राम राम मित्र लोगन के!आजु एगो हमार आलेख रउवा सब खातिर समर्पित बा।अच्छा लागे त आपन विचार जरूर देहब।
'आलोचना आ कि आलू चना'
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अधिकतर आदमी के आपन
एगो बहुत बड़ कमजोरी होला कि
उ आपन आलोचना ना सुनेके चाहेलन।
आलोचना के सुनल आ
ओकरा के स्वीकारल बड़ा मुश्किल काम होला।
हालाँकि इहो बात साँच बा कि
उ आलोचना भले ओह व्यक्ति के व्यक्तित्व के
बढ़ावे में सहायक होखे,
फिर भी ओकरा के स्वीकारल
सबके बूता के बात ना होला।
आलोचना दुधारी तलवार के नियर होले,
जवना में एक तरफ रउवा एकरा आधार पर
आपन झूठ अहं के दरकिनार करिके
गहिर समझ-बुझ विकसित कर सकता बानी,
त दोसरा तरफ आलोचना करे वाला आदमी से
आपन संबंध भी बिगाड़ सकत बानी।
ई बात व्यक्ति विशेष पर निर्भर करेला कि
उ आलोचना के कइसे लेता।
उ आदमी आलोचना से आपन विकास करत बा
या झूठे अहं में डूब के अपना के सही मानत बा।
आलोचना एगो सलाह भी होला।
अउरी एकरा के जरिसोरि से
मेटावे से बढ़िया बा कि जवन सही बात बा
ओकरा के आत्मसात कईल जाव
आ अपना विकास में ओकर लाभ उठावल जाव।
एही क्रम में इहो बतावल जरूरी बा कि
निर्णायक क्षमता के बेहतर इस्तेमाल करिके
उहे बात स्वीकार करीं ,
जवन रउवा पर लागू होत बिया।
अईसन ना होखे कि आलोचना के
उहो हिस्सा जवन रउवा पर लागूवे नईखे होखत,
ओहू के लेके के बिना वजह परेशान बानी
आ अन्हरिया के कूकुर नियर अन्हासो भूकत बानी।
आलोचना भी दू तरह के होला।
पहिला के उद्देश्य
व्यक्ति के कमी सामने लाके ओकरा के दूर कईल बा
आ दूसरका खाली डाह, इर्ष्या,जलंसी से ग्रसित होला।आज जरूरत बा एह अंतर के समझे के।
कमीयन के इंगित करत
यानी सकारात्मक आलोचना के
अंगीकार करे के जरूरत बा,
त ओही जा नकारात्मक आलोचना
अउरी ओके करे वाला से दूरी बनावे में ही भलाई बा।झूठे टकराव ठीक ना होला।
एह गर्मी में कूलर आ एसी रूम में बईठ के
साइबर कलम से किसान के काम
आ जेठ के धूप पर कविता आ कहानी लिखल
केतना धारदार होई एह के समझल जा सकेला।
कुछ सुविधा परस्त लोग भी
शहर में बईठ के खेत
आ मेड़ के साहित्य रच रहल बा।
आजकल भोजपुरी के विकास
आ उत्थान खातिर खाली दू चार गो गोष्ठी,
बईठकी आ नाच गाना के सहारे
नारा लगावल जा रहल बा।
कवनो भासा के इज्जत
ओकरा साहित्य पर टिकल होला।
उहे नींव होला अपना लोक परंपरा आ संस्कृति के।
गाल बजवला आ देखावा से नीमन बा
अपना लोक भासा में कवनो सृजन कईल जाव।
भासा पर भी हम कहब कि साहित्य में
ग्राम भासा(अशिष्ट भासा/ठेठ)के
कम प्रयोग करे के चाहीं ,
उहो तब जब प्रासंगिक लागे।
काहे कि दुनिया के कवनो भासा जवना
रूप में बोलल जाले ओइसने ना लिखल जाले।
शिष्ट भासा के प्रयोग साहित्य के सृंगार होले।
कुछ लोग भोजपुरी गद्य लेखन में अशिष्ट (गँवार/धराऊँ)/ठेठ सब्दन के जानबूझ के प्रयोग करेलें कि
लोग जानो कि उ बहुत बड़ विद्वान हउवन।अइसन प्रयास पहिलहू भईल बा,बाकिर समाज मे ओकरा मान्यता न मिलल।
अइसन सब्द सब्दकोष के हिस्सा त हो सकेला,
बाकिर साहित्य में शुद्ध सात्विक
आ मानक सब्दन के प्रयोग उचित कहाला।
अगर रउवा भोजपुरी साहित्य के
गरिमा बढ़ावे के चाहतानी
त शिष्ट भासा के प्रयोग करीं
आ ओकरा साहित्य के अपना
सृजनात्मक लेखन से समृद्ध करीं।
भासा आ साहित्य के आलू चना लेखा
भून के खाली पगुराईं मत। भोजपुरी के भी बहुते नुकसान हो रहल बा।
बाकी सब कमी धीरे धीरे
अपने आप खतम हो जाई।एगो अपना दोहा के साथे एह बात के विराम देत बानी कि-
संस्कृति के पहचान के,सबसे सुन्नर नेग।
भासा जब साहित्य के,ओर बढ़ावे डेग।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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