वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गजल हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।
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वे अपने आप को न जाने क्या,समझते हैं।
जिद् में पागल हैं,खुद को खुदा,समझते हैं।
परिंदे आँधियों में भी,शज़र के साथ रहते हैं,
उन्हें मालूम है,हर रिश्ते,वफा,समझते हैं।
कदम वे चूम लेते है,सदा ही कामयाबी का ,
जो अपनी जिंदगी का,हर बुरा भला,समझते हैं।
यही इक कामयाबी है कि बिन बोले जमाने में,
नजर इक दूसरे की,मौन की सदा,समझते है।
जब भी निकले हैं आँसू ,मन को हल्का कर ही देते हैं,
इसे हर दर्द की हम,इक अदद दवा,समझते हैं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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