Thursday, December 15, 2016

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। आपका क्या कहना है?

जुगनू आज खुद को,आफताब लिखते हैं।
कौए तखल्लुस अपना,सुरखाब लिखते हैं।
एक दर्द बयां करने में,बीत गई जिंदगी अपनी,
न जाने कैसे वे सैकड़ों,किताब लिखते हैं।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

(शब्दार्थ-आफताब-सूरज। तखल्लुस-उपनाम।
सुरखाब-दुनिया के सबसे सुन्दर पक्षियों में से एक)

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

देखना तुम एकदिन,ये पिलपिला हो जाएगा।
कालेधन पर चोट का,गर सिलसिला हो जाएगा।
मुल्क में हर शजर पर,बेघर परिंदों के लिए,
धीरे-धीरे ही सही,एक घोंसला हो जाएगा।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

एक दोहा-

एक तरफ होती रही,......लम्बी रोज कतार।
पिछवाड़े से ले उड़े,........कुछ ने कोटि हजार।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दो दोहे

वन्दे मातरम्!मित्रो!दो दोहे हाजिर हैं। स्नेह सादर अपेक्षित है।

कालेधन के पक्ष में,जबसे खड़ा विपक्ष।
सूअर बाड़े सा दिखा,सारा संसद कक्ष।।

शर्म,हया को भूलकर,महज घात-प्रतिघात।
संसद का पर्याय अब,गाली,जूता,लात।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

वन्दे मातरम्!एक दोहा हाजिर है।

कालेधन की चोट से,पप्पू हैं नासाज़।
झाड़ फूंक से चल रहा,जिनका आज इलाज।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

(नासाज़-बिमार)

क्षणिका

क्षणिका

जिसने
बैंक के पिछवाड़े से,
कमीशन पर
नए नोट हैक किया।
आयकर ने
उसे भी पकड़
कुछ ही समय में
गुलाबी से ब्लैक किया।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!एक मुक्तक हाजिर है। स्नेह अपेक्षित है।

बात अच्छी है या बुरी,सोंचना जरुरी है।
सही सन्दर्भ में,आलोचना जरुरी है।
किसी पर दोष मढ़ दें,इससे पहले जान लें हम,
अपने सामने इक,आईना जरुरी है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक मुक्तक हाजिर है। स्नेह सादर अपेक्षित है।

गुस्सा आएगा,प्यार आएगा।
कोई न कोई ,गुबार आएगा।
कुछ खोकर तो देखो पहले,जिंदगी में,
सौ की जगह,हजार आएगा।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

वन्दे मातरम्!मित्रो!वाराणसी प्रवास पर एक दोहा हाजिर है। स्नेह सादर अपेक्षित है।

काशी अस्सी घाट पर,करके प्रातः स्नान।।
बाँट रहे हैं रिश्तों की,समधी द्वय मुस्कान।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

कोई बुरा समझता है ,कोई अच्छा समझता है।
जितनी सोच है जिसकी,मुझे उतना समझता है।
भले दुनिया न समझे,फिर भी मेरी खुशकिस्मती ही है,
मुझे परिवार,मेरा घर,मेरा बच्चा समझता है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

न भाते हैं कभी सच के,सहज अंदाज उनको।
सभी अच्छे विचारों पर,भी है एतराज उनको।
न जाने खार क्यों खाये ही रहते,काठ के मुल्लू,
बड़े बेशर्म हैं,कहना पड़ा है आज उनको।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

बाबूजी के गीत

वन्दे मातरम्!आज 26 नवंबर है और आज ही मेरे बाबूजी श्री अनिरुद्ध सिंह बकलोल जी का जन्मदिन है।आज वे शरीर से मेरे पास नहीं हैं ,किन्तु उनका आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ रहता है और वे खुद मेरे अन्दर इस तरह रहते हैं कि मुझे कभी भी उनसे दूर होने का अहसास नहीं होता।चूँकि वे भोजपुरी और हिंदी के एक गंभीर कवि और साहित्यकार थे,इसलिए इस अवसर पर उनकी एक बहुत लोकप्रिय और भोजपुरी पत्रिका 'माटी के गमक' में छपी भोजपुरी रचना-
'मँहगी आ गरीबी' आपको समर्पित कर रहा हूँ।आप अगर संवेदनशील हैं तो ये रचना आपको जरुर झकझोरेगी।
आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

      "मँहगी आ गरीबी"

  (पति पत्नी के संवाद)
         पति
खाली भइल रस के गगरी,
सगरी सुख चैन कहाँ ले पराइल।
मँहगी के चलल कुछ गर्म हवा,
रस सींचल स्वर्ण लता मुरझाइल।
केरा के पात सा गात तोहार,
अरु लाल कपोलन के अरुनाई।
नैनन के पुतरी उतरी छवि,
याद परे पहिली सुघराई।।

           पत्नी
सब हास विलास के नाश भइल,
हियरा के हुलास हरल मँहगाई।
जवानी में ही बुढ़वा भइलs,
कि अभावे में बीति गइल तरुनाई।
धोतिया धरती ले छुआत चले,
केशिया लहरे सिर पै घुंघराले।
कतना गबरू रहलs पियवा,
जब याद परे त करेज में साले।।

             पति
आगि लगे मँहगी के तोरा,
सब शान गुमान पराइल हेठा।
धनिया मोरी सुखि के सोंठ भइल,
लरिका दुबराई के भइल रहेठा।
चोली पेवन्द पुरान भइल,
सुनरी चुनरी तोर झांझर भइले।
टुटि गइल करिहाई अरे हरजाई,
तोरा मँहगाई के अइले।
माघ के जाड़ पहाड़ भइल,
कउड़ा कपड़ा बनि के तन ढापे।
फाटि गइल कथरी सगरी,
पछुआ सिसिआत करेज ले काँपे।
धान गेहूँ कर बात कवन,
सपनो नहि आवे चना मसूरी के,
गरीबी गरे के कवाछ भइल,
अब का हम कहीं मँहगी ससुरी के।

             पत्नी
सुखल छाती के माँस छोरा,
छरिया छारियाकर नाहि चबईतें।
घीव घचोरे के ना कहिते,
महतारी माँस बकोटी ना खईतें।
जो जुरिते मकई थोरिका,
लरिका सतुआ सरपोटि अघइतें।
जो न जवान रहीत धियवा,
मँहगी जियवा के कचोटि ना जइते।

               पति
एक करे मनवा हमरा,
भउरी भरवा भर पेट जे खइतीं।
रनिया के मोरा छछने जियरा,
कतहीं से ले आ पियरी पहिरइतीं।
दिन बड़ा मनहूस होला,
लरिका के पड़ोसिन ले झरियावे।
कंहवा से इ आई गइल ढीढ़रा,
इ त खाते में आवेला,दीठ गड़ावे।
रोज कहे छउंड़ी छोटकी,
हमरा हरियर ओढ़नी एगो चाहीं।
बाबूजी तू केतना बिसभोरी,
कहेल त रोज ले आवेल नाहीं।
दीन बना के हे दीन सखा!
कतना जग में उपहास करवल।
एकहू सरधा जे पूरा न सकीं,
तब काहे के बेटी के बाप बनवल।।

रचनाकार-
अनिरुद्ध सिंह 'बकलोल'
ग्राम+पोस्ट-आदमपुर
थाना-रघुनाथपुर
जिला-सिवान,बिहार।

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। स्नेह दीजिएगा।

चोट लगी है जिनके,जिनके पिछवाड़े पर,
पागल हो सड़कों पर,नंगे नाच रहे हैं।
भरे पड़े काले धब्बों से,जिनके दामन,
वहीं लुटेरे नैतिक भाषण,बाँच रहे हैं।

*#नोटबंदी
डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो! आज एक मुक्तक हाजिर है। आपकी स्नेहिल टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

सियासत धन उगाही का महज प्रपंच है प्यारे!
लुटेरों का सरलतम,लोकतान्त्रिक मंच है प्यारे!
बड़े सम्मान से जीते हैं,संसद से सड़क तक ये,
कोई मंत्री,कोई मुखिया,कोई सरपंच है प्यारे!!

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज कुछ लोग रेल दुर्घटना पर भी सियासत करने से बाज नहीं आ रहे। चार पंक्तियाँ हाजिर हैं ऐसे लोगों के लिए।

यूँ हादसों और मौत पर,सियासत तो ना करो।
तुममें है गर इंसानियत तो बस दुआ करो।
गर चाहते हो गम को,मिटाना किसीका तुम,
दुःख दर्द में तो उनके,शामिल हुआ करो।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दो दोहे

वन्दे मातरम्!मित्रो!दो दोहे हाजिर हैं। स्नेह सादर अपेक्षित है।
                    1
जिसके दिल कालिख पुता,दूजे सोंच विवर्ण।
लोहा भरे दिमाग से,कैसे निकले स्वर्ण।
                    2
मन मुट्ठी में कीजिए,मिटा सोच से खोंट।
समझ बूझ रखिए कदम,नहीं लगेगी चोट।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज एक कुण्डलिया फिर हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

भक्त भक्त में फर्क है,रक्त रक्त में फर्क।
जो स्वारथ के भक्त हैं,करते बेड़ा गर्क।
करते बेड़ा गर्क,पहनकर नकली बाना।
नहीं दीखता फर्क,नहीं जाता पहचाना।
होती है पहचान,सदा ही बुरे वक्त में।
कौन शेर या स्यार,दिखाता भक्त भक्त में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!एक कुण्डलिया हाजिर है।स्नेह सादर अपेक्षित है।

मोदी जी दीजै  जरा,उनका गला मरोड़।
शादी में खर्चे अभी,जिसने कई करोड़।
जिसने कई करोड़,आज इस बुरे वक्त में।
कभी न होता भाव,विलासी,राष्ट्रभक्त में।
इनकी भी दो खोद,जैसे अन्य की खोदी।
बोलेगा हर शख्स,आज से हर हर मोदी।। 

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक मुक्तक हाजिर है।बॉस की केवल चापलूसी करने वाले बुद्धिजीवियों के लिए यह सार्थक नहीं है।

केवल तेरी करूँ प्रशंसा,मुझमें वो गुण ख़ास नहीं।
पुरस्कार पाने की तुझसे,रही कभी भी आस नहीं।
सच को सच बोलेगी मेरी,कविता निशदिन दुनिया में,
सतत् अनाविल राष्ट्रभक्त हूँ,कुर्सी का क्रीतदास नहीं।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

वन्दे मातरम्!मित्रो!इस दोहे के साथ साथ इस वीडियो को भी जरुर देखिए।

न कराहते बन पड़े,उगल न पाते राज।।
बवासीर सा सालता,कालाधन ये आज।

डॉ मनोज कुमार सिंह

तीन दोहे

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज बाजारवाद के युग में साहित्य की स्थिति पर तीन दोहे हाजिर हैं।
                  1
अब साहित्य न साधना,ना तप,ना आचार।
कवि,प्रकाशक,वितरक,करते बस व्यापार।।
                   2
डुब जाता तब काव्य का,प्रखर,दिव्य आदित्य।
किलो से बिकते जहाँ,भाव भरे साहित्य।
                      3
जिसे समझता था सदा,अच्छा रचनाकार।
जाति,धर्म औ लिंग का,निकला ठेकेदार।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है।
स्नेह अपेक्षित है।

क्या लगाया ये,अचूक निशाना है!
कालाधन सब,आज कबाड़खाना है।
ग्रंथो का संदेश,अति सर्वत्र वर्जयेत्
संतुलन जिंदगी का,सही पैमाना है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो!एक ताजा मुक्तक हाजिर है। टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

कालाधनियों का मिमियाना,देख रहा है देश।
नेता नगरी का चिल्लाना,देख रहा है देश।
कमर तोड़ दी इक झटके में,देश लूटने वालों की,
बिना मिलिट्री,पुलिस थाना,देख रहा है देश।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

बात ये आम है कि सरहदों पे,गोलियाँ चलतीं,
मगर कुछ लोग खाकर सो रहे,ले नींद की गोली।
कभी सोंचा नहीं था कि,ये ऐसा दिन भी आएगा,
तिजोरी में रखे धन की,जलेगी इस तरह होली।

डॉ मनोज कुमार सिंह

भोजपुरी मुक्तक

राम राम मित्रन के! जे आज तकले देश के लूटत रहे आज ओकरे घर में क़ानून डाका डाल दिहलस। अब बुझाते नईखे कि साँस नाक से लीं आ कि ????

माया,मोलायम सब अचके लुटइलें,
ममता लुटइली बजारी में।
सोनिया,केजरिया सब लुटि गइलें सेतिहे,
ललुआ भी बा अब लाचारी में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Saturday, November 19, 2016

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!कुछ पंक्तियाँ हाजिर है।इस पर आपका क्या कहना है?

कवियों से लड़ने निकले हैं,
कॉपी पेस्ट बहादुर लोग।
हंसों पर हँसते फिरते हैं,
बगुले,कौवे,दादुर लोग।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे मातरम्!मित्रो!उत्तर प्रदेश के चुनाव के संदर्भ में एक कुण्डलिया हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

बँटवारा टिकट हुआ,लेकर लाख,करोड़।
प्रत्याशी थे पा टिकट,दिल से भाव विभोर।
दिल से भाव विभोर,अचानक विपदा आई।
टिकट न हो फिर रद्द,आँख से नींद उड़ाई।
हे पार्टी परधान!,फैसला करो  दुबारा।
कालाधन ले करो,टिकट का फिर बँटवारा।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कालाधन पर कुण्डलिया

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक कुण्डलिया हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

कालाधन पर वार कर,दे दी ऐसी चोट।
हो हजार या पाँच सौ,मरे पड़े सब नोट।
मरे पड़े सब नोट,बैंक जा जिंदा होंगे।
जिसमें होगी खोंट,सदा शर्मिंदा होंगे।
कितने पागल आज,दिखे बाबू,नेतागन।
गरियाते बस आज,व्यर्थ जिनका कालाधन।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!सुप्रभात!!आज एक मुक्तक हाजिर है।टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

हमारी ऑनलाइन जिंदगी,भी इक हकीकत है।
न रुतबा है न रकबा है,यही अपनी रियासत है।
भिखारी भी नहीं हम,कर्म करते हैं कमाते हैं,
हमारे नाम पर सुनते है,संसद में सियासत है।

(ऑनलाइन-रेल पटरी के सन्दर्भ में)

डॉ मनोज कुमार सिंह

रचितकाव्य जन्मदिन पर एक दोहा और एक कुण्डलिया

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज मेरे पोते साहब 'रचितकाव्य चन्दन' का प्रथम जन्मदिन है।उनके लिए आशीर्वाद स्वरुप एक दोहा और एक कुण्डलिया प्रस्तुत है। आप सभी का स्नेहाशीष सादर अपेक्षित है।

                     दोहा
विश्वनाथ की है कृपा,दिया उन्हीं का हर्ष।
'रचितकाव्य' पूरा किए,आज सुखद इक वर्ष।।

                कुण्डलिया
जन्मदिवस पर है यहीं,मेरा आशीर्वाद।
दीर्घजीविता प्राप्त हो,रहें सदा आबाद।
रहें सदा आबाद,यशस्वी बन दुनिया में।
शौर्य सदा हो साथ,सुखद जीवन बगिया में।
'रचितकाव्य'तुम प्राण,हमारे गुंजित मधुकर।
तुमको अर्पित स्नेह,मधुर हर जन्मदिवस पर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

आज की ब्लैकियों की ईश्वर से कामना-

साईं इतना दीजिए,धन से घर भर जाय।
इतना लूटूं देश को,बीस पुश्त तक खाय।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

वन्दे मातरम्!

लय,प्रवाह,यति,गति लिए,होते सुमधुर छंद।
सहज समर्पण में छिपा,जीवन का आनंद।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

जन्मदिन की एक कुण्डलिया

वन्दे मातरम्! मित्रो! मैं आप सभी का अपने जन्मदिन पर इतना ढेर सार आत्मीय स्नेह पाकर बहुत खुश हूँ। एक कुण्डलिया छंद में अपनी भावना व्यक्त कर रहा हूँ।

जन्मदिवस पर दे मुझे,अपना आशीर्वाद।
गद गद मन को कर दिया,और हृदय आबाद।
और हृदय आबाद,सदा सद्कर्म करेगा।
देता हूँ विश्वास,सृजनरत सदा रहेगा।
इसी तरह दें प्रेम,सदा ही आप श्रेष्ठवर!
यही बड़ा उपहार,हमारे जन्मदिवस पर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

तीन दोहे

वन्दे मातरम्!मित्रो! युगबोध से लबरेज तीन खुरदुरे दोहे हाजिर हैं। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी रचनाओं को अगर अच्छी लगें तो जरुर पढ़ें और स्नेह दीजिए । मेरे साथ कुछ लोग ऐसे भी जुड़े हैं,जो मेरे परिचित हैं और मुझे बहुत प्यार करते है जिनके संबंध कविता को लेकर नहीं है। फिर भी वे मेरे आत्मीय हैं,लेकिन कुछ मेरे काव्य व्यक्तित्व के चलते जुड़े हैं उनका मैं हृदय से आभारी हूँ जो मेरी रचनाओं पर टिप्पणी करके मेरा हौसला अफजाई करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो मेरी रचनाओं को शेयर करने के बजाय कॉपी पेस्ट करके अपना नाम डाल देते हैं। ऐसे काफी लोगों को मैंने ब्लॉक कर दिया है।
मित्रो!काव्यकर्म मेरा पैशन है,पैत्रिक संस्कार है और साथ में आपका प्यार है।

.................................................
फेसबुक पर कवियों की,ऐसी लगी कतार।
मोती के बाजार में, ज्यों मछली-व्यापार।।1
.................................................
तुम मुझको तुलसी कहो,तुझको कहूँ कबीर।
आओ मिलकर बाँट लें,बौनेपन की पीर।।2
................................................

वाह वाह की लत लगी,बस ताली की चाह।
मंचों की कविता बनीं,सबसे बड़ी गवाह।।3

डॉ मनोज कुमार सिंह

मेरी अन्य रचनाओं को पढ़ने के लिए मेरे ब्लॉग लिंक www.drmks.blogspot.com पर क्लिक करें।

एक दोहा और एक कुण्डलिया

वन्दे मातरम्!मित्रो! थोड़ा खुरदुरा मगर सच की पड़ताल करता हुआ एक दोहा और एक कुण्डलिया सादर प्रस्तुत है। टिप्पणी सादर अपेक्षित है।
                 दोहा
भ्रम पैदा करते सदा,फेसबुकीया मित्र।
उनको रचना चाहिए,या उन्मादक चित्र।।

                  कुण्डलिया
उन्मादक तस्वीर पर,लाइक,शब्द हजार।
पर रचना पर टिप्पणी,केवल दो या चार।
केवल दो या चार,समय कितना बदला है।
गर्हित हुए विचार,भला ये कौन बला है।
सुन मनोज कविराय,बने रह कविता साधक।
ऐसा कर कुछ काम,मिटे चिंतन उन्मादक।।

(उन्मादक शब्द का प्रयोग अश्लीलता के अर्थ में किया गया है।)

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहे

वन्दे मातरम्!सुप्रभात मित्रो! अपनी बात लेकर मेरे तीन दोहे हाजिर हैं।आपका स्नेह सदैव की तरह बना रहे।टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
कविता मेरी बोलती,खरी खरी सी बात।।1।।

फुटपाथी पाठक सदा,रहें वाल से दूर।
गुणग्राही कुछ मित्र ही,हैं मुझको मंजूर।।2।।

टैगासुर सुन प्रार्थना,मत कर तू मजबूर।
नहि तो करके ब्लॉक फिर,कर दूँगा मैं दूर।।3।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

तू रख रोशनी बस...(गीत)

वन्दे मातरम्!मित्रो!दीपोत्सव पर मेरा एक गीत हाजिर है। अगर अच्छा लगे तो स्नेह जरुर दीजिएगा।
.............................................

तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।।
                 1
सदी बीत गई चाँद तारे उगे सब।
धरा,सूर्य सारे नज़ारे उगे सब।
क्षितिज पर झुके आसमां की अदा ले,
धरा चूमते हर किनारे उगे सब।
हकीकत यही है उजाला जहाँ तक,
वहाँ न तमस का चला, न चलेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।
                  2
सहज,सत्य,सुन्दर,सलोना,सुचिंतन।
जरुरी बहुत है सृजन नित्य नूतन।
मधुर शांत शब्दों की अपनी छवि हो,
लगे न कहीं से उड़ाए हैं जूठन।
शब्दों का दीपक तमस पर है भारी,
मगर मूल्य पल-पल चुकाना पड़ेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।
                  3
तमस की निशा जब,धरा को डराए।
उजालों की देवी उषा बनके आए।
पनपे जो मन में घुटन की अमावस,
मिटाकर हमेशा नई सोंच लाये।
लहू से जो सींचा है अहले वतन को,
वहीं यश का गौरव पताका बनेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।
                 4
नजाकत की खुश्बू से भर भर के सपने।
किरन ने सुमन में भरे रंग कितने।
भौंरों, तितलियों के गुंजार सुनकर,
चमकते हैं उपवन के व्यक्तित्व अपने।
सदा तुम शिरीष पुष्प सा मुस्कुराओ,
खिजां में भी सुरभित चमन इक मिलेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आप सभी की दीपावली शुभ हो। एक मुक्तक के साथ इस पर्व पर अशेष बधाइयाँ।

पहले मन का दीप जला ,फिर घर का दीप जलाना तू।
प्रेम ज्योति जग में फैलाकर,गहरे तिमिर भगाना तू।
ज्ञान,बुद्धि,सद्मार्ग प्राप्त हो,जीवन भर आनंद मिले,
खोल सको तो खोल हृदय पर,मस्ती का मयखाना तू।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्! आप सभी मित्रों को धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ।एक मुक्तक भी सादर समर्पित है।

सही है कि थोड़ा यहाँ,वहाँ जाऊँगा।
मगर मैं छोड़कर,तुझको कहाँ जाऊँगा।
तेरी यादों का लेकर,लाव लश्कर ,
जिंदगी भर सँवारुंगा,मैं जहाँ जाऊँगा।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

��वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गजल हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।��
.................................................

वे अपने आप को न जाने क्या,समझते हैं।
जिद् में पागल हैं,खुद को खुदा,समझते हैं।

परिंदे आँधियों में भी,शज़र के साथ रहते हैं,
उन्हें मालूम है,हर रिश्ते,वफा,समझते हैं।

कदम वे  चूम लेते है,सदा ही कामयाबी का ,
जो अपनी जिंदगी का,हर बुरा भला,समझते हैं।

यही इक कामयाबी है कि बिन बोले जमाने में,
नजर इक दूसरे की,मौन की सदा,समझते है।

जब भी निकले हैं आँसू ,मन को हल्का कर ही देते हैं,
इसे हर दर्द की हम,इक अदद दवा,समझते हैं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक 'मुक्तक' जिंदगी की विडंबनाओं पर आधारित है,सादर हाजिर है। अगर ये रचना आपके दिल को स्पर्श करे तो टिप्पणी जरुर करें ।

कुछ शीशियाँ,बोतलें,कतरने चुनते हैं।
व्यर्थ हो जिंदगी तो,अनमने चुनते हैं।
वक्त कितना भी हो,नाखुश फिर भी,
बच्चे कबाड़ से भी,सपने चुनते हैं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो! भोगे गए खुरदुरे सच पर आधारित एक 'मुक्तक' आपको समर्पित है।आपकी प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है।

नजरों में उनकी इसलिए,काबिल नहीं रहा।
दरबार के नवरत्न में,शामिल नहीं रहा।
गर्दन झुकाकर बात की,कायल नहीं नजर,
ये देख मुझसे राजा,खुशदिल नहीं रहा।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा मुक्तक हाजिर है। आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

तुम आतंकी हैवानों के,मरने पर क्यों रोते हो?
तुम्हीं बता कि बुरहानों के,मरने पर क्यों रोते हो?
क्या रिश्ता है भारतमाता के,दुश्मन से बोल जरा,
गद्दारों औ शैतानों के,मरने पर क्यों रोते हो?

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

राष्ट्र के लिए रग-रग में अपमान भरा है।
ऐसे जयचंदों से हिन्दुस्तान भरा है।
बाहर के दुश्मन से पहले,उन्हें मिटाओ,
जिनके दिल में राष्ट्रघात-हैवान भरा है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। स्नेह चाहूँगा।

कविता कम चुटकुला सुनाना,चाहता है।
मंचों से बस बात बनाना,चाहता है।
आत्म प्रकाशन में अपनी,औकात से ज्यादा,
जुगनू खुद को सूर्य बताना,चाहता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा मुक्तक हाजिर है। स्नेह सादर अपेक्षित है।

जिसकी उर्जा से धरती के ,कण-कण को जीवन मिलता,
प्रखर रूप धर सूर्य अकेला,नित्य गगन में जलता है।
उसी तरह रक्षार्थ धरा पर,करता जो सद्कर्म सदा,
सहज आत्मविश्वास लिए,नर-सिंह अकेला चलता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताज़ा गजल हाजिर है। आपकी बहुमूल्य टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

याद की परछाइयों में,जी रहा है।
आदमी तनहाइयों में,जी रहा है।

आँसुओं के हर्फ़ उसके,पढ़ के जाना,
दर्द की गहराइयों में,जी रहा है।

मुल्क वर्षों बाद भी,क्यूँ मुफलिसी में,
भूख की अंगडाइयों में,जी रहा है।

किसकी साजिश है कि चूल्हे से छिटक कर,
आग अब दंगाइयों में,जी रहा है।

जबसे लकवाग्रस्त हैं,नेकी,मुहब्बत,
आदमी रुसवाइयों में,जी रहा है।

समझता था मर गया,जयचंद कब का,
देखता हूँ भाइयों में,जी रहा है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

भोजपुरी गीत

राम राम!एगो हमार गीत रउवा सबके समर्पित बा। अगर गा के रउवा सभे पढ़ब त मजा आई।

होला मतलब के जे यार,वफादार ना होला।
ओहसे करि ल कतनो प्यार,उ साकार ना होला।

उ ना समझेला जिनगी भर,
कबहूँ पीर पराई।
जेकरा पाँवन में ना होखे,
फाटल कबो बेवाई।
बईठल बा जेकरा रग-रग में,
धोखा आ मक्कारी।
उ का जानी कईसन होला,
रिश्तन के फुलवारी।
कबहूँ बगिया फूल आ भंवरा बिन,गुंजार ना होला।
होला मतलब के जे यार,वफादार ना होला।

मन मधुबन में आग लगा,
केहू छिपके मुस्काला।
कर देला बरबाद डाह में,
खुशियन के मधुशाला।
आ केहू त जीवन भर,
दोसरे खातीर जिएला।
आपन ख़ुशी बाँटि दोसरा के,
गम खरिदत फिरेला।
अइसन दोसर कवनो जिनगी में,तेवहार ना होला।
होला मतलब के जे यार,वफादार ना होला।

घोर अन्हरिया छा जाला जब,
मन दर्पन के आगे।
लउके ना कुछ साफ़ नजर से,
बेचैनी तब जागे।
आगे गड़हा,पीछे खाई
निर्णय ना हो पावे।
तब तक केहू राग प्रेम के,
अचके आई सुनावे।
कइसे कह दीं मन के पीड़ा के,उपचार ना होला।
होला मतलब के जे यार,वफादार ना होला।

डॉ मनोज कुमार सिंह