वन्दे मातरम्!आज एक ग़ज़ल हाज़िर है।
हैं जो बेहुनर खुद,....हुनर सिखाने आ गए।
बेअदब लोग कुछ,अक्सर सिखाने आ गए।
चोट के दर्द का जो,व्याकरण समझते नहीं,
ग़ज़ल में मुझको वे ,बहर सिखाने आ गए।
घृणा दिल में ,मुस्कान चेहरे पर बिछाकर,
मित्र कुछ प्यार के,अक्षर सिखाने आ गए।
हौसले नाप न दें,...आसमानों की ऊँचाई,
सारी दुनिया के पिंजरे,डर सिखाने आ गए।
मानी जिसने नहीं, जिंदगी में बात उनकी,
हो गए किस तरह,बेघर सिखाने आ गए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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