Sunday, December 22, 2013

वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ ,अगर सही लगे तो आपका स्नेह पाना चाहूँगा...................


हर इंसां का अपना, इक अफसाना होता है |
अलग-अलग जीने का, ताना-बाना होता है |
केवल साँसों का चलना ,जीवन का अर्थ नहीं ,
जीने का ज़ज्बा ,धड़कन में लाना होता है |

डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज एक ताज़ा ग़ज़ल आपको सादर समर्पित है ......................आपका स्नेह अपेक्षित है ....

थोड़ा देखो, यूँ चुपचाप भी |
इस सियासत का, घर आप भी |

यहाँ दिखते हैं ,चारो तरफ ,
आदमी की तरह, साँप भी |

मुल्क में मुफ्त, बंटने लगे ,
पानी, बिजली औ, लैपटॉप भी |

उनके वरदान से सौगुना ,
खुबसूरत है ,अभिशाप भी |

पद औ पावर के, संयोग से ,
कद से ऊँचा, दिखे नाप भी |

पुण्य का अर्थ, खोने लगा ,
आज जायज हुआ, पाप भी |

एक नेता ने, माँ खोज ली ,
खोज ले इक अदद, बाप भी |

जिंदगी है, मुकम्मल तभी ,
सुख के संग जब हो, संताप भी|

डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित है .............आपका स्नेह अपेक्षित है .......................

मातृभूमि की पीड़ा का मैं गायक हूँ |
अन्यायों से लड़ने वाला नायक हूँ |
दरबारी रागों के गीत नहीं रचता ,
सत्ता की नज़रों में मैं खलनायक हूँ |

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम् मित्रों !आज फिर एक ताज़ा ग़ज़ल आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ ...............आपका स्नेह सादर अपेक्षित है ................

मान रहा कुछ बाधाएँ हैं, दिल्ली में |
बाकिर सब तो, सुविधायें हैं, दिल्ली में |

गाँव हमारा, दिल्ली जैसा कब होगा ,
लगी निगाहें ,आशायें हैं, दिल्ली में |

गिरवी पड़ी जमाने से ,देखी हमने,
गाँवों की सब कवितायें हैं ,दिल्ली में |

लूट रहे सब देश ,तरीके अलग-अलग ,
तरह-तरह की प्रतिभाएँ हैं ,दिल्ली में |

महज जुर्म औ बलात्कार से सम्बंधित ,
मीडिया देती सूचनायें हैं, दिल्ली में |

माँ बूढ़ी -सी ,पर आंटी के चेहरे पर ,
सेव सरीखी, आभाएँ हैं ,दिल्ली में |

पश्चिम की नंगी ,अधनंगी संस्कृति की,
सूर्पनखा -सी, महिलाएं हैं, दिल्ली में |

सच कहना अब, जुर्म हो गया है यारों ,
धाराओं पे, धाराएँ हैं, दिल्ली में |

डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक ताज़ा ग़ज़ल आपको सादर समर्पित है .......... आपकी स्नेह पूर्ण टिप्पणी सादर अपेक्षित हैं ................


मैं भी अन्ना ,तू भी अन्ना ,जबसे ये सन्देश बना |
भ्रष्टतंत्र से लड़ने वाला ,इक अद्भुत परिवेश बना |

बच्चा-बच्चा राष्ट्रभक्ति की गंगा में स्नान करे ,
ऐसा गौरवपूर्ण ,समुन्नत, अपना भारत देश बना |

सोने की चिड़िया था भारत ,ज्ञान राशि में विश्व गुरु ,
पर अपने अपकर्मों से हीं, कंगालों-सा वेश बना |

अगर चाहते हो शोषित ,वंचित को समुचित न्याय मिले ,
कानूनों को संकल्पित कर ,द्रौपदी का केश बना |

भ्रष्टाचार मिटाने को फिर , दिल्ली में भ्रष्टों से मिल ,
अनुबंधन की राजनीति में, तिकड़म का प्रदेश बना |


डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक तात्कालिक परिस्थिति पर तीन शेर 'आप' को समर्पित .....................

सुना दी उनको अन्ना ने, खरी -सी बात अनशन में |
अलग होकर कभी जिसने, किया था घात अनशन में |

इसी अनशन से जिसनें, देश में प्रसिद्धियाँ पाईं ,
बता दी एक क्षण में, 'आप' की औकात अनशन में |

सियासी कोशिशें तो देखिये ,कुर्सी के लिए आज ,
अन्ना तक वे पहुँचे, फिर से देने मात अनशन में |

डॉ मनोज कुमार सिंह


वंदेमातरम् मित्रों !आज एक ताजा ग़ज़ल कुछ सुझाव के रूप में ' AAP' को समर्पित ,जो अपने सिवा सभी को बेईमान समझती है ................


थोड़ी उपलब्धियाँ क्या मिल गईं हैं 'आप' को |
अहं में डूबकर ,दे दी चुनौती बाप को |

जहर क्यों उगलते हो ,आप गर इंसान हो ,
क्यों संन्यास पर ,मजबूर करते साँप को |

ज़रा अभ्यास कर लो तुम , सत्ता चलाने की ,
मिटाना है अगर इस देश से हर पाप को |

बहुत आसान है बेईमान गैरों को बता देना ,
कठिन सहना है पर ,सच्चाईयों के ताप को |

अगर लड़ना है तुमको ,लड़ ज़रा मैदान में आकर ,
दिखा देगी तुम्हें जनता ,तुम्हारी नाप को |

अभी तुमसे बड़े हम आज भी दिल्ली रियासत में ,
जश्न में भूल क्यों जाते ,कमल के छाप को |

डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों !आज टी वी पर सुना की नवाज शरीफ कश्मीर को लेकर जंग करने की बात कर रहा है तो मैं भारत की आवाज बनकर निम्नलिखित चार पंक्तियों के माध्यम से उसे सावधान करना चाहता हूँ .........................और आपका समर्थन चाहता हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

सुन शरीफ! रिश्तों को तू बदरंग नहीं करना |
गर धरती पर रहना है, तो जंग नहीं करना |
भौंकोगे,मारे जाओगे ,बिना वजह हीं दौड़ा कर ,
कभी हिन्द के शेरों को ,तुम तंग नहीं करना ||

डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे मातरम मित्रों | आज एक सार्थक सवाल'' मुक्तक ''छंद में आपसे पूछ रहा हूँ ..........आशा है टिप्पणी रूप में आपका स्नेह प्राप्त होगा ...........

अवगुणों को गुण बताकर , जी रहा क्यों आदमी ?
अपने हाथों हीं जहर खुद ,पी रहा क्यों आदमी ?
कोरी चादर जिंदगी की, फाड़कर रोते हुए ,
दर्द के अहसास को फिर, सी रहा क्यों आदमी ?

डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों ! आज एक सहज सच को'' मुक्तक'' में सहज शब्दों में आपको समर्पित कर रहा हूँ .............आशा है आपका स्नेह मुझे यथावत् मिलेगा ............

आदमी भी जानवर है ,मानिए|
बुद्धि से बस श्रेष्ठवर है ,मानिए |
गलतियों से सीख लेता है सदा ,
इसलिए वह मान्यवर है ,मानिए ||

डॉ मनोज कुमार सिंह

Sunday, December 1, 2013

वन्देमातरम मित्रों !आज फिर एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ ...............अच्छी लगे तो आपका स्नेह  टिप्पणी के रूप में पाना चाहूँगा............


समय करवट बदलता किस कदर है |
खबर जो छापता था ,खुद खबर है |

सही इंसान की पहचान मुश्किल ,
भरोसे में भरा कितना जहर है |

बहर बस ढूढ़ते हैं वे ग़ज़ल में ,
दिलों के दर्द से जो बेखबर हैं |

जहाँ से हादसों का दौर आए ,
समझ लो आ गया कोई शहर है |

कोई लमहा ना यूँ  बेकार जाए ,
वक्त इस जिंदगी का मुख़्तसर है |

पता ना मर्ज क्या है दिल में उनके ,
अभी भी हर दवा यूँ बेअसर है |

सितमगर था जो मेरी जिंदगी का ,
वहीँ अब न्याय का भी ताजवर है |

डॉ मनोज कुमार सिंह 








Thursday, November 28, 2013

वन्देमातरम मित्रों !आज एक ताज़ा ग़ज़ल आपको समर्पित कर रहा हूँ|अच्छी लगे तो आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में पाना  चाहूँगा ......................

खबर के नाम पर मीडिया ,जहाँ बाज़ार हो जाए |
घोटालों में डूबी आकंठ, जब सरकार हो जाए |
वहाँ घुट -घुट के मरने के सिवा, अब रास्ता है क्या  ,
जहाँ आतंक ,हत्या ,जुर्म कारोबार हो जाए|
भगत ,आज़ाद, विस्मिल- सा, हमारे  भव्य भारत में 
धरा की कोंख से कोई, पुनः अवतार हो जाए| 
हो रहा मुल्क में षड़यंत्र, शेरों को मिटाने की ,
कि फिर  सत्तानशीं  इक बार रँगा  स्यार हो जाए |
विवादों को मिटाकर ,धर्म ,मजहब ,जाति का यारों ,
करो संवाद तो ये मुल्क, एकाकार हो जाए |
 नई तस्वीर अपने मुल्क की, गर चाहते हो तुम ,
नई सरकार चुनने के लिए, हुँकार हो जाए |

डॉ मनोज कुमार सिंह 

Monday, November 25, 2013

वन्दे मातरम मित्रों !आज आप सभी की सेवा में एक मुक्तक प्रस्तुत कर रहा हूँ ,आशा है आपकी टिप्पणी के रूप में मुझे स्नेह मिलेगा ,सादर ............

सुबह शाम मैं गजलें, नज्म,कता लिखता हूँ |
इसी बहाने अपना, सही पता लिखता हूँ |
सच लिखना है खता, अगर दुनिया में यारों ,
दिल के कागज पर मैं, रोज खता लिखता हूँ |

डॉ मनोज कुमार सिंह

Sunday, November 24, 2013

गर्दनें कट रहीं हैं ख्वाब की, फसल की तरह |
जिंदगी लग रही है आज, महज पल की तरह |

मौत का हादिसा अब, हादिसा नहीं लगता ,
मर्सिया पढ़ रहे हैं लोग, अब ग़ज़ल की तरह |

झोपड़ी में हीं कैद हो के, रह गए रिश्ते ,
अजनबी हैं यहाँ सब, शहर के महल की तरह |

जिंदगी जी रहे हैं लोग, कई किश्तों में ,
कभी नदियों तो कभी थार की, मरुथल की तरह |

दिन में वे बाँटते, तहज़ीब की लम्बी चादर ,
रात होती है जिनकी बार में, जंगल की तरह |
चाहे जो भी सज़ा दीजिए |
दर्दे दिल को बता दीजिए |
माफ़ करके खता सब मेरी ,
मुझको अपना बना लीजिये |
आप नाखुश कब तक रहें फिर ,
दिल किसी का दुखा दीजिए |
खो गया गर हो दिल आपका ,
दिल किसी का चुरा लीजिए|
पास आए अगर हुश्न कोई ,
इश्के तोहमत लगा दीजिए |
गर मेरे घर की परवा नहीं ,
तो दूसरा घर बसा लीजिए|
जब तक सच को झूठ ,झूठ को सच्चा समझा जाएगा |
तब तक जीवन सन्दर्भों को कैसे समझा जाएगा ?
व्यथा -कथा आँखों से कहकर ,हम तो चुप हो जाते हैं ,
घड़ियाली आँसू को बोलो ,कैसे समझा जाएगा ?
आप सभी मित्रों को छठ पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ ....................

आत्म संयम साधना के, पर्व पर सबको नमन |
सादगी सद्भावना के, पर्व पर सबको नमन |
सत्य औ साक्षात् अद्भुत चेतना की रश्मि जो ,
सूर्य की आराधना के, पर्व पर सबको नमन ||

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
जीवन जीने के लिए 
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


कविता 

जीवन जीने के लिए
एक मुट्ठी आकाश
आशा की
और कुछ गज जमीन
भावनाओं की चाहिए
जिस पर चलते हुए
कर सकें प्राप्त
एक सम्यक ,सुरुचि संपन्न
सोच की सीढ़ी
जिसके सहारे चढ़ सके
अनुभूतियों के लत्तर
मन के देह पर
और देख सके
आत्मा का सही स्वरुप
पा सके
अपनी खोयी हुई
अस्मिता की चाँदनी
भ्रम के गुहांधकार से
और भोग सकें
सदेह ईश्वर के संसार को
|

ग़ज़ल 

कभी-कभी सोचा करता हूँ ,बैठे यहाँ अकेले में |
बाँच रहा अपनी कवितायें क्या भैंसों के मेले में ?


बड़े-बड़े सब चले गए, समझा कर दुनिया वालों को ,
वैसी की वैसी दुनिया है ,अब भी पड़ी झमेले में |

ज्ञानी अब विज्ञानी बनकर, शैतानी चालें चलता ,
इंसानी ताकत बंधक है ,बदबूदार तबेले में |

रिश्तों की सच्चाई देखी ,स्वार्थ भरी इस दुनिया में ,
कड़वाहट भी रिश्ते रखते , देखा नीम-करेले में|

गीता ,सीता ,राम,कृष्ण की बातें सब बेकार हुईं ,
बहते सारे लोग यहाँ अब ,भौतिकता के रेले में|

Friday, September 20, 2013

उस नज़र की क्या कहें जिसमें हया नहीं ।
उस हृदय की क्या कहें जिसमें दया नहीं ।
बेशर्मियों के दौर में बेदर्द-सा इंसान ,
बदला है बस ईमान औ कुछ भी नया नहीं ।
कण-कण में खुदा है हमें जबसे हुआ अहसास ,
मंदिर औ मस्जिदों में तब से गया नहीं ।
.........................डॉ मनोज कुमार सिंह
 —

Thursday, August 29, 2013


          



                 दोहे मनोज के ............

1
पैंसठ बरसों बाद भी ,आज़ादी बस नाम |
डॉलर के दरबार में ,रुपया अभी गुलाम ||
2
बेलगाम टीवी हुआ ,कौन करे कंट्रोल |
भौड़ेपन की आग में ,मूत रहा पेट्रोल ||
3
सोसल साइट्स पर सदा ,आक्रामक व्यवहार|
पर टीवी व्यभिचार पर ,नरम रही सरकार ||
4
हिंसा औ अश्लीलता ,विविध भाँति के रोग |
चटखारे ले बाँटता ,टीवी का उद्योग || 

5
चेन्नई एक्सप्रेस पर, खर्चे शतक करोड़ |
मगर प्याज के नाम पर, रोने की है होड़ ||
6
मैं लड़ता हूँ भूख से ,मुझसे लडती प्यास |
मैं दोनों के बीच में ,झेल रहा संत्रास |
7
चमक रहे हो खुद यहाँ ,और सभी द्युतिहीन |
कैसे मानू मैं तुम्हें ,असली कला-प्रवीन ||
8
भावों की बरसात से ,भारी मन के पाँव |
सृजन- प्रसव की चाह में ,ढूढ़े सुन्दर छाँव ||

9
अखबारों की सुर्खियाँ ,समाचार का सार |
मानवता के रक्त से, सना पड़ा अखबार |
10
सिसक रहीं है हड्डियां ,पड़े गटर में बंद |
शोकाकुल परिवेश में, कौन सुनाये छंद |
11
गोदें सूनी हो रहीं ,सपने सारे ध्वस्त |
आज दरिंदे कर रहे, मानवता को पस्त ||
12
मानवता थर्रा गई ,देख क्रूर यह खेल |
क्या कभी मुर्झाएगी ,यह हिंसा की बेल ||

13
रक्षाबंधन पर्व पर ,सबको नमन हज़ार |
बहनों के रक्षार्थ हम ,सदा रहें तैयार ||
14
जाति-धर्म से श्रेष्ठ है ,बहनों का सद् प्यार |
अदभुत ,पावन पर्व है ,राखी का त्यौहार ||
15
सत्य ,ज्ञान, गुरु ,आत्म से ,जब बंधता इंसान |
बनकर रक्षा कवच ये ,देते जीवन दान ||

16
मनमोहक ,दिलकश अदा ,ठगने का हथियार |
है अनीति के शास्त्र पर ,टिका हुआ बाज़ार |
17
औरत ,इज्जत ,प्रेम हो ,या रिश्तों के बीज |
बाज़ारों के दौर में ,बिकती है हर चीज ||
 18
किसको कैसे लूटना ,कुत्सित लिए विचार |
दुनिया में हमको सदा ,सिखलाते बाज़ार ||
 19
टीवी के बाज़ार में ,औरत इक उत्पाद |
चटखारे ले बेचता ,नंगेपन की खाद |
 20
अदभुत है बाज़ार का ,अर्थशास्त्र उद्योग |
स्वार्थपूर्ति बस ध्येय है ,लाभांशों का योग ||

21
कैसा तेरा न्याय है ,कैसा तू हमदर्द |
जुल्म ढा रहा संत पर ,कैसा है तू मर्द ||
22
सत्ता का अपराध से ,ये कैसा अनुबंध |
अपराधी खुला घूमें ,संतों पर प्रतिबन्ध ||

23
कान्हा जी के जन्म पर ,खुशियाँ मिलें अपार |
चहुँ दिशि सुख औ शान्ति हो ,घर-घर बरसे प्यार ||
24
प्रेम ,भक्ति सद्कर्म का ,देने को सन्देश |
कृष्ण लला तू आ जरा ,फिर से मेरे देश ||
25
संकट में है देश का ,धर्म ,न्याय औ संत |
हे कान्हा आकर करो ,फिर दुष्टों का अंत ||
26
एक कंस वध के लिए ,लिए कृष्ण अवतार |
आज हज़ारों कंस हैं ,कौन करे संहार ||

27
क्षमा करो हे निर्भया ,दिला सके ना न्याय |
तेरे संग कानून भी ,किया बहुत अन्याय ||
28
मेरे देश महान का ,ये कैसा क़ानून |
घोर क्रूर हैवान का ,माफ़ कर दिया खून ||
29
जिसको फाँसी चाहिए ,पाया कुछ दिन जेल |
फिर खेलेगा निकलकर ,बलात्कार का खेल ||
30
कानूनी ये फैसला ,दिला दिया अहसास |
अब रक्षा के नाम पर ,न्याय मात्र बकवास ||
31
इज्जत खो बिटिया मरी ,झेल-झेल संत्रास |
देख हश्र क़ानून का ,उठा आज विश्वास ||

32
मुल्ला ,बाबा ,पादरी ,को किसने दी छूट |
सदा धर्म की आड़ में ,सबकी इज्जत लूट ||
33
मिडिया ,राहुल ,सोनिया ,से लेकर के बैर |
बाबा आसाराम सुन ,नहीं तुम्हारी खैर ||
34
ज्ञान ,आचरण ,प्रेम के,सबसे बड़े फ़क़ीर |
भारत की तस्वीर में ,तुलसी सूर ,कबीर ||
35
पाक साफ यदि है हृदय ,तो जंगल क्या जेल |
संत कभी डरता नहीं ,नहीं रचाता खेल ||
36
संतों की पहचान है ,सहज ,सरल व्यवहार |
सदाचरण की जिंदगी ,जीव मात्र से प्यार ||
37
कुछ ढोंगी , बहुरुपिया ,कालनेमि के बाप |
पकड़ संत का रूप वे ,बाँट रहे हैं पाप ||
38
विश्वासों के मूल पर ,करते वहीँ प्रहार |
जिनको जीवन में कभी ,मिला नहीं है प्यार ||

39
लोभ,मोह ,ईर्ष्या घृणा ,अपनाकर अपमान |
दया ,प्रेम ,करुणा ,विनय ,भूल गया इंसान |
40
दुनिया में उस रूप की ,कैसे हो पहचान |
भीतर से तो भेड़िया ,ऊपर से इंसान ||
41
पत्थर का  पूजन  किया ,धर ईश्वर का ध्यान |
नहीं मिला जब जगत में ,पूज्यपाद इंसान ||

42
गुरु का आशीर्वाद हीं ,ईश्वर का वरदान |
बिनु  गुरु के संभव नहीं ,ईश्वर की पहचान ||
43
गुरु शिष्य की परंपरा ,पावन औ प्राचीन |
लेकिन अर्वाचीन में बेबस और मलीन||
44
गुरु किरिपा देता हमें ,ज्ञान पुष्प का दान |
जब चरणों में शीश हो ,मन में हो सम्मान |
45
गुरु शिक्षक कुछ हीं बचे ,रहते सदा सहाय |
बाकी सब करने लगे ,शिक्षा का व्यवसाय ||
46
अथक परिश्रम सृजन से ,मिलता सुन्दर अर्थ |
गुरुओं के सद्प्रेम से, जीवन बने समर्थ ||
47
घोर तिमिर संसार में ,शिष्य जहां फँस जाय |
अज्ञानी गुमराह को ,गुरु हीं राह दिखाय ||

48
मनसा ,वाचा ,कर्मणा ,हो हिंदी उत्थान |
तभी एक होगा यहाँ ,पूरा हिन्दुस्तान ||
49
हिंदी मानस में बसे ,विविध रूप भगवान |
तुलसी ,सूर ,कबीर हों ,या रहीम ,रसखान |
50
इक भाषा ,इक राष्ट्र हित ,चलो करें संघर्ष |
हिंदी जनभाषा बने ,यहीं सही उत्कर्ष ||
51
मुख में हिन्दुस्तान है ,दिल में है इंग्लैण्ड |
हिन्दी के हर गीत पर ,अंग्रेजी का बैंड ||
52
दिल्ली मैंने देख ली ,तेरे मन की खोंट |
अंग्रेजी को ताज है ,औ हिंदी को चोट ||
53
हिंदी भारत की रही , जन जन की पहचान |
धड़कन अब भी राष्ट्र की ,आन, बान औ शान ||

54
धान पौध -सी बेटियाँ ,दो खेतों की योग |
इसको कहें वियोग या ,इक सुन्दर संयोग ||
55
बिछड़न,लिपटन औ रुदन ,समझ पुराने ख्याल |
मुस्काती अब बेटियाँ ,जाती हैं ससुराल ||
56
बेटी दुःख की खान है ,बहू स्वर्ण की सेज |
ऐसी हीं कुछ सोच है ,लेकर विषय दहेज़ ||
57
बाप पढ़ाया भेज कर ,बेटे को परदेश |
अफसर बनकर बाप को ,देता अब निर्देश ||
58
रोगी ढूंढें वैद्य को ,विद्याभ्यासी ज्ञान |
ज्ञानी ढूंढें तत्त्व को ,वेश्या जस धनवान ||
59
बेशर्मी के दौर में, जीना हुआ मुहाल |
नाक कटाकर भी यहाँ ,रहते कुछ खुशहाल ||

60
जीवन की अनुभूति का ,सुन्दर सत्य प्रमाण |
है मकसद साहित्य का ,हो सबका कल्याण ||
61
स्वतः मुक्त होता हृदय ,मिटते सब अवसाद |
जब रचना करने लगे ,जीवन से संवाद ||
62
एक तरफ साहित्य में ,फैला ब्राह्मणवाद |
दलितवाद दूजै तरफ ,लेकर खड़ा विवाद ||
63
राजनीति में फँस गई कविता की पहचान |
जोड़ -तोड़ में कवि लगे ,कैसे बनें महान ||
64
पुरस्कार साहित्य का ,हुआ जुगाड़ी खेल |
अबुआ झबुआ पा रहे ,लगा ,लगा कर तेल ||


65 पढ़ा रहे हैं आज वो ,हमें प्रगति के पाठ |
जिसने जीवन भर पढ़ा ,सोलह दूनी आठ ||
66
शर्म ,हया, शालीनता , औरत के श्रृंगार |
लेकिन अर्वाचीन में ,हैं तीनों बेकार |
67
कामुकता ,अश्लीलता ,का लेकर हथियार |
औरत को अब बेचता ,मीडिया का बाज़ार |
68
घृणा ,द्वेष अन्याय का ,चलो करें संहार |
प्रेम ,त्याग ,श्रद्धा ,विनय ,का लेकर हथियार |
69
विश्व विजय करता वहीँ ,जिसके मन में प्यार |
इसके आगे सब यहाँ ,फींके हैं हथियार ||


70 गाँधी फिर आओ यहाँ ,तू अपने इस देश |
सत्य ,अहिंसा ,प्रेम का, लेकर नव सन्देश |
71
गाँधी तेरे नाम पर ,गाँधी हुए तमाम |
कुछ तो राजकुमार हैं ,कुछ घूरे के आम |
72
ये कैसा आदर्श है ,कैसा राष्ट्र -चरित्र |
रुपये में हम बेचते ,गाँधी जी के चित्र |
73
कर्म और ईमान का ,अद्भुत रहा मिसाल |
लाल बहादुर नाम था ,भारत माँ का लाल |


74 दो कौड़ी का आदमी ,होता जब मशहूर |
अहंकार ,मद में सदा ,रहता निश्चित चूर ||
75
राजनीति की ओट में ,किया मुल्क बदहाल |
गदहों की औलाद ने ,पहन शेर की खाल |
|
76
कालेधन की माँग पर ,इक पर अत्याचार |
इक बाबा के ख्वाब पर ,झपट पड़ी सरकार ||
77
ये कैसा व्यवहार है ,हे शोभन सरकार |
क्यों भ्रष्टो को दे रहे, आज स्वर्ण उपहार ||
78
जिनके बल पर धर्म की , महिमा रही अनंत |
वहीँ आज इस देश में, शोषित हैं अब संत ||
79
संकट में यह देश है ,मान रहा हूँ आज |
सस्ता अब भी आदमी ,औ महँगा है प्याज ||

80
राजनीति जब -जब रही ,वंशवाद के हाथ |
शहजादों के देश में ,जनता हुई अनाथ ||
81
भूख, गरीबी,
 दर्द का ,आर्तनाद चहुँओर |
तुम कुर्सी पर बैठ कर ,होते रहे विभोर ||
82
पप्पा ने सत्ता दिया ,होके भाव विभोर |
पर चच्चा मिल कर रहे ,कुर्सी को कमजोर ||
83
बनी बनाई राह पर ,चलना है आसान |
राह बना कर जो चले ,वहीँ मर्द इंसान ||
84
सीधी -सादी जिंदगी ,जीता जो इंसान |
जीवन में होता नहीं ,उसका कुछ नुकसान ||
85
सही -गलत का आकलन, करता जो इंसान |
वहीँ बना पाता सदा ,अपनी इक पहचान ||










Saturday, August 17, 2013

वन्देमातरम मित्रो !आज स्वतंत्रता दिवस पर मैं अपनी एक कविता जो 2/11/1992 को अपने कालेज के दिनों में लिखी थी और कालेज के एक कार्यक्रम में सुनाया था जिसमें एक भ्रष्ट सांसद मुख्य अतिथि पधारे थे |उन्होनें मेरी कविता और जज्बे की तारीफ जरुर की थी , मगर वे भीतर से कसमसा गए थे ,आज यह कितनी प्रासंगिक है आप तय करेंगे ................

नौजवान जाग तू, बुलंद कर आवाज को |
फूंक दे तू जीर्ण-शीर्ण, रूढ़ियों के साज को |

तुम्हीं से आज देश है ,तुम्हीं से आज है जहां |
मगर तेरा पता नहीं ,खो गए हो तुम कहाँ |
बाहुबल प्रशस्त कर, छोड़कर मनौतियाँ |
पुकारता है देश अब, स्वीकार कर चुनौतियाँ|
घोर तम हटा ,डगर दिखा, नया समाज को ||
नौजवान जाग तू ,बुलंद कर आवाज को ||

देश की अखण्डता पे, चल रही हैं आरियाँ |
जल रही कश्मीर में, केशर की सुघर क्यारियाँ |
आग है सुलग रही, गंगो-जमन के रेत में |
आंधियां उठी हुई हैं, पंचनद के खेत में |
हो रहा षड्यंत्र देश, बेचने की आज को |
नौजवान जाग तू, बुलंद कर आवाज को ||

चाहिए नहीं स्वराज ,आज हमें इस तरह |
रो रही मनुष्यता है ,बिलख-बिलख किस तरह |
ब्रह्मपुत्र के सुपुत्र ,रक्त से नहा रहे |
अपने हीं चमन को ,अपने हाथ से जला रहे |
अखंड हिन्द में ये, माँगते हैं किस स्वराज को ?
नौजवान जाग तू ,बुलंद कर आवाज को ||

डाकू औ लुटेरे जब से, नेता बनते जा रहे |
कुकर्म ,बलात्कार जुर्म, नित्य बढ़ते जा रहे |
नारियों पे छूरियाँ ,चमक रहीं अँधेरे में |
लुटती हैं नित्य रात, कट्टे के घेरे में |
हो सके बहन भी तेरी ,लुटे रात आज को |
नौजवान जाग तू बुलंद कर आवाज को ||

विष-वेलि भ्रष्ट तंत्र की ,जड़े यहाँ जमा रहीं |
नौजवां की एकता को, बाँट कर लड़ा रही |
ऐ नालायकों! जगो,अब से भी ज़रा होश कर |
एकता के सूत्र में बंधकर, हृदय में जोश भर |
तभी मिटा सकोगे, भ्रष्ट तंत्र की आवाज को |
नौजवान जाग तू ,बुलंद कर आवाज को ||

नौजवान हो तो कदम ,तू जवानी का बढ़ा |
मातृभूमि के लिए, भेंट अपना सर चढ़ा |
दिन दहाड़े सामने हीं ,क़त्ल हो रहे यहाँ |
बोलता कोई नहीं ,बंद है सबकी जुबां|
कायरों की मंडली है, धिक् है उनकी लाज को |
नौजवान जाग तू ,बुलंद कर आवाज को ||

आज हो रहा यहीं ,राणा ,भरत के देश में |
लूटते लुटेरे राष्ट्र ,रक्षक के वेश में |
हो रहे घोटाले ,प्रतिभूति औ बोफोर्स से |
मुजरिम बच जाते साफ़, मंत्रियों के सोर्स से |
जालिमों के हाथ से, छुड़ा तू तख्तो -ताज को |
नौजवान जाग तू,बुलंद कर आवाज को ||

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह


          मुक्तक 

चेहरे पे चेहरा लगाना छोड़ दे |
अभिव्यक्ति पे पहरा लगाना छोड़ दे |
अपनी कमियों को छुपाने के लिए यूँ ,
तू गैर पर तोहमत लगाना छोड़ दे |


     मुक्तक 

सदा ईमान पर, खंजर चलाना चाहता है |
किसी भी तौर पर, इक डर बिठाना चाहता है |
ये शासन है, हमारी प्रश्नवाचक नज़रों को ,
खौफ से कांपता, कबूतर बनाना चाहता है |


              मुक्तक 
भेड़िये इंसान बन के आ रहे |
करतबों से देवता बन छा रहे |
घोंटकर विश्वास का सीधे गला ,
मारकर इंसानियत को खा रहे
|


                मुक्तक 

रोका नहीं किसी ने ...........सरेआम घूमों |
जहाँ भी चाहते हो ..........खुलेआम घूमों |
पर किसने कहा दिल से तहज़ीब मिटाकर ,
सड़क पे बेहया-से ........ बेलगाम घूमों |


                   मुक्तक 
आधुनिकता हो गई पर्याय पश्चिम की |
ढूढ़ सके ना आज तक उपाय पश्चिम की |
हम भी विकसित हो चुके है ,ये दिखाने को ,
बोलते हैं वाऊ, हैलो ,हाय पश्चिम की |


               मुक्तक 

कविता और कहानी, एक बहाना है |
इसी बहाने दिल का, जख्म दिखाना है |
दर्द हमारा समझ न पाती, है दुनिया ,
उसकी खातिर बस, दिलकश अफसाना है |




                ग़ज़ल 

आप-सा पोषण-भरण कैसे करूँ |
और उसका अनुसरण कैसे करूँ |

आपने दिल में बिठाया भेडिया,
भेडिया -सा आचरण कैसे करूँ |

ताक में है देशद्रोही देश का ,
शांति का मैं अपहरण कैसे करूँ |

चाहता हूँ गम की बस्ती में सदा ,
मैं ख़ुशी का संचरण कैसे करूँ |

रूप में खोया हुआ दर्पण कहे ,
लोभ का मैं संवरण कैसे करूँ |


               मुक्तक 

तेरी साजिशों का, जिसे भी पता है |
उसे फिर मिटाना, तुम्हारी अदा है |
किसे मैं बताऊँ ,तुम्हारी हकीकत ,
सभी की नज़र में, तू दिखता खुदा है |



                    मुक्तक 

जाति -धर्म में बाँट देश को ,क्यों करते हो हमको आहत |
पैर सलामत वालों को भी देते बैशाखी की राहत |
आज योग्यता अर्थ हीन हो ,रोटी को मोहताज हो गई ,
वोट की खातिर कुर्सी करती कितनी गन्दी आज सियासत |
         ग़ज़ल 

अग्निपथ पर मैं सदा बढ़ता रहा हूँ |
दर्द का हर ताप मैं सहता रहा हूँ |

शा 'जहाँ उँगुली ये एक दिन देगा,
जानकर भी ताज मैं गढ़ता रहा हूँ |

जब भी सूरज डूबता घनघोर तम में ,
दीप बनकर रातभर जलता रहा हूँ |

मैं समंदर सा कभी ठहरा नहीं हूँ ,
मैं हूँ दरिया निरंतर बहता रहा हूँ |

बंदिशें जब भी लगीं अभिव्यक्तियों पर ,
सत्य फिर नज़रों से मैं कहता रहा हूँ |

जीत का दुनिया मनाती जश्न कितना ,
हारकर भी मैं सदा हँसता रहा हूँ |



                ग़ज़ल 


आँखों में यहीं सुलगते, सवाल खड़े हैं |
कुछ लोग हीं क्यों देश में , खुशहाल खड़े हैं ?

पैंसठ बरस के बाद भी, इन्साफ के लिए
क्यों आम लोग हीं यहाँ, फटेहाल खड़े हैं ?

कौड़ी का आदमी था ,संसद गया जबसे ,
सुना शहर में उसके, कई माँल खड़े हैं |

किस भाँति देश बेचना, तरकीब सोचते ,
पग-पग पे यहाँ देखिये, दलाल खड़े हैं |

कुर्सी की साजिशों का, परिणाम देखिये ,
सर्वत्र जाति-धर्म के, दीवाल खड़े हैं |

कैसे उगेगा प्यार का पौधा, बताइए ,
दिल में घृणा के बरगद, जब पाल खड़े हैं |



          ग़ज़ल 

हमारा बोलना उनको कभी अच्छा नहीं लगता ,
हमारी चुप्पियाँ उनको कभी सोने नहीं देतीं |

हमारी सुर्खियाँ सच की उन्हें जब घेर लेती हैं ,
जो उनकी झूठ औ साजिश सफल होने नहीं देती |

हमें वो जख्म देकर मुस्कुराते हैं ,मुझे मालूम ,
मगर ये जिद है मेरी कि मुझे रोने नहीं देती |

बुझाती प्यास अपनी जब लहू से मज़हबी खंजर ,
अमन का बीज गुलशन में कभी बोने नहीं देती |

हमेशा कुर्सियां इतिहास अपने पक्ष में लिखतीं ,
जो अपने जुर्म को जाहिर कभी होने नहीं देतीं |








        दोहे मनोज के ...............
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आज सभ्य इंसान में ,दिखता यहीं उसूल |
पत्थर के गुलदान में ,जस कागज के फूल |


इशरत को बेटी कहे ,मोदी को अवसाद?
बोधगया में कौन है ,बेटी या दामाद ??


आज सियासत खेलती ,खुला-खुला- सा खेल |
देश भक्त को जेल है ,आतंकी को बेल ||


तन कच्छप ,मन शशक सा , इक धीमा इक तेज |
फिर भी जीवन भर चलें ,औसत चाल सहेज ||


जिस बच्चे की पीठ पर ,हो बुजुर्ग के हाथ |
जीवन भर होता नहीं ,बच्चा कभी अनाथ |



बच्चों की मुस्कान में ,बसते जब भगवान |
तब क्यों है इस जगत में ,पत्थर-सा इंसान ||


शब्द-अर्थ दाम्पत्य -से ,जस धरती-आकाश |
दोनों के सहधर्म से ,उपजे भाव प्रकाश ||


आज प्रगति के नाम पर ,कितना हुआ विनाश |
हाँफ रही शोषित धरा ,कांप रहा आकाश ||


तथाकथित कुछ सेकुलर ,देते बस उपदेश |
जातिवाद के नाम पर ,बाँट रहे हैं देश |


जब कटुता की आँच से , ,जलते मन के खेत |
ठूंठा-ठूंठा जग लगे ,जीवन बंजर रेत ||


चोरी मेरा काम है ,चोरी हीं आधार |
जीवन भर करता रहा ,चोरी चुपके प्यार ||



देकर पाने की जहाँ ,मन में जगे विचार |
उसको कह सकते नहीं ,किसी तरह उपकार ||1 ||

अग्यानी ग्यानी बने ,औ ग्यानी विद्वान|
गुरुओं के उपकार से ,जीवन बने महान ||2 ||

पहले रोटी दान कर ,फिर करना तुम प्यार |
शोषित वंचित के लिए ,यहीं बड़ा उपकार ||3 ||

हे भारत के आम जन ,कर दो इक उपकार |
अबकी बार चुनाव में ,चुनो नई सरकार ||4 ||



क्या करना आकाश का ,जहाँ नहीं ठहराव |
उससे अच्छी ये धरा ,जहाँ टिके हैं पाँव |

राजनीति की सोच में ,कब किसकी परवाह |
जनता जाए भाड़ में ,बस कुर्सी की चाह ||

गाँधी जी के नाम पर ,गांधी हुए तमाम |
कुछ तो राज कुमार हैं ,कुछ घूरे के आम ||

वायु ,गगन, धरती मिले ,मिले अनल औ नीर |
पंचतत्त्व ब्रह्माण्ड से ,विरचित सकल शरीर |


नफरत ,कुंठा ह्रदय में ,होठों पे मुस्कान |
कालनेमि -से रूप का ,कैसे हो पहचान ||

नक़ल ,नक़ल में भेद है ,अकल ,अकल में भेद |
नक़ल अकल से जो करे ,पाये जीवन वेद|

ले उधार की रोशनी ,चाँद बना जब ख़ास |
सरेआम करने लगा ,जुगनू का उपहास |

क्रोध ,मोह ,मद लोभ में ,हम इतने मदहोश |
जीवन की लहरें हुईं ,बेवश औ खामोश |

भूख ,प्यास ने बनाया ,हमको महज गुलाम |
इनके अत्याचार ने ,जीना किया हराम |


तुम एसी में बैठकर ,लेते हो आनंद |
हम श्रम-साधक स्वेद से ,लिखते जीवन छंद ||


राजा के दरबार में ,वहीँ लोग स्वीकार |
हाँ में हाँ जो बोलते ,जी हजूर ,सरकार||


बिन तुक की बातें सदा ,देतीं दुख,अवसाद |
जैसे सूअर को कहें ,कुत्ते की औलाद ||

 
नीचे कुल का जनमिया ,करनी भी है नीच |
घृणा त्याग तू बन बड़ा ,प्रेम हृदय में सींच ||


बोलो वन्दे मातरम ,करो राष्ट्र का मान |
तभी शहीदों की धरा ,पाएगी सम्मान ||


लड़का -लड़की मित्रता ,नया चला है ट्रेंड |
बीच सड़क पे बज रहा ,संस्कार का बैंड ||


विश्वासों की नींव पर ,कर पीछे से वार |
कुत्तों ने फिर कर दिया ,शेरों का संहार |

भारत माँ के लाडलों ,तुमको नमन हजार |
फिर आना इस देश में ,करने नव संचार |

सत्ता औ इंसानियत ,कहाँ रहा है मेल |
लाशों पर भी खेलती ,राजनीति का खेल |


ईद ,तीज दोनों मने ,हों सारे खुशहाल |
गले मिलें दिल खोलकर ,निशदिन सालो साल ||


मत्स्य -न्याय में चल रहा ,अब भी शासन चक्र |
सत्ता की नज़रें दिखीं ,कमजोरों पर वक्र ||


जन- सेवा के नाम पर,घोटालों का कंत|
सौ-सौ चूहा हज़म कर , बना हुआ है संत ||


कर्तव्यों के सिर चढ़े ,जब-जब ये अधिकार |
अहंकार का रूप धर ,बने स्वार्थ के यार ||

देश -दहन में सोचना, कितना तेरा हाथ |
चुन चुनकर नेता गलत ,करते देश अनाथ ||



खतरे में हैं बेटियाँ ,फिर भी हम सब मौन |
हैवानों की हवस से ,बता ,बचाये कौन ?


पड़िया जब पैदा भई ,भैंस पुजाती द्वार |
पर बेटी के जन्म पर ,जननी को फटकार ||


लोकशक्ति हीं शक्ति है ,देशभक्ति हीं भक्ति |
संविधान हीं देश का ,धर्मग्रन्थ की सूक्ति ||

संकट में तुम कृष्ण हो ,औ चरित्र से राम |
हे सैनिक !इस देश के ,तुझको करूँ प्रणाम ||


1
गाय ,गीता ,गायत्री ,चलो बचाएं आज |
यहीं देश की अस्मिता ,गौरव,गरिमा ,लाज ||

2
तप,मर्यादा,तेज,यश,मिटते पाय कुसंग |
जीवन की संजीवनी ,संयम ,त्याग ,उमंग ||

3
पतझर तो इक चक्र है ,फरे,झरे ,फल-पात |
जन्म-मरण भी नियति है ,जीवन के सौगात ||

4
बिना कर्म जब फल मिले ,पंथी को भरपूर |
तब क्यों चाहेगा कभी ,फल लागे अति दूर ||

5
कला जिंदगी में हमें ,देती दृष्टि नवीन|
दिशाहीन को दे दिशा ,करती सदा प्रवीन||

6
दीवारों में खिड़कियाँ ,कला दृष्टि की देन |
घुटन भरे माहौल में ,देती है सुख -चैन ||