वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गज़ल आपको समर्पित कर रहा हूँ। आपका स्नेह आपकी टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।
कौन कहता नदी के घर,समंदर नहीं आते?
परिंदों को बुढ़ापे में ,दुबारा पर नहीं आते?
तू पहले सब्र की शबरी,हृदय में तो बसाकर रख,
मैं भी देखता,क्यूँ राम,तेरे घर नहीं आते।
जो भी खुद्दार हैं ,ईमान पर जिनको भरोसा है,
उनकी जिंदगी की राह में,फिर डर नहीं आते।
मिला है उनको शायद ,वक्त के पाबंद का तमगा,
समय पर आजतक जो ,खुद कभी दफ्तर नहीं आते।
उनकी हमदर्दियों से ,दर्द का मीठा जहर पाकर,
तड़पकर उबलते आँसू,मगर बाहर नहीं आते।
जो फेंके ईंट उसने मुझपे,उससे घर बना डाला,
मेरे आँगन में तब से ,आजतक पत्थर नहीं आते।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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