वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका प्रस्तुत है।
हर बद्दुआ बेअसर हो जाए।
तुम्हारी नज़र गर इधर हो जाए।
अमा की रात-सी फैली उदासी,
ज़रा सा मुस्कुरा दो,सहर हो जाए।
दीवारें तू उठा, मैं छत दूँगा,
इसी बहाने चलो इक घर हो जाए।
परिंदे प्रेम के ठहरेंगे निश्चित,
दिल छतनार इक शज़र हो जाए।
मन ये मिलते हैं जिंदगी में तभी,
कुछ इधर से कुछ उधर हो जाए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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