नहीं व्यक्तिगत कीजिए,कोई कभी कुतर्क।।

नित्य करूँगा स्वार्थ पर, चोट सदा भरपूर।
तुझको गर लगता बुरा,रहो यहाँ से दूर।।

जिसके पास न शब्द हैं,उचित न कोई तर्क।
कुंठाओं से ग्रस्त हो,करते सदा कुतर्क।।

भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
दोहे मेरे बोलते ,खरी खरी सी बात।।

नहीं समझता हूँ सुनो,कभी किसी को नीच।
और मित्र पर फेकता,नहीं कभी भी कीच।।

भाषण देते फिर रहे,जाति मिटे सर्वत्र।
मगर इक तरफ ले रहे,जाति प्रमाणक पत्र।।

जाति प्रमाणक पत्र में,लगा तू पहले आग।
फिर अलापना बाद में,जाति हटाओ राग।।

महज़ वोट के नाम पर,आरक्षण उपहार।
लाभ उठाने के लिए,जाति बना हथियार।।

तुम्हीं बता अंबेडकर,क्यों नहि बने सवर्ण?
ब्राह्मणी से शादी कर,क्यों नहि बदले वर्ण?

शादी ब्राह्मण से किया,दलित मीरा कुमार।
मगर अभी भी हैं दलित,ये कैसा आचार?

माता हिन्दू धर्म की,पिता हैं मुसलमान।
फिर भी हिन्दू क्यों नहीं,अभिनेता सलमान?

धर्म  बदलने के लिए,रहते हो तैयार।
जाति बदल कर देख लो,मिल जाए उपचार।।

जब पूजा लगता तुझे,महज अंधविश्वास।
मंदिर में क्यों चाहिए,दलित पुजारी खास?

दलित सियासी शब्द बस,कुर्सी का हथियार।
शोषित,वंचित सत्य है,जिनका हो उपचार।।

आज़ादी के बाद से,यहीं दिखा परिवेश।
गदहों के संग दौड़कर,घोड़ा हारे रेस।।

भेदभाव न हो कभी,रखिये सदा प्रयास।
हर समाज को चाहिए,उत्तम उचित विकास।।

देश तभी आगे बढ़े,यथा योग्य दो काम।
नहीं तो आएगा सदा,घातक ही परिणाम।।

तभी बढ़ेगा मानिए,आगे हिन्दुस्तान।
भोजन,कपड़ा,छत मिले,औ' सबको सम्मान।।

धर्म,जाति समभाव हो,जीवन हो सापेक्ष।
पंथ,धर्मनिरपेक्ष सा,बनो जाति निरपेक्ष।।

कर कुतर्क यूँ मत करो,रिश्ते कभी खराब।
नहीं जरूरी क्रोध में,दो तुम शीघ्र जवाब।।

पैसे में दम बहुत है,फिर भी है बेकार।
आज जोड़ने की जगह,तोड़ रहा परिवार।।

वक्त बनाया है मुझे,गूंगा बहरा, मौन।
ताड़ रहा हूँ जिंदगी,आखिर हूँ मैं कौन।।

घरकच में जबसे भुला,नींद,भूख और प्यास।
नहीं ले सका ठीक से, जीवन में मैं साँस।।

सत्संगत से भागते,रुष्ट दुष्ट,हैवान।
सदा कुसंगति में बसे,केवल उनके प्रान।।

अच्छा क्या है क्या बुरा,नहीं जिसे पहचान।
वहीं कुसंगति में फँसा, जीवन में इंसान।।

जब भी चाहे मार दे,विश्वासों को लात।
यहीं आज का सत्य है,स्वार्थपूर्ति औ घात।।

चकाचौंध की जिंदगी,मायावी बाजार।
जिसमें फँस कर रह गया,ये पूरा संसार।।

स्वार्थपूर्ति में हैं बँधे, उनके सभी उसूल।
ठगना ही बाजार का,लक्ष्य रहा है मूल।

साहब का दिखने लगा,बदला हुआ स्वभाव।
जाति मूल का आचरण,कुत्सित कुंठित भाव।।

कितना भी अच्छा करूँ,देते नहीं ख़िताब।
उल्टे चूक बता सा'ब,करते रपट खराब।।

गलती पर तो ठीक है,जुर्माना औ दण्ड।
मगर सही भी कार्य पर,ताने हैं कोदंड।।

जिनके मन अहमन्यता और आचरण हीन।
पद पाकर वे समझते,खुद को बड़े प्रवीन।

कितना कुंठित दिख रहा,कुर्सी का आचार।
सही कार्य को भी करे,गलत सिद्ध हर बार।।

जब शठता छोड़े नहीं, हठी, ढीठ,शठ,नीच।
उसे व्यंजना की जगह,अभिधाओं से फीच।।

स्वार्थपूर्ति में खेलते,लोग यहाँ हर दाव।
धीरे धीरे मर रहा,जीवन में सद्भाव।।

उनको भी मिलता कहाँ,जीवन में सम्मान।
पद-मद में जो मातहत,का करते अपमान।।

ऊँची कुर्सी पा गया,जब भी कोई नीच।
बदबू फैलाता लिए,अपकर्मों की कीच।।

संघर्षों के बीच भी,पाती रहीं निखार।
जब जब धमकी,धौंस की,कलमें हुई शिकार।।

डॉ मनोज कुमार सिंह











































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