Thursday, May 30, 2019

मेरा इस्लाम और मुसलमान(कविता)

वंदे मातरम्!मित्रो!एक कविता हाजिर है।पूरा पढ़ कर ही टिप्पणी करें।भावनाओं को समझें और सार्थक टिप्पणी करें।

'मेरा इस्लाम और मुसलमान'
...................................

इस्लाम का जो अर्थ मैंने बचपन से समझा
कि मेरे गफार चाचा
मेरा और मेरे पिताजी के
कपड़े सिलते थे।
नियामत मियाँ तुरपाई करते हुए
मेरे कमलेश चाचा के लँगोटिया
रहे हैं दोस्त।
हमीद मियाँ बो चाची और
घोड़िया चाची के चूड़ियों से
सजती रही हमेशा
माँ,दीदी, दादी की कलाइयाँ।
दोनों कद से ही ऊँची नहीं थीं
विचार से भी बड़ी थीं।
शब्बीर चाचा बड़े भद्र इंसान,
रोजी रोटी के लिए चले गए
परदेश।
गनी मियाँ गरीबी में भी
गाँव के लिए दानी हरिश्चंद्र थे,
किसी भी व्यक्ति के बेटे बेटियों
के लिए लगा देते थे शामियाने
चाँदनी,बारातों में।
उनके रहते जा नहीं सकती थी
किसी की इज्जत।
तभी तो लोगों ने पचहत्तर वोट वाले
इस मुसलमान को हजारों वोट देकर
सरपंच बनाया और
उनके बाद उनके बेटे कादिर मियाँ को
वीडीसी।
कादिर मेरा लँगोटिया यार है
गुरु जी को अंडा देकर वह फर्स्ट करता था
क्लास सी और बी में
जैसे आज का एलकेजी, यूकेजी
और मैं पढ़कर भी सेकेंड।
पकड़े जाने पर मैं फर्स्ट और कादिर फेल।
फिर धीरे धीरे वक्त बदला,
कादिर नेता बनने की कोशिश में
फेल हो गया और फिर पिता की
विरासत टेंट हाउस चला रहा है।
फिर भी काली पूजा में बड़ा सहयोग रहता है
कादिर मियाँ का।
हमारे
अली चाचा बेहद सीधे इंसान थे
काटते थे मेरे पूरे खानदान के बाल,नाखून,
और हमारे शुभ कर्म में
स्वस्तिक बनाते बनाते
मृत्यु कर्म में भी सहभागी रहे
अली चाचा ने बुढ़ापे में की दूसरी शादी ,
नहीं रहे चाचा और चाची भी,
जीवन के अंतिम दिनों में
दिमागी तौर पर गरीबी और भूख ने
उनको विक्षिप्त कर दिया था
फिर भी गाँव में घूँघट काढ़ कर ही
निकलती थीं
उनसे जो बच्चे हुए वे आज दुबई
ख़लीज देशों में हैं।
चाचा के पहली बीबी के बेटा
यजीद मियाँ अभी भी काटते हैं
हमारे बाल और उनकी बीबी
हर शुभ अशुभ कर्म में
करती है सहभागिता
ये देयाद बन चुके हैं
यजीद के माँ पिता
यानी चाचा चाची
दोनों गरीबी में ही मर गए,
बहुत मानते थे मुझे।

वही मुर्गिया टोला के बंगाली मियाँ
और राजा मियाँ बजाते थे
पिसटीन और उनके बेटे तासा
सज जाती थीं बारातें और
बूढों की मृत्यु यात्रा भी।
एक मस्जिद गाँव के बीचो बीच
आज भी है
उठती है रोज अजान की ध्वनि।
पता नहीं कितनी बार
ताजिए में गदका भांजे।
मेरा पूरा खानदान
भाँजता था गदका
और जाते थे करबला तक।
भखौती में बाँधते थे घर वाले
कमर में घुंघरू और घंटियाँ
फेंका जाता था गली गली में
ताजिए पर जल और लावा या तिलवा
लगता था मेला
करबला के मैदान में
बिकते थे लकठे, गरम गरम जलेबियाँ
आलूदम,
खाते थे वही बैठकर
लगता था कि एक पर्व
आज खत्म हुआ है।
आज दुनिया में बहुत बदलाव हुआ है
मेरा गाँव भी बदला है
लोग भी बदले हैं
हो रहे है धीरे धीरे सम्पन्न
फिर भी नहीं बदली हैं कुछ चीजें
नहीं बदले हैं मुसलमान
आज भी है हमारे सुख दुख में साथ
हम है उनके साथ।
नहीं बदले हैं हम
आज भी रूहानी रिश्तों के स्तर पर।
गाँव फैल रहा है
लोग फैल रहे हैं
चुनौतियां हैं कुछ
लेकिन आज भी हमारे गाँव का
मुसलमान नाई
हमारे सिर और दाढ़ी पर अपना
उस्तरा रखता है
और हम आँख बंद कर
बनवाते हैं अपनी दाढ़ी
मुझे विश्वास है कि ये
मेरे गाँव के मुसलमान
कभी नहीं हो सकते,
देशद्रोही, गद्दार या आतंकी
क्योंकि हमारे संस्कारों ने
जो उन्हें प्यार और विश्वास दिया है
उसे देश के सियासत
कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
ये एक लंबी परंपरा का
परिणाम है।
गाँव में हर परिवार गरीब था
और गरीबी के दिनों की दोस्ती
बेवफा नहीं होती।
इसलिए इस्लाम का ये रूप
मेरे लिए प्रणम्य रहा ,है और रहेगा।
आपकी सियासत जाए भाड़ में
हमें जब भी कोई दाऊद, मसूद,हाफ़िज़
मिला तो उसकी खैर नहीं
उनके अंडे भी कहीं मिले तो
उन्हें नष्ट कर देंगे।
मेरे गाँव का इस्लाम ही
असली इस्लाम है
जिसमें प्रेम,विश्वास,भाईचारा के बीज
सदियों से पल्लवित है।
आपका इस्लाम और मुसलमान क्या है
आप जानें।
मेरे लिए तो
मेरा गाँव ही पहले है,
और मेरे गाँव के मेरे अपने
रिश्तों में गुम्फित मुसलमान!
जय जय हिन्दुस्तान,
ग्राम-पोस्ट आदमपुर
जिला सिवान।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

(कादिर मियाँ के साथ पिछले होली में गाँव में उसके घर पर होली मिलन के अवसर पर।)

No comments:

Post a Comment