Wednesday, December 23, 2015

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा गजल हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

जब भी मिलना,खुलकर मिलना।
अपनों से खुद, चलकर मिलना।

कालिनेमी बैठे राहों में,
उनसे जरा, संभलकर मिलना।

रिश्तों के इस तमस काल में,
सदा दीप-सा, जलकर मिलना।

मिलना स्थायी होता  है,
संघर्षों में ,पलकर मिलना।

कितना सुन्दर! ओसकणों का,
सुबह फूल पर, ढलकर मिलना।

कौन ख़ुशी को नाप सका है,
बिछड़े दिल से, मिलकर मिलना।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Monday, December 21, 2015

गजल


वन्दे मातरम्!मित्रो! एक समसामयिक गजल समर्पित है। स्नेह सादर अपेक्षित है।

चलो आखिर अदालत ने ,बुलाया तो।
ऊँट पहाड़ के नीचे,आया तो।

जो देश से बड़ा समझते थे खुद को,
क़ानून उनकी औकात ,बताया तो।

ठिठुरती ठंढ से ,हम मर ही जाते,
सुबह में सूर्य चेहरा,दिखाया तो।

चोर कोतवाल पर,भारी हैं अब भी,
चुनावों में सियासत,आजमाया तो।

क्या कर लिया अदालत,दरिंदे का,
उम्र के नाम पर ,निकल आया तो।

डॉ मनोज कुमार सिंह












Friday, December 18, 2015

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज एक समसामयिक मुक्तक समर्पित है जो 'पैसे के लिए कुछ भी बोलेगा' विषय पर केन्द्रित है। आप सभी का स्नेह सादर अपेक्षित है।

असहिष्णुता दिखती जिनको,पल में कैसे पलट गए,
पैसा जिनका लक्ष्य सदा,अब कहना कुछ भी नहीं शेष है।
वेश बदलकर गद्दारों ने बहुत यहाँ नुकसान किया,
झूठी कारोबारी माफ़ी,'दिलवाले' से बड़ा देश है।

डॉ मनोज कुमार सिंह


Tuesday, December 15, 2015

कविता


राम राम सब मित्र लोगन के! एगो मन के भाव देखीं आ आपन विचार दीहीं।

जतना सुघर
अहसास के सुगंध
गाँवन में
गोबर सानत
चिपरी पाथत
सानी पानी करत
भरुकी बनावत
लकड़ी बीनत
कथरी सीयत
बोझा ढोवत
खेत सोहत
खुरुपी हँसिया
आ कुदार चलावत
हाथन में बा
उ परदा पर चोना करत
परियन के
लवेनडर पोतल
मुखौटा में नईखे।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Monday, December 14, 2015

गजल (माँ)

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक रचना माँ को समर्पित है।

करें नित्य माँ का वंदन।
हृदय-पुष्प से अभिनन्दन।

चरणों का नित ध्यान धरें,
ले मन का अक्षत-चन्दन।

वन्दे मातरम्! मन्त्र जपो,
दुःख का होता शीघ्र शमन।

माँ से ही मिलता सब कुछ,
जीवन में तन-मन औ धन।

माँ तो माँ है ,दयामयी,
देती हमको शांति-अमन।

बढ़े असुर जब-जब जग में,
करती है माँ सदा दमन।

हर निर्बल की बल है माँ,
करुणे!तुझको कोटि नमन!!

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्! मित्रो!आज एक ताज़ा गजल हाजिर है। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

आज देश की, मूल सियासत।
नेता गद गद,जनता आहत।

चोरी कर फिर ,सीना जोरी
कैसी अद्भुत, चोर बगावत।

बड़ा वहीं है,नाम है जिनके,
लूट,घोटाला,जेल,अदालत।

लोकतंत्र में ,सत्ता,कुर्सी,
परिवारों की, बनी विरासत।

मुफ्त मुफ्त, वाले वादों से,
बिगड़ गई है ,कितनी आदत।

जातिवाद से ,देश हमारा,
दीखता है ,कमजोर निहायत।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दलित चिंतन के रूप

सगरी मित्र लोगन के राम राम!!
दलित साहित्य के नाम पर जवना तरह के चीज परोसल जाला ,ओहमे पूर्वाग्रह आ ईर्ष्या से भरल भाव सीधे देखाई देला।दलित विमर्श कइल अच्छा बात बा,अगर घृणा,द्वेष,वोटवाद अउरी पूर्वाग्रह से अछूत होखे ।अगर विचार करीं त पाएब कि
धरम के रचना सबल ना कइलस। उ काहें करित। उ त निर्बल पर  शोषण आ अत्याचार त करबे करेला। धरम त कमजोरन के बल ह। सबल त ओकरा के चतुराई से चोरावेला आ ओकर पाखंडी रूप में व्याख्या करेला अउरी शोषण के एहके अस्त्र बनावेला।
भारतीय चिंतन पर तनी विचार करिके देखीं ,एकरा दर्शन पर नजर डालीं त देखब कि दलित आ शास्त्रचिंतन में दही चीनी लेखा अन्योन्यास्रित सम्बन्ध बा।
भारतीय संस्कृति के महान व्याख्याता मुनि नारद दासीपुत्र रहलें। भागवत में नारद जी अपना पूर्व जीवन के चित्र देखवले बाड़ें। दोसरका महान व्याख्याता वेद व्यास निषादकन्या (दासी-वत) के पुत्र रहलें। नीतिशास्त्र के व्याख्याता विदुर भी दासीपुत्र रहलें। हनुमान जी वानर आदिवासी रहलें। शबरी के कथा राम कथा के मार्मिक प्रसंग सभे पढ़ले बा। कंस के दासी अन्तःपुर के सगरी बात कृष्ण जी  से बतवली। उ कंस के अत्याचार देखि के सुलगत रहली।
आलवार मुनिवाहन अन्त्यज रहे लोग। दास्यभाव केकर देन ह?भागवत में जड़भरत के चिंतन दास्य चिंतन ह।
आज दलित साहित्य के नाम पर खाली जातीय घृणा आ ईर्ष्या परोसेवाला तनी सोचो कि एह साहित्य से समाज के कवन लाभ बा सिवाय समाज के बँटवारा करेके।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक मुक्तक आपको समर्पित करता हूँ। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

आज प्रेम की जगह ,घृणा,संत्रास पढ़ाया जाता है।
बच्चों को कूड़ा-करकट ,बकवास पढ़ाया जाता है।
राम,कृष्ण,राणा,सुभाष ,गायब दिखते अब पन्नों से,
सच्चाई से कटा,छद्म इतिहास पढ़ाया जाता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो! एक समसामयिक मुक्तक आप सभी की सेवा में समर्पित कर रहा हूँ।स्नेह सादर अपेक्षित है।

जोड़ता हूँ घर,वो तुड़वाने मिटाने में लगे हैं।
देश की गरिमा ,वो नाली में बहाने में लगे हैं।
ऐसे दीखते हैं कि जैसे,बम फटा हो देश में,
भाषणों में देश को,सीरिया बताने में लगे हैं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे भारतमातरम्! आज एक असहिष्णु रचना मित्रों को समर्पित।

लोकतंत्र कैसे जिन्दा है बात ,हमें मालूम है।
भौंक रहे हर कुत्ते की औकात ,हमें मालूम है।

भरत,राम की संतानें हम,त्याग सदा करते आये,
मातृभूमि को क्या देनी सौगात ,हमें मालूम है।

बैसाखी पर चलने वाले,इतना मत इतराओ तुम,
कुंठाओं से ग्रस्त तेरे जज्बात,हमें मालूम है।

शेरों को बिकते देखा क्या?,बिकते हैं बकरे,पड़वे,
बिकने वाली हर नस्लों की जात,हमें मालूम है।

आस्तीन के सांपों से ,उम्मीद नहीं रखते अब हम,
मीरजाफर,जयचंदों की हर घात ,हमें मालूम है।

(सन्दर्भ-भरत जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा।)

डॉ मनोज कुमार सिंह

धर्मनिरपेक्षता :एक संविधान विरुद्ध अवधारणा

वन्दे मातरम्!मित्रो! आइये थोड़ी चर्चा करते हैं संविधान में विवादास्पद शब्द धर्मनिरपेक्षता पर।
......................................................

धर्मनिरपेक्षता" : एक संविधान-विरुद्ध अवधारणा
मीडिया ने एक गलत शब्द "धर्मनिरपेक्षता" का प्रचार कर रखा है । यह झूठा प्रचार किया जाता है कि भारत एक "धर्मनिरपेक्ष" राष्ट्र है । संविधान में ४२ वें संशोधन (१९७६ ई.) के तहत जब "सेक्युलर" शब्द संविधान के Preamble (उद्देशिका) में जोड़ा गया उसी समय इसपर बहस हुई थी कि अंग्रेजी शब्द "सेक्युलर" का हिंदी अनुवाद "धर्मनिरपेक्ष" हो या न हो । भाकपा सांसद भोगेन्द्र झा ने 'धर्म' शब्द की शास्त्रीय परिभाषा बताते हुए कहा कि 'धर्म' शब्द का अर्थ रिलिजन नहीं है। उदाहरणार्थ बताया गया कि महाभारत में धर्म के दस लक्षण गिनाये गए हैं : "धृति क्षमा दमः अस्तेयं शौचम् इन्द्रिय-निग्रहः । धीः विद्या सत्यम अक्रोध दशकं धर्म लक्षणम् ॥ " इन लक्षणों से युक्त नास्तिक व्यक्ति भी धार्मिक माना जाएगा । पश्चिम के भारतविद् भी 'धर्म' शब्द का अनुवाद रिलिजन न करके Traditional Law करते हैं । लेकिन भारत में ऐसे मूर्खों की कमी नहीं है जो न तो अपने देश का संविधान पढ़ते हैं और न ही शास्त्रों का अध्ययन करते हैं । इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों ने भी इस मत का समर्थन किया । अतः सर्वसम्मति से संसद ने स्वीकार किया कि संविधान के Preamble (उद्देशिका) में ४२ वें संशोधन के तहत जो "सेक्युलर" शब्द जोड़ा गया, उसका हिंदी अनुवाद आधिकारिक तौर पर "धर्मनिरपेक्ष" न करके "पंथनिरपेक्ष" किया जाए ।
संविधान में ४२ वाँ संशोधन अत्यधिक व्यापक था प्रावधान विवादास्पद थे जो अदालत की शक्तियों पर कुठाराघात करते थे । अतः १९७७ में जनता पार्टी की सरकार बनने पर ४२ वें संशोधन के कुछ प्रावधानों को हटाया गया । बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी अदालत सम्बन्धी कुछ गलत प्रावधानों को संविधान-विरुद्ध ठहराया । लेकिन Preamble (उद्देशिका) में जोड़े गए शब्द "सेक्युलर" और इसके हिंदी अनुवाद "पंथनिरपेक्ष" को कभी नहीं हटाया गया । भारतीय संविधान में जहां कही भी "सेक्युलर" शब्द है, इसका अनुवाद "धर्मनिरपेक्ष" कहीं भी नहीं है, सर्वदा "पंथनिरपेक्ष" ही है । भारतीय संविधान को "धर्मनिरपेक्ष" कहने वाले पर अदालत में मुकदमा भी किया जा सकता है, यद्यपि आजतक ऐसा किसी ने किया नहीं है, क्योंकि जानबूझकर "धर्मनिरपेक्ष" शब्द का प्रयोग करने वाले तर्क दे सकते हैं की उन्होंने केवल अंग्रेजी में संविधान पढ़ा है और भूलवश "सेक्युलर" शब्द का अनुवाद "धर्मनिरपेक्ष" कर दिया । लेकिन यह संयोग नहीं है कि ३८ वर्षों के बाद भी भारत के समस्त तथाकथिक "सेक्युलर" लेखकों ने "धर्मनिरपेक्ष" शब्द का ही प्रचलन चला रखा है । इसका कारण यह है कि नास्तिकों को न केवल समस्त रिलीजियस पंथों से नफरत है, बल्कि उन्हें धर्म, अर्थात सत्य-अहिंसा-आदि से भी घृणा है । वरना क्या कारण है कि हिंदी में भारतीय संविधान के आरम्भिक पृष्ठ पर ही भारत को "पंथनिरपेक्ष" कहा गया है जो इन्हे नहीं दिखता ? Preamble (उद्देशिका) में भारत को १९५० ईस्वी में "SOVEREIGN DEMOCRATIC REPUBLIC" कहा गया था जिसे १९७६ में बदलकर " "SOVEREIGN  SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC" किया गया जो आजतक है , जिसमे "सेक्युलर" का हिंदी अनुवाद "पंथनिरपेक्ष" है । NCERT की किताब से ये आज फोटो लेकर पोस्ट कर रहा हूँ। इस विषय में आप का विचार सादर आमंत्रित है।

बाबूजी के भोजपुरी गीत

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज मेरे बाबूजी का जन्मदिन है।आज उनको नित्य की भाँति मेरा हार्दिक नमन। बाबूजी!आप शरीर से न सही पर आत्मवत मेरे हृदय में विराजते हैं। दुनिया को कैसे बताऊँ कि आप यहीं रहते हैं मेरे साथ।    
मित्रो!आपको पता है कि मेरे बाबूजी भोजपुरी और हिन्दी के एक बहुत संवेदनशील रचनाकार थे।तो आइये आप भी पढ़िए उनका एक भोजपुरी गीत और उनकी संवेदना को समझिये।

डॉ मनोज कुमार सिंह  

..................................................
                   ०००गीत०००
                 रचना-अनिरुद्ध सिंह'बकलोल'
.................................................
हमरा मन के पागल पंछी,कहाँ कहाँ भटकेला।
                        1
बिना दाम गुलाम बना ल ,एक मीठ बोली पर।
अतना दिल के साफ़ कि चाहें बईठा द गोली पर।
चाहsत ऊपर रखवा द,चिटुकी भर मैदा के।
बंदी कर ल मन पंछी के,प्रेम जाल बिछवा के।
भोला पंछी दाव-पेंच के,तनिको ना समझेला।
हमरा मन के पागल पंछी.........
                        2
अबहीं बैठि सुनत बा कतहीं,मधुमासी के तान।
तब तक केहू मधुर कंठ से,गा देला कुछ गान।
बड़ा रसिक मन के पंछी ई,तुरत उहाँ दउरेला।
बात बात में खिलखिल जाला,बात बात मउरेला।
एह डाली से ओह डाली पर,डाल डाल लटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी...........
                        3
चाहें तू अखियाँ से हँसि लs,या अँखियन से रोलs।
बिना हिलवले जीभ भले ही,अँखियन से ही बोलs।
अलगे हीं होला दुनिया में,अँखियन के इक भाषा।
बिना बतवले पढ़ि लेला मन,अँखियन के परिभाषा।
पढ़ लेला पर तुरत उहाँ से,पाँखि झाड़ झटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी..........
                         4
बेदरदी दुनिया में भटकत ,ठहर ना पाइल पाँव।
ललकेला मन कि सुस्ताईँ,लउकल तरु के छाँव।
ई ना समझेला कि दुनिया,खोजे एक बहाना।
बईठल डाली पर पंछी के,बनि जाला अफसाना।
कतना भोला मन के पंछी,ना परवाह करेला।।
हमरा मन के पागल पंछी.......
                           5
कभी कभी उड़ते उड़ि जाला,आसमान से उपर।
फिर तुरते मनवा चाहेला,आ जईतीं धरती पर।
ना जानेला चिकनी चुपड़ी,एतने बात खराब।
का होई अंजाम ना बुझे,देला साफ़ जवाब।
एही से ई ढुलमुल पंछी,मन मन में खटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी........
                          6
दूध पियब तरकूल के नीचे,लोग कही की ताड़ी।
अहंकार,मद में मातल जग,साधू बनल अनाड़ी।
जे गर्दन तक फँसल पांक में,उ का बोली बोली?
मारीं चांटी घर घर के हम,कच्चा चिट्ठा खोलीं।
थाकेला पंछी डमखू पर,थोरिका सा अड़केला।
हमरा मन के पागल पंछी.........
                          7
कभी कभी उड़ते उड़ि जाला,अइसन एक गली से।
गमक उठेला मन के आँगन,जहवाँ एक कली से।
केहू केवल एक बोल हीं,बोल दीत मुस्का के।
हो जाईत मदहोश बटोही,एक झलक हीं पाके।
एक झलक के खातिर पंछी,कतना सर पटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी............
                           8
सागर से भी गहरा बाटे,आसमान से नील।
अमिय हलाहल मद में मातल,उ अँखियन के झील।
जवना में हरदम लहरेला,मदिरा अइसन सागर।
लेकिन अबहीं ले खाली बा,हमरा मन के गागर।
एक बूंद खातिर पंछी के,कतना मन तरसेला।
हमरा मन के पागल पंछी..........
                           9
तू का जनबs कईसन होला,मन के पीर पराई?
उहे समझेला पीड़ा के,जेकरा पैर बेवाई।
प्रेम-पाश में बाँध गाछ के,उपर पहुँचल लत्तर।
दू दिल मिलला पर का होला,तू का जनब पत्थर।
तू का जनब मन में कईसन,विरहानल धधकेला।
हमरा मन के पागल पंछी.........
                         10
पास बसेला बैरी लेकिन,लागे कोस हजार।
प्रियतम मन के अन्दर होला,चाहें बसे पहाड़।
सिन्धु बीच प्यासल बा पंछी,लहर रहल बा सागर।
प्यास मिटावल मुश्किल,तानल लोक लाज के चादर।
आह उठेला सर्द दर्द,जब झंझा बन झनकेला।
हमरा मन के पागल पंछी,कहाँ कहाँ भटकेला।।

कवि-अनिरुद्ध सिंह'बकलोल'
ग्राम+पोस्ट-आदमपुर
थाना-रघुनाथपुर
जिला-सिवान(बिहार)

मुक्तक

वन्दे मातरम्! मित्रो! आज एक समसामयिक मुक्तक आप सभी को समर्पित है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

जिस थाली में खाना खाया,छेद उसीमें कर डाला,
मुल्क सदा बदनाम हुआ है,सूअर की औलादों से।
अवसर ढूंढ़ रहे है भागें,मुल्क छोड़ अन्यत्र कहीं,
घिरे हुए कालेधन वाले आज यहाँ अवसादों से।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्! मित्रो! आज एक समसामयिक मुक्तक आपको समर्पित कर रहा हूँ। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

सियासत में यूँ जबसे जाति-मज़हब, ढाल बन गए।
सुना है चोर सारे आजकल ,कोतवाल बन गए।
गले मिलकर घोटालेबाज से,ऐसे दिखे हैं 'आप',
कि जैसे भाल पर ईमान के,सवाल बन गए।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे भारतमातरम्! मित्रो!आज आपको युगीन संदर्भो पर  आधारित एक ताजा गजल समर्पित कर रहा हूँ।आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

जड़ों में था हमारे ,सत्यता के शोध का चिंतन।
परोसा जा रहा है आजकल,प्रतिशोध का चिंतन।

जो कुंठित लोग सच का सामना,करने से डरते हैं,
दिखाते हैं नपुंसक सा महज,अवरोध का चिंतन।

भले हो दामिनी लुटती या कटते सिर जवानों के,
कभी करते नहीं ये बुद्धिजीवी,क्रोध का चिंतन।

शेरों की धरा पर आ गए ,औलाद स्यारों की,
कराते नित्य मजहब, जातिवादी,बोध का चिंतन।

शठे शाठ्यम की भाषा में,अब इनसे बात करनी है,
भुलाकर दिल से इज्ज़त,मान औ अनुरोध का चिंतन।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम्! मित्रो!आज लौह पुरुष बल्लभ भाई पटेल जी  की 140 वीं जयंती पर चार पंक्तियों में उनको शत शत नमन!! इस शुभ अवसर पर आप सभी मित्रों को हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें.......

खड़े बाधा बने सब ,पत्थरों को फोड़ डाला।
मुहब्बत से जो ना माने,उन्हें फिर तोड़ डाला।
नमन उस राष्ट्र निर्माता,मसीहा,क्रांतिकारी को,
जो बिखरे थे रियासत,बाजुओं से जोड़ डाला।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

प्रेश्यावृति (Presstitute) बनाम सियासतगीरी

प्रेश्यावृति (Presstitute) बनाम सियासतगीरी
..................................
आजकल प्रेश्याओं का जो कवरेज देने का तरीका है और नेताओं की सियासत है,वह आप भी जानिये और अपनी सार्थक टिप्पणी देकर हमें भी अवगत कराएँ।
एक आदमी ने एक आदमी को मार दिया । खबर news channel तक पहुंची ।  पत्रकार ने पूरी जांच कर फोन किया ।  1) sir एक मुसलमाँ ने हिन्दू को मार दिया ।      No News ......... वापस आ जा । 2) sir एक मुसलमाँ ने मुसलमाँ को मार दिया ।      No News ........ वापस आ जा । 3) सर एक हिन्दू ने एक मुसलमाँ  को मार दिया ।      OMG ....... big news ........ OB van भेजो .........  4) sir एक हिन्दू ने हिन्दू को मार दिया .........      Hmmmmm ........ no news ........ वापस आ जा ........      अच्छा एक काम कर । मारने और मरने वाले दोनों की जात पूछ ........      sir दोनों सवर्ण हैं ......... no news       sir दोनों दलित हैं ......... no news       sir दलित ने सवर्ण को मारा है ......... no news        sir सवर्ण ने दलित को मारा है ........ OMG ........ very big news .........  OMG ........ It's an event .............  एक OB Van दलित के घर पे लगाओ । एक team राहुल गांधी के घर लगाओ । एक सोनिया गांधी के घर । वृन्दा करात से byte लो । अतुल अनजान से । लालू मुलायम मायावती नितिस सबसे byte लो  4 लेखको से award वापसी का जुगाड़ करो ...... शाम को panel discussion के लिए expert बुक करो ।  रविश कुमार से बोलो कि वो सब काम छोड़ दलित के घर पहुंचे ।  This is how our media works and then they say कि देश में अमन चैन भाई चारा कायम रहना चाहिए ।
जनता की मूर्खता का लाभ नेता और मीडिया दोनों उठा रहे हैं। अंत में कहना चाहूँगा कि-

नेता औ इंसानियत,कहाँ रहा अब मेल।
लाशों पर भी खेलती,राजनीति का खेल।।

आज इंसान से ज्यादा संवेदनशील एक जानवर है। आप भी ठीक से देखिये देखिये इस दृश्य को।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्! ये गजल राजेश रेड्डी जी की है जिसे ओम थानवी जी ने अपने वाल पर लगाया है कि देश में भय का परिवेश है इसलिए साहित्यकार अपना अवार्ड लौटा रहे है। इस रचना से मेरी कोई शिकायत नहीं है लेकिन इसके परिप्रेक्ष्य से मैं सहमत नहीं हूँ। राजेश हिंदी गजल के नामचीन हस्ताक्षर हैं। मैं उनका हृदय से सम्मान करता हूँ ।मैं थानवी जी के विचारों से सहमत नहीं हूँ इसलिए इस गजल के प्रतिक्रिया स्वरुप मैंने भी एक गजल समर्पित किया है ।अगर आपको सही लगे तो अपना स्नेह दीजिए। सादर,

डॉ मनोज कुमार सिंह
....................................................
....................................................
राजेश रेड्डी की गज़ल

दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊं
उनकी कोशिश है कि हालात न लिखने पाऊं

हिन्दू को हिन्दू मुसलमान को लिखूं मुसलिम
कभी इन दोनों को इक साथ न लिखने पाऊं

सोच तो लेता हूँ क्या लिखना है, पर लिखते समय
कांपते क्यों हैं मेरे हाथ, न लिखने पाऊं

जीत पर उनकी लगा दूँ मैं क़सीदों की झड़ी
मात को उनकी मगर मात न लिखने पाऊं

- राजेश रेड्डी

:::;;:::::::::::::::::::;;;  ::::::::::::::
मेरी गजल

दिन को दिन रात को ,रात लिखिए।
अलग-अलग उनके ,हालात लिखिए।

हिन्दू लिखिए या मुसलमान लिखिए,
सही जो भी हो वो ,जज्बात लिखिए।

हाथ कटने का डर है ,तो छोडिये कलम,
सच के नुमाइन्दे हैं ,तो सही बात लिखिए।

क्यों सियासत में ढकेलते हो कलम को,
कलमकार हो सृजन ,सौगात लिखिए।

किसी की जीत पर ,कसीदे क्या पढ़ना,
सत्य शिव सुन्दर की ,तहकीकात लिखिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्! मित्रो!एक ताजा गज़ल हाज़िर है आपकी अदालत में। आपकी अधिक से अधिक टिप्पणी ही मेरी उर्जा है। स्नेह सादर अपेक्षित है।

पिंजरे से इक परिंदे की,उड़ान की बात।
झूठी लगती है दुनिया,जहान की बात।

लाख कोशिश के बाद ,भी समझता नहीं,
चुग्गे का गुलाम,आसमान की बात।

दर्द अपना जो ,बयां नहीं करता,
कौन समझेगा ,उस बेजुबान की बात।

आदि इत्यादि मरे,वतन परस्ती में,
कौन जानेगा?,छोड़कर महान की बात।

बँट चुका मुल्क,ये सियासत में,
महज़ लेकर हिन्दू ,मुसलमान की बात।

अब तो सम्मान भी ,ज़रा सोंच कर करना,
कहीं कर न बैठे,कोई अपमान की बात।

मुल्क को तोड़ना,आसान है 'मनोज'
दिलों को जोड़ना ,है इम्तेहान की बात।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्! मित्रो!आज एक मुक्तक जो  आज की रचनाधर्मिता के सरोकार से सम्बंधित है जो समाजोपयोगी /लोकोन्मुख नहीं रह गया है।

ये उत्तर आधुनिक युग के ,हमारे शब्द शिल्पी,
फलक पर बैठ कर,तारों सा लिखना चाहते हैं।
जमीनी जिंदगी की ,छोड़ कर असली हकीकत,
अँधेरा बाँट कर ,सूरज सा दिखना चाहते है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक रचना उन तथाकथित साहित्यकारों के नाम जो आज साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर फिर से सुर्खियाँ पाने के चक्कर में हैं। आधारहीन तथ्यों के आधार पर पुरस्कार को लौटाना उनकी सियासी चाल को भी बेपर्द करता है। कागज तो लौटा रहे है पर सम्मान में मिली धनराशि ब्याज सहित नहीं लौटा  रहे। कांग्रेस के जमाने में घटी घटनाओं के आधार पर  पुरस्कार लौटाना कितना उचित है?

चाय सारा मुफ्त पीकर,पन्नी लौटाने का अर्थ।
जैसे सौ का कर्ज ले,चवन्नी लौटाने का अर्थ।

दामिनी के दर्द का ,एहसास का हिसाब दें,
या बताएँ माँ को उसकी,मुन्नी लौटाने का अर्थ।

भूल गए हो गोधरा या  तू अक्षरधाम को,
या पिता की आँख की,रोशनी लौटाने का अर्थ।

वो जो भागलपुर में ,फैला था अँधियारा कभी,
उनके आँगन में बता,चाँदनी लौटाने का अर्थ।

कश्मीरी पंडित मरे,सिख दंगा पर बता,
बलत्कृत बेटी का नहीं,चुन्नी लौटाने का अर्थ।

रश्दी औ रहमान के प्रतिबन्ध कैसे भूलते?
मुझको मालूम सेव खाकर,सुथनी लौटाने का अर्थ।।

(सुथनी -एक फल जिसे सामान्य रूप से लोग नहीं खाते)
डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक गज़ल आप सभी को समर्पित करता हूँ। अच्छी लगे तो अपनी टिप्पणी जरुर कीजिये।

बिना जलाए ,आग जलती है क्या?
सर्द मौसम में ,बर्फ पिघलती है क्या?

हो जिसकी सोच में, वासना की परत,
ऐसी अंधी जवानी ,सम्हलती है क्या?

ठंडे चूल्हों से ,अपेक्षा क्या करना,
चढ़े बिन आग पर ,दाल गलती है क्या?

भूख इन्सां की हो ,या परिंदे की,
भरे बिन पेट ,जिंदगी चलती है क्या?

समझ,रिश्तो की,हर तहजीब माँ से,
बिना कोंख कोई,संतान पलती है क्या?

डॉ मनोज कुमार सिंह

भोजपुरी व्यंग्य गीत

सगरी मित्र लोगन के राम राम! आजु भोजपुरी भासा के एगो गीत रउवा सब के परोसत बानी,जवन आज के तथाकथित भोजपुरी अश्लील गायकन खातिर बा। इ गीत आज के भोजपुरी भासा के दुर्गति में शामिल सगरी लोगन खातिर भी बा जे अपना घर में ,पड़ोस में,समाज में एह अश्लील गीतन के सुनत बा आ रोके में आपन सहयोग नईखे देत। गीत व्यंग में बा। समझे के कोशिश जरुर करब सभे।

जेतना बाउर गाएब रउवां।
ओतने ऊपर जाएब रउवां।
चोली,ढोढ़ी के गीतन से,
पईसा बहुत कमाएब रउवां।

बहुते नीमन काम होत बा।
भोजपुरी के नाम होत बा।
धूम मचल गीतन पर रउवां,
जईसे बईठल धाम होत बा।
दुर्गा पूजा के सीजन भर,
रंडी नाच नचाएब रउवां।

हचकि हचकि के गावत रहीं।
डीजे रोज बजावत रहीं।
ढिम चिक ढिम चिक नया ताल पर,
नाचत अउर नचावत रहीं।
भोजपुरी के ईज्जत बढ़ी,
बा विस्वास बढ़ायेब रउवां।

भिखारी के नाम मेटा दीं।
राजिंदर के दीप बझा दीं।
सरदा सिनहा के गीतन पर,
सगरो अब कालिख पोतवा दीं।
भोजपुरी के जयचंद जी,
माला हम पहिराएब रउवां।

चोली के रंगोली वाला।
समियाना के गोली वाला।
छिनराई के बदजुबान से,
हँस्सी अउर ठिठोली वाला।
भोजपुरी के फिलिम बनाईं,
निहिचित ओस्कर पाईब रउवां।।

डॉ मनोज कुमार सिंह