Sunday, November 24, 2013

गर्दनें कट रहीं हैं ख्वाब की, फसल की तरह |
जिंदगी लग रही है आज, महज पल की तरह |

मौत का हादिसा अब, हादिसा नहीं लगता ,
मर्सिया पढ़ रहे हैं लोग, अब ग़ज़ल की तरह |

झोपड़ी में हीं कैद हो के, रह गए रिश्ते ,
अजनबी हैं यहाँ सब, शहर के महल की तरह |

जिंदगी जी रहे हैं लोग, कई किश्तों में ,
कभी नदियों तो कभी थार की, मरुथल की तरह |

दिन में वे बाँटते, तहज़ीब की लम्बी चादर ,
रात होती है जिनकी बार में, जंगल की तरह |

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