वंदे मातरम्!मित्रो!एक रचना हाजिर है।
थोथा जनवाद
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जन से दूर .....
फिर भी जनवादी?
लिखने की है जो आजादी।
गाँव देखे नहीं
शहर और बड़ी राजधानियों में जन्मे
अधिकतर नामी गिरामी वामी
पाँच सितारा होटलों में बैठकर
दारू पीते हुए
खेतों की मेड़ों की,
छायादार पेड़ों की,
फटी बिवाई की,
मौसम की अँगड़ाई की,
जाने कहाँ से उड़ाकर
लिखते हैं
थोक के थोक
पार्कर पेन से
गाँव की श्रम गाथा।
एक्चुअली ये
लिखने के नाम पर
बेचते हैं
संवेदना की
झूठी और जूठी तकरीरें,
आम के नाम पर
जैसे मैंगो फ्रूटी!
हम पहचानते हैं
अपने दर्द की तस्वीर को
जिसे खींची थी
और लिखी थी
जेठ की दुपहरी में तपते हुए
स्वेद कणों से लथपथ
मेड़ों पर बैठकर
किसानी करते हए
मेरे पूर्वजों ने।
चल हट
जन से दूर..
तथाकथित जनवादी (?)
तू बस राजधनियों में
मेला लगा
दुकानें सजा
बेच अपना माल
कमा अपना पैसा
चाँप मालपुआ।
बेचता रह
जो बेचना है
लगे रहो अपने काम पर।
बस सियासत न कर
हमारे नाम पर!
डॉ मनोज कुमार सिंह
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