Saturday, August 17, 2013

         ग़ज़ल 

अग्निपथ पर मैं सदा बढ़ता रहा हूँ |
दर्द का हर ताप मैं सहता रहा हूँ |

शा 'जहाँ उँगुली ये एक दिन देगा,
जानकर भी ताज मैं गढ़ता रहा हूँ |

जब भी सूरज डूबता घनघोर तम में ,
दीप बनकर रातभर जलता रहा हूँ |

मैं समंदर सा कभी ठहरा नहीं हूँ ,
मैं हूँ दरिया निरंतर बहता रहा हूँ |

बंदिशें जब भी लगीं अभिव्यक्तियों पर ,
सत्य फिर नज़रों से मैं कहता रहा हूँ |

जीत का दुनिया मनाती जश्न कितना ,
हारकर भी मैं सदा हँसता रहा हूँ |



                ग़ज़ल 


आँखों में यहीं सुलगते, सवाल खड़े हैं |
कुछ लोग हीं क्यों देश में , खुशहाल खड़े हैं ?

पैंसठ बरस के बाद भी, इन्साफ के लिए
क्यों आम लोग हीं यहाँ, फटेहाल खड़े हैं ?

कौड़ी का आदमी था ,संसद गया जबसे ,
सुना शहर में उसके, कई माँल खड़े हैं |

किस भाँति देश बेचना, तरकीब सोचते ,
पग-पग पे यहाँ देखिये, दलाल खड़े हैं |

कुर्सी की साजिशों का, परिणाम देखिये ,
सर्वत्र जाति-धर्म के, दीवाल खड़े हैं |

कैसे उगेगा प्यार का पौधा, बताइए ,
दिल में घृणा के बरगद, जब पाल खड़े हैं |



          ग़ज़ल 

हमारा बोलना उनको कभी अच्छा नहीं लगता ,
हमारी चुप्पियाँ उनको कभी सोने नहीं देतीं |

हमारी सुर्खियाँ सच की उन्हें जब घेर लेती हैं ,
जो उनकी झूठ औ साजिश सफल होने नहीं देती |

हमें वो जख्म देकर मुस्कुराते हैं ,मुझे मालूम ,
मगर ये जिद है मेरी कि मुझे रोने नहीं देती |

बुझाती प्यास अपनी जब लहू से मज़हबी खंजर ,
अमन का बीज गुलशन में कभी बोने नहीं देती |

हमेशा कुर्सियां इतिहास अपने पक्ष में लिखतीं ,
जो अपने जुर्म को जाहिर कभी होने नहीं देतीं |






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