वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक समर्पित है।
तुम्हारे चाहने,न चाहने से कुछ नहीं होगा,
जो होना है वही होगा,जो लिखा है मुकद्दर में!
नदी बहती पूरे उफान में या शांत तेवर में,
मगर वो अंत में मिलती है,देखा है समंदर में।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक समर्पित है।
तुम्हारे चाहने,न चाहने से कुछ नहीं होगा,
जो होना है वही होगा,जो लिखा है मुकद्दर में!
नदी बहती पूरे उफान में या शांत तेवर में,
मगर वो अंत में मिलती है,देखा है समंदर में।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक 'मुक्तक' समर्पित है।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
वक्त जैसा भी हो,वो एक न एक दिन बीत जाता है।
कोई हारा हुआ बाजी भी एकदिन जीत जाता है।
भरोसा हो अगर दिल में,मुहब्बत हो निगाहों में,
घृणा का हर घड़ा निश्चित मुकम्मल रीत जाता है।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे मातरम्!मित्रो!
संबंधों का पौधा जब भी लगाओ,जमीन को भी परख लेना,
क्योंकि सभी मिट्टी में रिश्तों को उपजाऊ बनाने की आदत नहीं होती।।
इसके बाद भी अगर त्याग और अटूट विश्वास का उर्वरक हो,तो बंजर जमीन को भी जरखेज(उपजाऊ) बनाया जा सकता है।इसलिए सहज रहें,सकारात्मक रहें।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक युगबोध 'मुक्तक' के रूप में समर्पित है।आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।
जो छोटी सोच की औकात से बाहर नहीं निकले।
फँसे जिस बात में,उस बात से बाहर नहीं निकले।
उन्हें अब जातिगत कुंठा,जकड़कर ऐसे पकड़ी है,
रहे जिस जात में,उस जात से बाहर नहीं निकले।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
'हुआ जो हुआ' हो गया,मिटा ले मन के खोट।
ये मत कहना क्या हुआ,लगे जो दिल पे चोट।।😊
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!सियासत का इक खुरदुरा सच हाजिर है।
कभी ये काँग्रेस जिसके लिए बदनाम मुन्नी थी,
उसी को आजकल सिद्धू जी अपनी माँ बताते है।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
अनोखी भेंट थी वो भी,जिसे मैं समझ पाया अब,
हमें मिलने से मतलब था, कि वे मतलब से मिलते थे।😢
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!मेरा एक आह्वान 'मुक्तक' छंद में समर्पित है।
राष्ट्रवादी ताकतों को,एक होना चाहिए।
देश हित मे दिल हमारा,नेक होना चाहिए।
परम् वैभव प्राप्त करने के लिए, इस भूमि पर,
मंत्र वंदेमातरम् का,टेक होना चाहिए।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
राम राम मित्र लोगन के!एगो मुक्तक हाजिर बा।
दिल के पानी बनवला पर टूटेला ना।
यार बचपन के जिनगी में छूटेला ना।
दिल के शीशा नियर मत बनावल करीं,
जब ई टूटेला फिर कबहुँ जूटेला ना।।😊
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!'मजदूर दिवस' की शुभकामनाएं।
जिनकी आँखों में मोतियाबिंद है पूर्वाग्रहों का,
लाखों सूरज भी उसे ,उजाला दे नही सकते।
मज़हब जाति में जो,बाँट देते हैं गरीबों को,
कभी इंसानियत को वे ,निवाला दे नही सकते।।
दुनिया निर्माण के अग्रदूत मजदूरों के लिए हमें दो विचारों पर अवश्य गौर करना चाहिए।
1-दुनिया के सभी मजदूरों एक हो।(माओ-वर्ग संघर्ष के जन्मदाताओं में एक )
2-दुनिया के लिए सभी मजदूरों एक हो।(दत्तोपंत ठेंगड़ी-भारतीय चिंतक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक)
हम उपर्युक्त विचारों में अनुभव करेंगे
कि प्रथम विचार में अधिकार
और दूसरे में कर्तव्य को लेकर
माओवादी और भारतीय चिंतन में कितना फर्क दिखता है।
प्रथम में वर्ग विद्रोह की बदबू
तो दूसरे में सृजनात्मक सुरभि की अनुगूंज है।
प्रथम में अधिकार के नाम पर छिनने,झपटने और खून खराबा का आमंत्रण है
तो दूसरे में दुनिया के लिए सर्वस्व न्योछावर करने का महान संदेश है।
सोच सोच में फर्क है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!
बुरा मत मानना,दौलत तुम्हारी भाड़ में जाये,
हम खुश हैं जिंदगी में,घास की भी रोटियाँ खाकर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!आज हमारी शादी की 35वीं वर्षगाँठ है!आप सभी का स्नेहाशीष सादर अपेक्षित है।
हृदय में बे-ईमानी हो तो यारी,चल नहीं पाती।
दिखावे की कभी भी रिश्तेदारी,चल नहीं पाती।
ये रिश्ते त्यागमय अनुभूति की,बस माँग करते हैं,
जहाँ पर स्वार्थ में मेरी,तुम्हारी,चल नहीं पाती।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!युगबोध से लबरेज एक 'गीतिका' सादर समर्पित कर रहा हूँ।
पागल है ! पतझड़ में मधुबन ढूढ़ रहा है!
मुर्दो की बस्ती में जीवन ढूढ़ रहा है!
लिपटे हैं दामन में जिनके नाग हजारों,
नादानी में बाहर चंदन ढूढ़ रहा है!
सूरज की बस्ती में जुगनू,क्या कारण है?
अँधियारे का अंधा दामन ढूढ़ रहा है।
अपनी खुशियों की खातिर निशदिन हत्यारा,
बस्ती बस्ती सच का क्रंदन ढूढ़ रहा है।
ये भी सच है नापाकों के घर में घुसकर,
दहशतगर्दों को अभिनन्दन ढूढ़ रहा है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!
कविता
अगर फूल है
तो महकना जरूरी है,
अगर काँटा है
तो चुभना जरूरी है।
अगर खोई हुई दौलत है
तो ढूढ़ना जरूरी है।
कविता गुबार है अगर
आँखों से बहना जरूरी है।
चहक है अगर चिड़िया की
तो फुदकना जरूरी है।
नदी है अगर कविता
तो बहना जरूरी है।
पेड़ है कविता अगर
तो छाया देना जरूरी है।
वैसे कविता की समझ
कष्ट का पराभव है।
जैसे नीम की पत्तियों में
मधु निमज्जित पका आसव है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!चार पंक्तियाँ हाजिर हैं।
विचार मिलते नहीं,..तो मित्र बनाया न करो।
दर्द देकर मुझे फिर,..मुझको हँसाया न करो।
मैं कभी दुश्मनों के घर में,..झाँकता भी नहीं,
मेरी सलाह, तुम भी ..पास यूँ आया न करो।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!कवि की जिजीविषा को देखिए।
जितना उखाड़ना है,उखाड़ते रहो,
मैं दूब-सा फिर फिर उगूंगा पत्थरों के बीच।।😊
डॉ मनोज कुमार सिंह
रावण की औलाद हैं,वामी बुद्धिपिशाच।
नक्सल अरु आतंक के,रहे पक्ष में नाच।।
वामी बुद्धिपिशाच की,गंदी हर करतूत।
टांग उठाये घूमते,ज्यों श्वानों के पूत।।
हो कितना भी कीमती,तन पर भव्य लिबास।
दुश्चरित्र दुर्गंध को ,छिपा न पाता खास।
गया भागकर कीच में,करने देह पवित्र।
सूअर पर छिड़का गया,जब जब सुरभित इत्र।।
वो क्यों चिंता करेगा,कट जाएगी नाक।
जिसके जीवन का रहा,मल अरु मैल खुराक।।
वंदे मातरम्!मित्रो!चार पंक्तियाँ हाजिर हैं।
टुकड़े टुकड़े गैंग देखिए,कैसा क्रंदन करते हैं।
धर्म,जाति में मुल्क बाँट कर,खुद गठबंधन करते हैं।
संविधान,कानून लचर दिखता है क्यों उनके आगे,
खुलेआम वे देशद्रोह का नित प्रदर्शन करते हैं?
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!
अब उसकी सोच में,ख्वाब में,मैं नहीं आता।
किसी सवाल में,जवाब में,मैं नहीं आता।
मेरा वजूद नहीं अब,उसकी नजरों में,
उसके हिसाब में,किताब में,मैं नहीं आता।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!सभी देशवासियों से मेरी सादर अपील-
भारत माँ का चरण समझकर,इवीएम बटन दबाना है।
दुनिया के नक्शे में फिर से,भारत श्रेष्ठ बनाना है।
घर में मत बैठे रह जाना,अगर देश से प्यार तुम्हें,
लोकतंत्र की शक्ति बूथ पर,मत देकर समझाना है।
(मत-vote)
डॉ मनोज कुमार सिंह
कृपया इसे राष्ट्रहित में ज्यादा से ज्यादा शेयर करें।
वंदे मातरम्!
जिसकी नजर पे इश्क-ए-वतन का हो चश्मा,
उसके लिए ये हुश्न-ए-चमड़ी की क्या बिसात।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है-
खुली है आँख ,जबसे आदमी को सच हुआ मालूम,
मुल्क के डाकुओं को रात-दिन अब ताड़ते वोटर।
मुर्गा,दारू,पुरी,छोला पे,पहले वोट बिकते थे,
आज बहत्तर हजार को भी,ठोकर मारते वोटर।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका हाज़िर है।
नहीं एक भी पल देता है।
वक्त छोड़कर चल देता है।
सोचो,डूबते के हिस्से में,
तिनका कितना बल देता है।
घृणा-रज्जु से बँधा हुआ मन,
केवल कचरा ,मल देता है।
हाँफ रही धरती को पानी,
आवारा बादल देता है।
करनी का फल तय है प्यारे,
आज नहीं तो कल देता है।
सदा सब्र की झुकी डाल पर,
ईश्वर मीठा फल देता है।
इंसानों में छिपा भेड़िया,
मौका पाकर छल देता है।
वक्त निरुत्तर कर देता,पर,
थककर खुद ही हल देता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं!💐
ढोल,मजीरा, झाल ,झांझ पर, होली के जब ताल बजेला।
गीत,जोगीरा के बोलन में,होरियारन के गाल बजेला।
रंग,गुलालन के बारिश में,सराबोर जब मन हो जाला,
नवजवान,बूढ़ा, लरिकन में,नया जोश के थाल बजेला।
डॉ मनोज कुमार सिंह
होली गन 👍रहिए प्रसन्न😊😊
***********************
जो लेते वोदका, व्हिस्की का मजा शाम को निशदिन,
वे करके गंगा जल का आचमन,भरमा रहे किनको।
बदलकर रूप क्षण,क्षण जा रहे मंदिर,मजारों पर,
ये मेढक हैं चुनावी,घूँघटों में ला रहे जिनको।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!
कोयल की कूक सुनकर,बच्चे भी कूकते थे।
मेले की पीपुहरी-सा,नित श्वास फूँकते थे।
बचपन कहाँ गया वो,पागल की तरह जब हम,
गाड़ी के पीछे दौड़कर,पेट्रोल सूँघते थे।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
"जिसकी खोपड़ी में बस घिनौना पाप होता है।
वो निश्चित देशद्रोही वामपंथी साँप होता है।"
मित्रो!मेरी उक्त पंक्तियाँ बताती है कि वर्तमान में सामंती मिजाज में ऊभ-चूभ वामपंथी किस प्रकार अपनी विषैली श्रेष्ठता ग्रंथि और हेकड़ी में पूरी तरह से चूर हैं ।इतनी नफरत और घृणा से भरपूर हैं कि जनता तो छोड़िए ये लोग अपने आप से भी बुरी तरह कट चुके हैं ।उनकी अपनी जिद और सनक के चलते समाज और देश इनके लिए पराया हो चुके हैं। अपने ही अंतर्विरोधों में घिरे इन लोगों से सूत भर भी कोई असहमत हो जाए तो लगभग नफ़रत और गाली की भाषा में उसे भाजपाई , संघी , हिंदूवादी , राष्ट्रवादी आदि करार दे कर ऐसे नज़र डालेंगे गोया वह कीड़ा-मकोड़ा हो। स्वश्रेष्ठता,अहंकार , नफ़रत और घृणा ही इनका जीवन है । दिलचस्प यह कि इन लोगों का अब कोई इलाज नहीं ,लाइलाज हो चुके हैं ।और आप जानते हैं कि जब शरीर में कोई ऐसी लाईलाज बीमारी का का प्रकोप हो जाता है तो कीमो किया जाता है ,तब उस प्रभावित अंग को काटकर हटा दिया जाता है, ताकि रोग पूरे शरीर में न फैल पाए।इसी तरह से इनका ऑपरेशन भी जरूरी है।अब ये देश के लिए कैंसर साबित हो चुके हैं।अब इनकी पहचान अर्बन नक्सली के रूप में हो चुकी है।अनपढ़ माओवादी नक्सलियों से ज्यादा खतरनाक हैं ये अर्बन नक्सली।
ये वही लोग है जो पूरे देश में जब स्वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था और लोग जगह-जगह विदेशी कपड़ों की होली जला रहे थे,तो कम्यूनिस्ट नेता भरी गर्मी के दिनों में लंका शायर के मिलों में उत्पादित कपड़े के सूट पहनकर घूमते थे,ताकी भारत में स्वदेशी आंदोलन के कारण लंका शायर के मिल मजदूर बेरोजगार न हों।
ये वही लोग है जो 1942 के 'अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान महात्मा गांधी को साम्राज्यवदियों का दलाल और सुभाष चंद्र बोस को तोजो का कुत्ता तक कहा।
ये वहीं लोग है ,जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महामंत्री एस.ए. डांगे जैसे लोग वर्षों अंग्रेजों के खुफिया एजेंट का काम किया। ये वही लोग हैं, जो पाकिस्तान निर्माण के लिये सैद्धांतिक आधार देते हुए भारत को खंड-खंड बाँटने की बहुराष्ट्रीय योजना तैयार की।
ये वहीं लोग है जो सत्ता सुख भोगने के लिये कांग्रेस की दलाली करते आपात काल का समर्थन किया और जिनके लिये राष्ट्रवाद और देशभक्ति जैसे शब्द गाली होते हैं।
1962 के युद्ध में चीन का पक्ष लिया और अब रुस और चीन के कम्यूनिस्ट पार्टियों के टुकड़ों पर पलते हैं।जेएनयू में 'भारत तेरे टुकड़े होंगे'के नारे लगाते हैं। सेना को गाली देते हैं, उनकी शहादत पर खुशी मनाते हैं।कश्मीर में आतंकियों के मानवाधिकारों के सबसे बडे पैरोकार हैं और लाल क्रांति के नाम पर गरीब, निर्दोष किसानों,वनवासियों की हत्याएं कराते हैं- करते हैं- ये हैं एलीट /अर्बन नक्सली।इनसे निजात पाने के लिए मेरी दो पंक्तियाँ हाजिर हैं-
"मुल्क को डस रहे,हर विषैले करैत को ढूढ़ रहा हूँ।
कुचल दे खोपड़ी जिनकी,इक लठैत को ढूढ़ रहा हूँ।"
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक रचना हाजिर है।
थोथा जनवाद
...................
जन से दूर .....
फिर भी जनवादी?
लिखने की है जो आजादी।
गाँव देखे नहीं
शहर और बड़ी राजधानियों में जन्मे
अधिकतर नामी गिरामी वामी
पाँच सितारा होटलों में बैठकर
दारू पीते हुए
खेतों की मेड़ों की,
छायादार पेड़ों की,
फटी बिवाई की,
मौसम की अँगड़ाई की,
जाने कहाँ से उड़ाकर
लिखते हैं
थोक के थोक
पार्कर पेन से
गाँव की श्रम गाथा।
एक्चुअली ये
लिखने के नाम पर
बेचते हैं
संवेदना की
झूठी और जूठी तकरीरें,
आम के नाम पर
जैसे मैंगो फ्रूटी!
हम पहचानते हैं
अपने दर्द की तस्वीर को
जिसे खींची थी
और लिखी थी
जेठ की दुपहरी में तपते हुए
स्वेद कणों से लथपथ
मेड़ों पर बैठकर
किसानी करते हए
मेरे पूर्वजों ने।
चल हट
जन से दूर..
तथाकथित जनवादी (?)
तू बस राजधनियों में
मेला लगा
दुकानें सजा
बेच अपना माल
कमा अपना पैसा
चाँप मालपुआ।
बेचता रह
जो बेचना है
लगे रहो अपने काम पर।
बस सियासत न कर
हमारे नाम पर!
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।
शब्द जब भी आपसी संवाद, करते हैं।
मौन रहकर भाव अनहद नाद, करते हैं।
जब भरोसा दो दिलों को,पास लाता है,
जिंदगी में प्यार उसके,बाद करते हैं।
अनकहे कैसे कहें ,जब समझ आता नहीं,
फिर नयन से नयन का,अनुवाद करते हैं।
दिल के सोए तार पे,उंगली फिरा कर देखिए,
ये भी वीणा की तरह, अनुनाद करते हैं।
दर्द की घाटी में उगते,आँसुओं को पढ़ जरा,
मुफलिसी में किस तरह,फरियाद करते हैं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक सामयिक गीतिका सादर समर्पित है।
बहुरुपिये कुछ बहा रहे घड़ियाली आँसू।
भीतर भीतर पीट रहे पर ताली आँसू।
जहाँ शहादत से सबूत माँगा जाता है,
बन जाते हैं राष्ट्र भाल पर गाली आँसू।
सत्ता के चक्कर में इतने उतरे नीचे,
जाति-धर्म की करते आज दलाली आँसू।
स्वार्थसिद्धि के बाजारों में कभी कभी तो,
असली पर भारी पड़ते हैं जाली आँसू।
कुंठाओं की घृणा गर्भ में पलते देखा,
जहर उगलकर करते महज जुगाली आँसू।
उनको है विश्वास,जरा रोने धोने से,
स्वार्थपूर्ति को देते हैं हरियाली आँसू।
आँसू पर ऐतबार बताओ कौन करेगा,
रह जाएंगे सदा बिलखते खाली आँसू।।😢
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है।अपनी सार्थक टिप्पणियों से स्नेह दीजिएगा।
भिनभिनाती मक्खियों,मधुमक्खियों में फर्क है,
एक बैठे गंदगी पर,एक सुरभित फूल पर।
एक देती रोग सबको,एक मधु उपहार में,
इसलिए स्वभाव टिकते अपने अपने मूल पर।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक कविता हाजिर है।पूरा पढ़ कर ही टिप्पणी करें।भावनाओं को समझें और सार्थक टिप्पणी करें।
'मेरा इस्लाम और मुसलमान'
...................................
इस्लाम का जो अर्थ मैंने बचपन से समझा
कि मेरे गफार चाचा
मेरा और मेरे पिताजी के
कपड़े सिलते थे।
नियामत मियाँ तुरपाई करते हुए
मेरे कमलेश चाचा के लँगोटिया
रहे हैं दोस्त।
हमीद मियाँ बो चाची और
घोड़िया चाची के चूड़ियों से
सजती रही हमेशा
माँ,दीदी, दादी की कलाइयाँ।
दोनों कद से ही ऊँची नहीं थीं
विचार से भी बड़ी थीं।
शब्बीर चाचा बड़े भद्र इंसान,
रोजी रोटी के लिए चले गए
परदेश।
गनी मियाँ गरीबी में भी
गाँव के लिए दानी हरिश्चंद्र थे,
किसी भी व्यक्ति के बेटे बेटियों
के लिए लगा देते थे शामियाने
चाँदनी,बारातों में।
उनके रहते जा नहीं सकती थी
किसी की इज्जत।
तभी तो लोगों ने पचहत्तर वोट वाले
इस मुसलमान को हजारों वोट देकर
सरपंच बनाया और
उनके बाद उनके बेटे कादिर मियाँ को
वीडीसी।
कादिर मेरा लँगोटिया यार है
गुरु जी को अंडा देकर वह फर्स्ट करता था
क्लास सी और बी में
जैसे आज का एलकेजी, यूकेजी
और मैं पढ़कर भी सेकेंड।
पकड़े जाने पर मैं फर्स्ट और कादिर फेल।
फिर धीरे धीरे वक्त बदला,
कादिर नेता बनने की कोशिश में
फेल हो गया और फिर पिता की
विरासत टेंट हाउस चला रहा है।
फिर भी काली पूजा में बड़ा सहयोग रहता है
कादिर मियाँ का।
हमारे
अली चाचा बेहद सीधे इंसान थे
काटते थे मेरे पूरे खानदान के बाल,नाखून,
और हमारे शुभ कर्म में
स्वस्तिक बनाते बनाते
मृत्यु कर्म में भी सहभागी रहे
अली चाचा ने बुढ़ापे में की दूसरी शादी ,
नहीं रहे चाचा और चाची भी,
जीवन के अंतिम दिनों में
दिमागी तौर पर गरीबी और भूख ने
उनको विक्षिप्त कर दिया था
फिर भी गाँव में घूँघट काढ़ कर ही
निकलती थीं
उनसे जो बच्चे हुए वे आज दुबई
ख़लीज देशों में हैं।
चाचा के पहली बीबी के बेटा
यजीद मियाँ अभी भी काटते हैं
हमारे बाल और उनकी बीबी
हर शुभ अशुभ कर्म में
करती है सहभागिता
ये देयाद बन चुके हैं
यजीद के माँ पिता
यानी चाचा चाची
दोनों गरीबी में ही मर गए,
बहुत मानते थे मुझे।
वही मुर्गिया टोला के बंगाली मियाँ
और राजा मियाँ बजाते थे
पिसटीन और उनके बेटे तासा
सज जाती थीं बारातें और
बूढों की मृत्यु यात्रा भी।
एक मस्जिद गाँव के बीचो बीच
आज भी है
उठती है रोज अजान की ध्वनि।
पता नहीं कितनी बार
ताजिए में गदका भांजे।
मेरा पूरा खानदान
भाँजता था गदका
और जाते थे करबला तक।
भखौती में बाँधते थे घर वाले
कमर में घुंघरू और घंटियाँ
फेंका जाता था गली गली में
ताजिए पर जल और लावा या तिलवा
लगता था मेला
करबला के मैदान में
बिकते थे लकठे, गरम गरम जलेबियाँ
आलूदम,
खाते थे वही बैठकर
लगता था कि एक पर्व
आज खत्म हुआ है।
आज दुनिया में बहुत बदलाव हुआ है
मेरा गाँव भी बदला है
लोग भी बदले हैं
हो रहे है धीरे धीरे सम्पन्न
फिर भी नहीं बदली हैं कुछ चीजें
नहीं बदले हैं मुसलमान
आज भी है हमारे सुख दुख में साथ
हम है उनके साथ।
नहीं बदले हैं हम
आज भी रूहानी रिश्तों के स्तर पर।
गाँव फैल रहा है
लोग फैल रहे हैं
चुनौतियां हैं कुछ
लेकिन आज भी हमारे गाँव का
मुसलमान नाई
हमारे सिर और दाढ़ी पर अपना
उस्तरा रखता है
और हम आँख बंद कर
बनवाते हैं अपनी दाढ़ी
मुझे विश्वास है कि ये
मेरे गाँव के मुसलमान
कभी नहीं हो सकते,
देशद्रोही, गद्दार या आतंकी
क्योंकि हमारे संस्कारों ने
जो उन्हें प्यार और विश्वास दिया है
उसे देश के सियासत
कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
ये एक लंबी परंपरा का
परिणाम है।
गाँव में हर परिवार गरीब था
और गरीबी के दिनों की दोस्ती
बेवफा नहीं होती।
इसलिए इस्लाम का ये रूप
मेरे लिए प्रणम्य रहा ,है और रहेगा।
आपकी सियासत जाए भाड़ में
हमें जब भी कोई दाऊद, मसूद,हाफ़िज़
मिला तो उसकी खैर नहीं
उनके अंडे भी कहीं मिले तो
उन्हें नष्ट कर देंगे।
मेरे गाँव का इस्लाम ही
असली इस्लाम है
जिसमें प्रेम,विश्वास,भाईचारा के बीज
सदियों से पल्लवित है।
आपका इस्लाम और मुसलमान क्या है
आप जानें।
मेरे लिए तो
मेरा गाँव ही पहले है,
और मेरे गाँव के मेरे अपने
रिश्तों में गुम्फित मुसलमान!
जय जय हिन्दुस्तान,
ग्राम-पोस्ट आदमपुर
जिला सिवान।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
(कादिर मियाँ के साथ पिछले होली में गाँव में उसके घर पर होली मिलन के अवसर पर।)
वंदे भारतमातरम्!मित्रो!सभी से अपील है कि आप जहाँ भी हैं,जैसे भी हैं,अपने देश के जांबाज सैनिकों को 'जयहिन्द' कहकर समर्थन करें।जयहिन्द!जयहिन्द के जवान!💐
चार पंक्तियाँ माँ भारती के सपूतों के नाम!
कुछ नाचने,गाने व बजाने में व्यस्त हैं।
कुछ पब में बैठ इश्क लड़ाने में व्यस्त हैं।
कुछ ऐसे भी हैं शेर,जो सरहद पे खड़े हो,
इस मुल्क को,दुश्मन से बचाने में व्यस्त हैं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!
पवनपुत्रों का ज्यों ही प्रहार हुआ है।
नापाकों के घर में हाहाकार हुआ है।
जला दिया घुसकर रावण की फिर लंका,
महाविजय का अद्भुत मंगल 'वार' हुआ है।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
पाँच साल में कर दिया,प्रकट सत्य यह वक्त।
एक तरफ भड़वे खड़े,एक तरफ हैं भक्त।।😊
सुनकर वंदे मातरम् ,जय जय हिन्दुस्तान।
बम्ब गिरा ना'पाक' पर,दस जनपथ हलकान।।😊
सगरी मित्र लोगन के राम राम!एगो गीतिका समर्पित करत बानी।रउवा सभे के सनेह सादर अपेक्षित बा।
सिरजब अगर नया कुछ,दिल भी ई दाद दी।
जिनगी के खेत खातिर,पानी आ खाद दी।
जिनगी हमेसा लागे,छिलका पियाज के,
छीलीं त कुछ ना पाएब,छेउकीं त स्वाद दी।
चाहत हईं खुशी त,दोसरो के दीं खुशी,
कुंठा हमेसा दिल में,केवल विषाद दी।
ह प्रेम त्याग केवल,लेला ना कुछ कबो,
पावे के तनिको इच्छा,मन में विवाद दी।
पतझड़,बहार जईसन,जिनगी के कहानी,
दुख दी कबो त कबहूँ,खुशियन से लाद दी।
डॉ मनोज कुमार सिंह