Wednesday, December 23, 2015

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा गजल हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

जब भी मिलना,खुलकर मिलना।
अपनों से खुद, चलकर मिलना।

कालिनेमी बैठे राहों में,
उनसे जरा, संभलकर मिलना।

रिश्तों के इस तमस काल में,
सदा दीप-सा, जलकर मिलना।

मिलना स्थायी होता  है,
संघर्षों में ,पलकर मिलना।

कितना सुन्दर! ओसकणों का,
सुबह फूल पर, ढलकर मिलना।

कौन ख़ुशी को नाप सका है,
बिछड़े दिल से, मिलकर मिलना।

डॉ मनोज कुमार सिंह

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