Sunday, November 24, 2013


ग़ज़ल 

कभी-कभी सोचा करता हूँ ,बैठे यहाँ अकेले में |
बाँच रहा अपनी कवितायें क्या भैंसों के मेले में ?


बड़े-बड़े सब चले गए, समझा कर दुनिया वालों को ,
वैसी की वैसी दुनिया है ,अब भी पड़ी झमेले में |

ज्ञानी अब विज्ञानी बनकर, शैतानी चालें चलता ,
इंसानी ताकत बंधक है ,बदबूदार तबेले में |

रिश्तों की सच्चाई देखी ,स्वार्थ भरी इस दुनिया में ,
कड़वाहट भी रिश्ते रखते , देखा नीम-करेले में|

गीता ,सीता ,राम,कृष्ण की बातें सब बेकार हुईं ,
बहते सारे लोग यहाँ अब ,भौतिकता के रेले में|

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