वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर प्रस्तुत है।आपकी बहुमूल्य टिप्पणी सादर अपेक्षित है।
बौने चढ़ कुर्सियों पर,खड़े हो गए।
राजधानी में जाकर,बड़े हो गए।
काव्य की साधना के,मुखौटे पहन,
बेंचकर रद्दियाँ कुछ,हरे हो गए।
फर्क पड़ता नहीं,उनको कुछ भी कहो,
देखिए कितने चिकने,घड़े हो गए।
नर्म लहज़े में जब,सच बयां कर दिया,
उनके तेवर अचानक,कड़े हो गए।
हमने इज्जत जरा,क्या दी बेशर्म को,
उसके अंदाज ज्यों,सरचढ़े हो गए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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