Thursday, May 30, 2019

गीतिका

वंदे मातरम्!मित्रो!एक सामयिक गीतिका सादर समर्पित है।

बहुरुपिये कुछ बहा रहे घड़ियाली आँसू।
भीतर भीतर पीट रहे पर ताली आँसू।

जहाँ शहादत से सबूत माँगा जाता है,
बन जाते हैं राष्ट्र भाल पर गाली आँसू।

सत्ता के चक्कर में इतने उतरे नीचे,
जाति-धर्म की करते आज दलाली आँसू।

स्वार्थसिद्धि के बाजारों में कभी कभी तो,
असली पर भारी पड़ते हैं जाली आँसू।

कुंठाओं की घृणा गर्भ में पलते देखा,
जहर उगलकर करते महज जुगाली आँसू।

उनको है विश्वास,जरा रोने धोने से,
स्वार्थपूर्ति को देते हैं हरियाली आँसू।

आँसू पर ऐतबार बताओ कौन करेगा,
रह जाएंगे सदा बिलखते खाली आँसू।।😢

डॉ मनोज कुमार सिंह

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