गीतिका मनोज की....(भाग -1)
1-
तुम हमारी धडकनों की, श्वास हो माँ |
प्रेम की तू एक सहज, एहसास हो माँ |
चिलचिलाती धूप-सी, इस जिंदगी में ,
खिलखिलाती चांदनी, मधुमास हो माँ |
रंग अद्भुत मुझ अधूरे चित्र की तुम !
मूर्ति ममता की हृदय में, ख़ास हो माँ |
लोरियों की स्वाद ,सपनों की मधुरता ,
मखमली स्पर्श की बस, घास हो माँ |
दया ,करुणा,त्याग सब पर्याय तेरे ,
तुम सुरक्षा की कवच, विश्वास हो माँ |
तुम हीं गंगा और यमुना, तृप्ति मन की
औ हृदय की चेतना की प्यास हो माँ |
प्रार्थना की पंक्ति हो, मेरे हृदय की ,
अनिर्वचनीय औ अलौकिक, रास हो माँ |
तुम निराशा के क्षणों में, नव किरण-सी
बूंद अमृत की नवल, उल्लास हो माँ |
धर्म की औ कर्म की, एक सत चरित हो ,
तुम सहज कर्त्तव्य की, अभ्यास हो माँ |
कुछ न मुझको चाहिए, इस जिंदगी से ,
बहुत खुश हूँ तुम हमारे, पास हो माँ |
2-
सच कभी बेघर नहीं होता।
आईनागर अगर नहीं होता।
बिना झुके निजाम के आगे,
आसान सफर नहीं होता।
असर ज़हन तक गर नहीं पहुँचे,
जहर भी जहर नहीं होता।
चलना होता है मंजिलों के लिए,
ख़्वाब देखना भर नहीं होता।
भीड़ चलती है जिंदगी में मगर,
हर शख्स हमसफर नहीं होता।
3-
बात ऐसी किया न करो।
बेवहज यूँ डरा न करो।
तुम सियासत करो शौक से,
देश को बस छला न करो।
घर तुम्हारा है जैसे रहो,
दिल में घुट घुट जिया न करो।
मुल्क लट्ठे का कपड़ा नहीं,
फाड़कर फिर सिया न करो।
जिसकी खाया,उसी भूमि के,
ज़ख्म दिल पर दिया न करो।
4-
उपवन में सन्नाटा क्यों?
फूल से ज्यादा काँटा क्यों?
हिन्दू-मुस्लिम टुकड़ों में,
बोलो हमको बाँटा क्यों?
राजनीति की नीयत में,
महज लाभ औ घाटा क्यों?
मुफ़लिस की हर थाली में,
इतना गीला आटा क्यों?
नेताओं की बल्ले बल्ले,
जन के मुख पर चाँटा क्यों?
बिन दौड़ाए गधा पास,
रेस का घोडा छाँटा क्यों?
5-
हद से ज्यादा गुजरना, यूँ आसां नहीं।
सबके दिल में उतरना ,यूँ आसां नहीं।
मन के आकाश में ,जब हो गहरा तमस,
रोशनी बन बिखरना ,यूँ आसां नहीं।
सच को सच कह सके, जिंदगी ये सदा,
इन उसूलों पे चलना ,यूँ आसां नहीं।
इश्के-आजार में ,जो भी बीमार है,
फिर से उसका सुधरना ,यूँ आसां नहीं।
वक्त देता है मौक़ा, सभी को मगर,
जो न संभले संभलना ,यूँ आसां नहीं।
(इश्के-आजार- प्रेम का रोग)
6-
नाम उन्हीं के मेले हैं।
दाव पेंच जो खेले हैं।
है गुरुओं की भीड़ लगी,
ढूंढ़ रहे सब चेले हैं।
शब्द मेरे कड़वे लगते,
जैसे नीम-करेले हैं।
रहते मुझमें लोग बहुत
दिखते भले अकेले हैं।
काव्य ऋचायें जीवन की,
जज्बातों के रेले हैं।
रुपयों से महँगे,मेरे,
स्वाभिमान के ढेले हैं।
शहरी सेवों से अच्छे,
गाँव के मेरे केले हैं।
राजधानियों में बैठे,
कुछ अपनी ही पेले हैं।
रोज रोज की महफ़िल में,
पुरस्कार अलबेले हैं।
बाजारों में रद्दी की,
अद्भुत ठेलम ठेले हैं।
7-
छोटी सी औकात है लेकिन, झूठी शान दिखाते हैं ।
आत्मप्रकाशन करने में हीं, सारा समय बिताते हैं।
फेसबुक पर विज्ञापन का ,है एक ऐसा दौर चला ,
चार कवि मिलकर आपस में, विश्व कवि बन जाते हैं।
सूरदास ,तुलसी ,कबीर को, पढ़कर कुछ परदेश गए ,
बाज़ारों में रख कर उनको, डॉलर खूब कमाते हैं ।
मौलिकता का मूल सिपाही ,धूल चाटता सड़कों पर,
चोरों को देखा मंचों पर, गा-गाकर छा जाते हैं ।
8-
धैर्य कभी न,खोती है।
माँ तो माँ बस,होती है।
जगती,बच्चे से पहले,
फिर सोने पर,सोती है।
तन मन जीवन,तुष्ट करे,
माँ ममता की,रोटी है।
कल्मष की,मैली चादर,
नित्य प्रेम से,धोती है।
कांटों में ,रहकर भी माँ,
स्वप्न गुलाबी,बोती है।
जिसने पाया,धन्य हुआ,
माँ जीवन का मोती है।
प्रेम,आचरण से पढ़ती,
माँ करुणा की तोती है।
दुनिया में अद्भुत अनुपम,
माँ तो माँ बस होती है।
9-
जब भी मिलना,खुलकर मिलना।
अपनों से खुद, चलकर मिलना।
कालिनेमी बैठे राहों में,
उनसे जरा, संभलकर मिलना।
रिश्तों के इस तमस काल में,
सदा दीप-सा, जलकर मिलना।
मिलना स्थायी होता है,
संघर्षों में ,पलकर मिलना।
कितना सुन्दर! ओसकणों का,
सुबह फूल पर, ढलकर मिलना।
कौन ख़ुशी को माप सका है,
बिछड़े दिल से, मिलकर मिलना।
(कालिनेमी-एक मायावी राक्षस जो रूप बदलने में माहिर था।)
10-
लोकतंत्र कैसे जिन्दा है बात ,हमें मालूम है।
भौंक रहे हर कुत्ते की औकात ,हमें मालूम है।
भरत,राम की संतानें हम,त्याग सदा करते आये,
मातृभूमि को क्या देनी सौगात ,हमें मालूम है।
बैसाखी पर चलने वाले,इतना मत इतराओ तुम,
कुंठाओं से ग्रस्त तेरे जज्बात,हमें मालूम है।
शेरों को बिकते देखा क्या?,बिकते हैं बकरे,पड़वे,
बिकने वाली हर नस्लों की जात,हमें मालूम है।
आस्तीन के सांपों से ,उम्मीद नहीं रखते अब हम,
मीरजाफर,जयचंदों की हर घात ,हमें मालूम है।
(सन्दर्भ-भरत जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा।)
11-
दिखा सके न जो,...हकीक़त क्या है।
ऐसे आईनों की,.....जरूरत क्या है।
खुद खड़ी हो अदालत,..जब कटघरे में,
अब किससे कहें,..मेरी शिकायत क्या है।
कैसे कैसे बैठे हैं,.....इन कुर्सियों पर,
जिन्हें मालूम नहीं,..सही-गलत क्या है।
जिसके दिल मे महज,...नफरत ही बैठी,
कौन बताए उसे ......कि मुहब्बत क्या है।
वतन जो बाँटने को,.........तैयार बैठे हैं,
उन्हें पता ही नहीं,..मायने शहादत क्या है।
12-
पेंशन की टेंशन में कितने चले गए।
खून-पसीना देकर भी हम छले गए।
इस जीवन की विथा-कथा अब कौन सुने,
निशदिन दंड कड़ाही में हम तले गए।
संडे,होली,दिवाली सब भूल गए,
वक्त के हाथों कान हमारे मले गए।
जिसने आँख उठाई कुर्सी के आगे,
एक एक कर सभी सिपाही दले गए।
कुछ तो हैं जो लूट-छूट के हक़ पाए,
शिशुपालन के हिस्से जिनके गले गए।
हम कोल्हू के बैल सरीखे नधे पड़े,
ढलकर देखा, ढलते,ढलते ढले गए।
आँख हमारी,नींद व्यवस्था के हाथों,
जहाँ बुलाए, डगमग पग से चले गए।
क्या होगा भवितव्य,बिना पेन्शन यारों
भय की ओखल में,निशदिन हम खले गए।
भूल गए घर बार,व्यवस्था में डुबकर,
जो अपने थे,छोड़ हमें वो चले गए।
13-
कमा गया कोई।
खा गया कोई।
गलती किसी की,
पा गया कोई।
चाहा किसी को,
भा गया कोई।
बुलाया किसी को,
आ गया कोई।
दुश्मन थी आग,
जला गया कोई।
दर्द भरा गीत मिरा,
गा गया कोई।
14-
जबसे तुम मशहूर हो गए ।
अहंकार में चूर हो गए।
दिल में रहकर भी अब मेरे ,
मुझसे कितनी दूर हो गए ।
रंग बदलते मौसम हो तुम,
या गिरगिट भरपूर हो गए ।
बाजारों के दौर में रिश्ते ,
जाने कितने क्रूर हो गए।
जनमत की अंधी आँधी में ,
सारे चोर हुजूर हो गए ।
सच कहना मुश्किल है यारो,
फिर भी हम मजबूर हो गए।
आज अंधेरों की महफ़िल में,
शब्द हमारे नूर हो गए।
15-
वामपंथी पिशाचिनी।
पाप की अनुगामिनी।
पूर्ण पातुर सदा आतुर,
काम की बस कामिनी।
आधुनिका ताड़काएं,
देह रस की स्वामिनी।
सद्चरित पर दाग काली,
असुरता की यामिनी।
परकीया पति घातिनी ये,
रोग में ज्यों वामिनी।
16-
जहाँ सब कुछ उसी का,अपना दावा कुछ नहीं होता।
मुहब्बत में,समर्पण के अलावा कुछ नहीं होता।
भले दुनिया के आगे,आवरण कुछ ओढ़ ले इंसां,
जो अपने हैं ,तो अपनों से,छिपावा कुछ नहीं होता।
जो जितना है सहज,अपनत्व के पाँवों से चलता है,
दिलों तक खुद पहुँचता है,बुलावा कुछ नहीं होता।
फ़कीरी इश्क़ में,सब कुछ लुटा बेफिक्र रहती है,
यहाँ खोने का पछतावा या दावा कुछ नहीं होता।
ये बस्ती दिल की बस्ती है, जहाँ पर चाहकर के भी,
किसी भी हाल में,झूठा दिखावा कुछ नहीं होता।
17-
चलो, चलते हैं,जहाँ खामुशी है।
खुशी गम से,परे भी जिंदगी है।
अपनी प्रशस्ति की ,दुनिया दीवानी,
ये कैसी ,आत्मघाती बेबसी है।
वहाँ भगवान है निश्चित, जहाँ पर,
मुफ़लिसी में भी,अधरों पर हँसी है।
जो भी आया है,उसको जाना है,
श्वास तो ,जिंदगी की हाजिरी है।
बता,गंगा बहे उस दिल में कैसे,
जिसमें नफ़रत की, बस ज्वालामुखी है।
मैं तो बस दर्द की, कहता कहानी,
तुम्हें लगता है,ये भी शायरी है।
18-
अर्बन नक्सल शील कथाएँ भेजूँ क्या?
जाति-धर्म की अग्नि हवाएँ भेजूं क्या?
राम राष्ट्र को भ्रष्ट कराने की खातिर,
राजनीति की सुर्पनखाएँ भेजूँ क्या?
सत्ता से बोलो ,कब तक मैं दूर रहूँ,
दिल की अपनी विरह-व्यथाएँ भेजूँ क्या?
सत्तर वर्षी लाईलाज है मर्ज जहाँ,
समझ न आता उन्हें दवाएँ भेजूँ क्या?
दो हजार उन्नीस के तुम सरताज बनो,
मज़हब वाली 'पाक'दुआएँ भेजूँ क्या?
19-
जिनसे न व्यवहार मिलेंगे।
कैसे दिल के तार मिलेंगे।
थोड़ा अहं मिटाकर देखो,
सब तेरे अनुसार मिलेंगे।
सुख के साथी पड़े हजारों,
दुख में बस दो-चार मिलेंगे।
प्रेम धार के आगे जग में,
कुंद सभी हथियार मिलेंगे।
दूध पिला दो चाहें जितना,
साँपों से फुफकार मिलेंगे।
20-
इस तरह हम क्या बताएँ और क्या है।
जिंदगी ये ग़म खुशी की लघुकथा है।
प्यार के शृंगार से निशदिन संवर ले,
वगरना ये जिंदगी बिल्कुल वृथा है।
ऐसे ही जिंदा नहीं सदियों से इंसां,
बल पे अपने आग से लड़कर खड़ा है।
छाँव हो या फल शज़र देता नहीं जो,
बड़ा होकर भी कहो कितना बड़ा है।
बूंद-जल नदियों से बहकर जा मिला जब,
प्यार का स्पर्श पा सागर हुआ है।
21-
सच पाने की खातिर सच ही बोना होता है।
कूड़े में रहकर भी सोना,सोना होता है।
जंग लगे न जीवन के पावनतम लौह उसूलों पर,
वक़्त वक़्त पर सदाचरण से धोना होता है।
जो जागृति का गीत रचेगा,वो कैसे सो पायेगा,
कुछ पाने की इच्छा में कुछ खोना होता है।
चख कर देख लिया करना तू दिल के कोटर में रखा,
स्वाद प्यार का कुछ मधुरिम कुछ लोना होता है।
घर वो घर तब ही होता जब,बड़े बुजुर्गों के संग संग,
बच्चों की खातिर भी घर में कोना होता है।
22-
दिलों के दरमियां इक पुल बनाकर देखो।
जुबां का काम निगाहों से निभाकर देखो।
दर्द कितना भी बड़ा होगा यूँ मिट जाएगा,
रोते रोते तू जरा,खुद को हँसाकर देखो।
गुलों की हैसियत बढ़ जाएगी गुलिस्तां में,
हवा के हाथ में खुशबू को थमाकर देखो।
सतह पर तैरकर मत नापिये समंदर को,
उसकी गहराइयों में खुद को डुबाकर देखो।
तेरा झुकना किसी की जिंदगी बदल देगा,
गिरे इंसान को झुककर तो उठाकर देखो।
23-
जाति मजहब की सियासी इस सदी में।
आदमी अब बंट गया है फीसदी में।
सूख चुकीं उज्ज्वल धवल सब पुण्य सलिला,
जबसे ये तब्दील नाले हैं नदी में।
कौन घाटा अब सहे इन नेकियों का,
कामना जब पूर्ण हो जाती बदी में।
देखिए कैसी कॉमेडी जिंदगी की,
हँस रही है दर्द सह कर त्रासदी में।
मुल्क ये बदहाल केवल इसलिए है,
फंस गया है सियासत की बेख़ुदी में।
24-
जाल बुनतीं जब भी शक की मकड़ियाँ।
बंद कर देती हैं दिल की खिड़कियाँ।
चाट जातीं अक्ल की घासें हरी,
स्वार्थ की अंधी निकम्मी बकरियाँ।
आग की बारिश कराकर,..साजिशें
दे रहीं कागज की सबको छतरियाँ।
सत्य इंगित अंगुलियाँ खतरे में हैं,
हर दिशा से मिल रही हैं धमकियाँ।
है भरा तालाब घड़ियालों से जब,
कैसे बच पाएंगी तिरती मछलियाँ।।
25-
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई।
सस्ती तुकबंदी है भाई।
सत्ता के औजार महज हम,
खतरे में है आखर ढाई।
अलग अलग बकरों से मंडी,
सजा रहा है आज कसाई।
मांड़ भात की चिंता में थक,
जनता लड़ती नित्य लड़ाई।
जाति धर्म में बाँट देश को,
नेता चाँपें रोज मलाई।
26-
घुटन की जिंदगी अच्छी नहीं होती।
उधारी रोशनी अच्छी नहीं होती।
जो भी बारूद की फसलें उगाती,
ऐसी मिट्टी अच्छी नहीं होती।
दिल के विश्वास पर खंजर चलाती,
विषैली खोपड़ी अच्छी नहीं होती।
जुर्म को देखकर चुपचाप रहना,
ऐसी ख़ामुशी अच्छी नहीं होती।
किसी को दर्द देकर मुस्कुराना,
ये पथरीली खुशी अच्छी नहीं होती।
सामने लूट ले कोई लुभाकर,
इतनी सादगी अच्छी नहीं होती।
कुचल दे आत्मा की सदाशयता,
कभी वो चाकरी अच्छी नहीं होती।
आँख की रोशनी अच्छी भले हो,
दिलों की तीरगी अच्छी नही होती।
27-
जो भी दरबार का हिस्सा नहीं होता।
कभी सरकार का हिस्सा नहीं होता।
जो भी सच बोलता है कुर्सियों से,
वो ऐतबार का हिस्सा नहीं होता।
सत्य खुले गगन सा मुक्त रहता,
बँधे विचार का हिस्सा नहीं होता।
कौन कहता है शख्स को ठगना,
आज बाजार का हिस्सा नहीं होता।
कोई कर्तव्य पालन के बिना यूँ,
किसी अधिकार का हिस्सा नहीं होता।
सियासत में बढ़ेगा किस तरह वो,
जो कुछ परिवार का हिस्सा नहीं होता।
28-
इस तरह भागता है क्या कोई।
मुझको लगता है,सिरफिरा कोई।
आसमाँ कब तलक रखे किसी को,
उड़ानों से अभी गिरा कोई।।
क्यों यूँ पिकनिक मनाने आ जाते,
दिल है ये दिल या जजीरा कोई।
उसकी आँखों की बेचैनी से लगे,
थका प्यासा है परिंदा कोई।
गहरे तकलीफ़ के बियावां में,
कहाँ दिखता है यूँ अपना कोई।
दर्द में भी जिएगा आदमी गर,
दे दे इक ख्वाब सुनहरा कोई।
29-
मुझपे लाठी हो या पत्थर असर नहीं करते।
मैं हूँ पानी का शज़र डर असर नहीं करते।
पहले सुनते थे बुरी बात तो सहमते थे,
अब तो अखबार के खबर असर नहीं करते।
आत्मा मर चुकी इंसान की हक़ीकत में,
दर्द के देह मे नश्तर असर नहीं करते।
लोग इतने विषैले हो चुके खुद दुनिया में,
उनपे अब साँप के जहर असर नहीं करते।
खुशी को खा गया इंसान खुद तनावों में,
अब किसी पर्व के अवसर असर नहीं करते।।
30-
कील सच की किसी को,सुहाती नहीं।
अपनी आदत है ऐसी कि जाती नहीं।
नेक हों गर इरादे किसी शख्स के,
मुश्किलें पास आकर भी आती नहीं।
है अहं तो मिटाओ,मिले अहमियत,
गाँठ में रह कली मुस्कुराती नहीं।
खोजता फिर रहा दिल ये देकर सदा,
क्यों मुहब्बत निगाहों में आती नहीं।
जबसे साँपों का डेरा शज़र पर हुआ,
डर से चिड़िया कोई चहचहाती नहीं।
31-
किसी की जिंदगी की,सब्ज दुनिया छीन लेता हैं।
घिनौना आदमी,गैरों की खुशियाँ छीन लेता हैं।
बहे कैसे यूँ कोई रेत पर,ले ख्वाब की धड़कन,
उसके हिस्से का कोई,बहता दरिया छीन लेता हैं।
यहाँ इंसान को यूँ मारना मुश्किल नहीं होता,
महज़ वो प्यार से,जीने का जरिया छीन लेता है।
ये फितरत है बाजारों की, जिसे देखा हकीकत में,
कि जैसे मुस्कुराकर,पैसा बनिया छीन लेता है।
जो सोचेगा नहीं,कैसे कदम रखना है जीवन में,
उससे ये वक्त भी,उसकी नजरिया छीन लेता है।
32-
सफर बेहतर बनाना चाहता हूँ।
दिल को सहचर बनाना चाहता हूँ।
मुहब्बत से तराशे पत्थरों से,
इक अदद घर बनाना चाहता हूँ।
नींव रिश्तों की हो सके पक्की,
खुद को पत्थर बनाना चाहता हूँ।
जिंदगी चल सके हवा लेकर,
फटे पंचर बनाना चाहता हूँ।
आदमी हूँ कमी तो होगी ही,
खुद को बेहतर बनाना चाहता हूँ।
एक मूरत कि जिसमें तू ही तू हो,
जिंदगी भर बनाना चाहता हूँ।
33-
स्वार्थ के गाँठ में बाँधा,....ज्यों रिश्ता टूट जाता है।
घड़ा हर झूठ का भी,..इक न इकदिन फूट जाता है।
अजब है न्याय लेने का,...तरीका कातिलों का अब,
कि कैसे कत्ल करके भी,...बाइज्जत छूट जाता है।
यही अनुभव रहा,.....जितना हमें दुश्मन नहीं लूटा,
उससे ज्यादा कहीं,....अपना ही कोई लूट जाता है।
भले इस्पात-सा हो दिल,...निरंतर चोट से इकदिन,
धीरे धीरे वो चुपके से,......मुक़म्मल टूट जाता है।
लगा विश्वास की परतें, ......मुहब्बत आईना बनता,
अधिक खुरचोगे दर्पण तो,....मुलम्मा छूट जाता है।
34-
बिना कश्ती ही हम,तैरकर साहिल तक गए।
इस तरह ले के मुहब्बत,उनके दिल तक गए।
जिसको समझा था, डूबने से बचाएगा हमें,
क्या पता था कि हम,अपने खुद क़ातिल तक गए।
जिसको पाने की ख्वाहिश,रख चले थे राहों में,
समझ पाए नहीं ये पाँव,किस मंजिल तक गए।
बुलावा दे के हमें, देखा अजनबी की तरह,
आज भी याद है मंजर,जिनकी महफ़िल तक गए।
उसी ने मार डाला,मेरे भरोसे को शायद,
सजाने में सदा हम,जिसके मुस्तक़बिल तक गए।
35-
इंसानियत को बेरहम,इंसान खा गए।
बेईमान जैसे नोच कर,ईमान खा गए।
जो कुछ बचा था देश में ,कमजोरियाँ पकड़,
नेता,दलाल,बाबू,दीवान खा गए।
सौंपी थी जिनको कुर्सी,संसद में पहुँच वे,
आधे से ज्यादा मुल्क,हिन्दुस्तान खा गए।
कानून क्या करेगा,उस मुल्क का जहाँ
घूसखोर न्यायाधीश,संविधान खा गए।
पता है पुरु ,राणा,शिवा के शौर्य को,
कुछ क्रूर आतताई,महान खा गए।
36-
आजकल दिल भी बाजारू हो गया।
प्यार जैसे पब का दारू हो गया।
जिस्म,पैसा,वासना की सड़क पर,
प्यार बस कपड़ा उतारू हो गया।
जब तलक है जेब में पैसा भरा,
मित्र का मतलब दुधारू हो गया।
जेब जब खाली हुई, उतरा नशा
प्यार ज्यों कुत्ता बीमारू हो गया।
सर उठाता था नहीं जो सामने,
एकबएक देखा जुझारू हो गया।
बाप जब तहजीब की बातें कही,
नंगा करने पर उतारू हो गया।
37-
देश को कुछ खा पचा के चल दिए।
असलियत अपनी छिपा के चल दिये।
जिनको भी मौका मिला,देखा यही,
देश को उल्लू बना के चल दिए।
जाति, मजहब हो गए शौचालयों-से,
जब लगी लोटा उठा के चल दिए।
रोशनी देने जो आए थे यहाँ,
बस्तियाँ पूरी जला के चल दिए।
दे भरोसा खूबसूरत जिंदगी का,
ख़्वाब पर गोली चला के चल दिए।
38-
पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।
अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।
एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।
जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।
किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।
39-
सच कभी बेघर नहीं होता।
आईनागर अगर नहीं होता।
बिना झुके निजाम के आगे,
आसान सफर नहीं होता।
असर ज़हन तक गर नहीं पहुँचे,
जहर भी जहर नहीं होता।
चलना होता है मंजिलों के लिए,
ख़्वाब देखना भर नहीं होता।
भीड़ चलती है जिंदगी में मगर,
हर शख्स हमसफर नहीं होता।
40-
ढोंगी,धूर्त,धतूरे नेता।
रखते दिल में छूरे नेता।
जाति,धर्म में बाँट देश को,
मजा ले रहे पूरे नेता।
राजनीति अब उगा रही है,
सड़े अधिकतर घूरे नेता।
संसद में,मानक सौ में से,
नब्बे दिखे,अधूरे नेता।
लोकतंत्र के मंदिर को ठग,
बन बैठे कंगूरे नेता।
41-
इरादे नेक हों तो, जिंदगी कुछ ख़ास रचती है |
हृदय में, मंजिलों की प्राप्ति का, विश्वास रचती है |
पहाड़ों ,पत्थरों को रौंदकर ,एक पाँव से यारों ,
शिखर पर पहुँच कर, इक अरुणिमा इतिहास रचती है |
जो अंधी जिंदगी पाकर ,उजाला दे रही सबको ,
वो पूनम रौशनी की ,चाँद का अहसास रचती है |
नफरत हर समय ,इंसान में पतझर उगाती है ,
मुहब्बत जिंदगी में ,जश्न का मधुमास रचती है |
खुदा ने सब्र देकर ,तृप्ति का उपहार दे डाला ,
नहीं तो कामना ये, बेवज़ह इक प्यास रचती है |
42-
हमारा बोलना उनको कभी अच्छा नहीं लगता ,
हमारी चुप्पियाँ उनको कभी सोने नहीं देतीं |
हमारी सुर्खियाँ सच की उन्हें जब घेर लेती हैं ,
जो उनकी झूठ औ साजिश सफल होने नहीं देती |
हमें वो जख्म देकर मुस्कुराते हैं ,मुझे मालूम ,
मगर ये जिद है मेरी कि मुझे रोने नहीं देती |
बुझाती प्यास अपनी जब लहू से मज़हबी खंजर ,
अमन का बीज गुलशन में कभी बोने नहीं देती |
हमेशा कुर्सियां इतिहास अपने पक्ष में लिखतीं ,
जो अपने जुर्म को जाहिर कभी होने नहीं देतीं |
43-
समय करवट बदलता किस कदर है |
खबर जो छापता था ,खुद खबर है |
सही इंसान की पहचान मुश्किल ,
भरोसे में भरा कितना जहर है |
बहर बस ढूढ़ते हैं वे ग़ज़ल में ,
दिलों के दर्द से जो बेखबर हैं |
जहाँ से हादसों का दौर आए ,
समझ लो आ गया कोई शहर है |
कोई लम्हात ना बेकार जाए ,
वक्त इस जिंदगी का मुख़्तसर है |
पता ना मर्ज क्या है दिल में उनके ,
अभी भी हर दवा यूँ बेअसर है |
सितमगर था जो मेरी जिंदगी का ,
वहीँ अब न्याय का भी ताजवर है |
44-
कभी-कभी एक तिनका भी, भरपूर सहारा देता है |
बच्चों की खुशियाँ, जैसे कि एक गुब्बारा देता है |
खोकर भी कुछ दे जाने की, रीति अनोखी अब भी है ,
डूबकर भी सूरज दुनिया को, चाँद ,सितारा देता है |
गीत मुहब्बत के ,इंसानी रिश्तों की कुछ भेंट हमें ,
आकर मेरे गाँव आज भी, एक बंजारा देता है |
जब भी घोर अँधेरा, अपनी मनमानी करने लगता ,
एक दीप हीं अँधियारे को, चोट करारा देता है |
तूफानों ने जब भी घेरा, कश्ती को मझधारों में ,
संकल्पों का मांझी, उसको बचा किनारा देता है |
45-
मेरी तन्हाईयों में याद बनकर, तू हीं क्यों आता |
ख्वाबों में मेरे एक चाँद बनकर, तू हीं क्यों आता |
बता दे हे अलौकिक चेतना, मेरे ह्रदय में तू ,
सुरीली बाँसुरी अनुनाद बनकर, तू हीं क्यों आता |
समझ जब भी थकी मेरी, बताने को मुझे फिर भी ,
सहज अहसास- सा अनुवाद बनकर ,तू हीं क्यों आता |
टूटे रिश्ते हैं जब औ' शब्द सारे, मौन बैठे हैं ,
मेरे शब्दों में फिर संवाद बनकर, तू हीं क्यों आता |
मुहब्बत की रूहानी औ रूमानी, रूप लेकर तू ,
शीरी के गाँव में फरहाद बनकर, तू हीं क्यों आता |
सृजन की क्यारियाँ अंतस में, जब भी शुष्क हो जातीं ,
उगाने को नया कुछ, खाद बनकर ,तू हीं क्यों आता |
46-
सपने अक्सर टूट जाते हैं, सपनों से डर लगता है |
दुनिया के रिश्तों में अब तो, अपनों से डर लगता है |
गले लगाया था जिनको, हार समझकर जीवन में ,
बने गले की फाँस वहीं अब, गहनों से डर लगता है |
भूख,गरीबी के आँसू अब, सन्नाटों के मरुथल हैं ,
सूखती ताल-तलैया जैसे, नयनों से डर लगता है |
साँप नेवले लहूलुहान हैं ,लोग तालियाँ पीट रहे ,
देख मदारी की करतूतें ,मजमों से डर लगता है |
उंगुली पकड़ सिखाया हमने, बचपन से चलना जिसको ,
आज उसी की चाल बदलते क़दमों से डर लगता है |
47-
बनाना मत कभी भी,ऐ खुदा!मगरूर मुझको।
तू रखना जिंदगी भर,आदमी भरपूर मुझको।
अगर सच बोलने से,मैं अकेला पड़ गया तो,
अकेला ही चलूँगा,शर्त ये मंजूर मुझको।
समंदर की अतल गहराइयों का हूँ चहेता,
नहीं होना हिमालय-सा,कभी मशहूर मुझको।
मैं दर्पण हूँ दिखाता हूँ यूँ चेहरों की हकीक़त,
मेरी फ़ितरत है ये,रख पास या रख दूर मुझको।
झुकी है कब फ़कीरी वक्त के आगे बता दो,
डराने के लिए तू,मूर्ख-सा मत घूर मुझको।
48-
किसी गुनाह में,कभी शामिल नहीं लगता।
कत्ल करके भी वो,क़ातिल नहीं लगता।
जबसे दरबार में,नजरें मिलाकर बात की है,
होके क़ाबिल भी मैं,क़ाबिल नहीं लगता।
वक्त की ठोकरों ने,भर दिया साहस इतना,
जीना दर्द में भी,अब मुश्किल नहीं लगता।
खुशी थी,चाह थी, मित्रों से कभी मिलने की,
उनकी महफ़िल में,अब ये दिल नहीं लगता।
कभी सुलझेंगे मुद्दे क्या,तअस्सुब से वतन के,
ऐसा फिलहाल तो,मुस्तकबिल नहीं लगता।
49-
आग,मिट्टी,हवा,पानी,जिंदगी को चाहिए।
खुबसूरत इक कहानी,जिंदगी को चाहिए।
हो रवानी,जोश औ जिंदादिली जिसमें सदा,
खुशबुओं से तर जवानी,जिंदगी को चाहिए।
दोस्त बचपन के न जाने,खो गए हैं सब कहाँ,
याद वो सारी पुरानी,जिंदगी को चाहिए ।
भेंट कर अहसास के कुछ फूल ,मन के बाग़ से,
प्यार की कोई निशानी,जिंदगी को चाहिए।
भूल ना जाएँ परिन्दें ,राह अपनी डाल के,
डोर रिश्तों की सुहानी,जिंदगी को चाहिए।
50-
कवि का मन चंचल होता है।
भावों का अंचल होता है।
अधरों पर मुस्कान दिखे,पर,
आँखों में कुछ जल होता है।
नदी,समंदर नप जाते हैं,
कवि का हृदय अतल होता है।
सत्य,शिव,सुंदर चिंतन का,
अद्भुत इक जंगल होता है।
कवि वहीं, दुनिया के दुःख से,
भीतर से विह्वल होता है।
जिसकी आहों से,दुनिया में,
दिल का तंतु विकल होता है।
प्रेम पगे सुरभित भावों से,
शब्द शब्द निर्मल होता है।
उक्ति वक्र वैचित्र्य कहे पर,
कवि का हृदय सरल होता है।
कविता प्रतिदिन पढ़ो हृदय से,
अवसादों का हल होता है।
51-
बौने चढ़ कुर्सियों पर,खड़े हो गए।
राजधानी में जाकर,बड़े हो गए।
काव्य की साधना के,मुखौटे पहन,
बेंचकर रद्दियाँ कुछ,हरे हो गए।
फर्क पड़ता नहीं,उनको कुछ भी कहो,
देखिए कितने चिकने,घड़े हो गए।
नर्म लहज़े में जब,सच बयां कर दिया,
उनके तेवर अचानक,कड़े हो गए।
हमने इज्जत जरा,क्या दी बेशर्म को,
उसके अंदाज ज्यों,सरचढ़े हो गए।
52-
ये इक उपहार है,मेरा जमाने के लिए।
मैं रोता हूँ महज,उनको हँसाने के लिए।
वेदना है जरूरी,जिंदगी की राहों में,
आदमी को मुक़म्मल,आदमी बनाने के लिए।
आग की,आँधियों की,क्या जरूरत बस्ती में,
इक चराग़ काफ़ी है,घर जलाने के लिए।
ऐसे कारण है बहुत,पास ठहरने के लिए,
सौ बहाने हैं मगर,छोड़कर जाने के लिए।
बैठे मुझमें हजारों लोग,चाहते मुझसे,
बनूँ आवाज उनकी,सबको सुनाने के लिए।
53-
दिन शर्मिला,रात बेहया।
कैसे बोलूँ,बात बेहया।
विश्वासों के नर्म पीठ पर,
होती कैसी,घात बेहया।
स्वार्थ सिद्धि में हक़ छीने जो,
होती ऐसी,जात बेहया।
दीवारों को तोड़ बढ़े जो,
कैसे कह दूँ,लात बेहया।
जो पेड़ों को नंगा कर दे,
खुद की दुश्मन,पात बेहया।
सच के आगे खा जाती है,
देखी अक्सर,मात बेहया।
54-
याद की परछाइयों में,जी रहा है।
आदमी तनहाइयों में,जी रहा है।
आँसुओं के हर्फ़ उसके,पढ़ के जाना,
दर्द की गहराइयों में,जी रहा है।
मुल्क वर्षों बाद भी,क्यूँ मुफलिसी में,
भूख की अंगडाइयों में,जी रहा है।
किसकी साजिश है कि चूल्हे से छिटक कर,
आग अब दंगाइयों में,जी रहा है।
जबसे लकवाग्रस्त हैं,नेकी,मुहब्बत,
आदमी रुसवाइयों में,जी रहा है।
समझता था मर गया,जयचंद कब का,
देखता हूँ भाइयों में,जी रहा है।
55-
हो कोई रास्ता बेहतर,तो निकालो यारों।
छिपा दिल में कोई निर्झर,तो निकालो यारों।
ये भी कोई जिंदगी है,गमजदा होके जीना,
कभी हँसने का भी अवसर,तो निकालो यारों।
मुख़्तसर जिंदगी में,हो सको हल्का कुछ तो,
शिराओं में घुले कुछ जहर,तो निकालो यारों।
नदी हो या समंदर,खेत तक आते नहीं हैं,
अपनी कोशिश से इक नहर,तो निकालो यारों।
सहमा सहमा हुआ मंजर है,सारी बस्ती का,
जाके हर शख्स का कुछ डर,तो निकालो यारों।
गाँव मिट्टी के जबसे,पत्थरों में ढलने लगे,
उसमें खोया हमारा घर,तो निकालो यारों।
56-
अब हो गया है आदमी, दूकान की तरह ।
बिकता है जहाँ प्यार भी, सामान की तरह ।
बेईमानियों का व्याकरण ,अब आचरण हुआ ,
ओढ़ा है जिसे आदमी, ईमान की तरह ।
पहचानना भी मुश्किल, मुखौटों के दौर में ,
दिखता है भेड़िया भी, इंसान की तरह ।
जो देश अपनी बेटियों को, लाश बना दे,
वह देश नहीं देश है, हैवान की तरह ।
खादी औ खाकियों से, विश्वास उठ चुका ,
लगती हैं राष्ट्र भाल पे, अपमान की तरह ।
है अजनबी सा जी रहा ,दीवार ओढ़कर ,
अपने हीं घर में आदमी मेहमान की तरह ।
57-
जबसे झूठे कथ्य, मानक हो गए |
सत्य के सिद्धांत, भ्रामक हो गए |
कौड़ियों के भाव ,जो कल तक बिके,
आज लाखों के, अचानक हो गए |
है डुबी लिप्सा में, जबसे लेखनी ,
हाशिये पर सूर ,नानक हो गए |
है कमी परिवेश, या माँ-बाप की ,
किस कदर बेटे ,भयानक हो गए |
दामिनी का दौर, निशदिन देखकर ,
दर्द से गुंफित, कथानक हो गए |
58-
शाम कभी भोर जिंदगी |
धड़कन की शोर जिंदगी |
वक्त की पतंग साधती ,
सांसों की डोर जिंदगी |
पाकर हर भाव की छुअन,
हो गई विभोर जिंदगी |
चाहतों का चाँद देखकर ,
बन गई चकोर जिंदगी |
दर्द का गुबार बन ,बही ,
आँखों की लोर जिंदगी |
लगती आसान है ,मगर ,
मौत से कठोर जिंदगी |
59-
फूल का औ खार का,अंतर समझ।
वासना औ प्यार का,अंतर समझ।
ख़ुशी है या दर्द,आँखों की नमी में,
अश्रु के इजहार का,अंतर समझ।
कौन लिखता है,सही इतिहास सोंचो,
कलम से तलवार का,अंतर समझ।
लक्ष्य तक पहुँचा पथिक,किसके सहारे,
नाव औ पतवार का,अंतर समझ।
जीतकर दुनिया,जो खुद से हार जाते,
जंग में हथियार का ,अंतर समझ।
60-
गा झूठे यशगान ,वंदेमातरम।
किया बहुत अपमान ,वंदेमातरम।
तेरे चरणों में कैसे अर्पित कर दूँ,
मन अपना बेईमान ,वंदेमातरम।
मातृशक्ति अपमानित सदियों से देखा,
फिर भी देश महान, वंदेमातरम।
राष्ट्र-अस्मिता की सीता कैसे आये,
कौन बने हनुमान ,वंदेमातरम।
अब भी काली ,दुर्गा की इस धरती पर ,
जगह-जगह शैतान ,वंदेमातरम।
तुझे देह बस समझ ,आज तक अपनाया,
किया नित्य अपमान, वंदेमातरम।
बाजारों,दरबारों की सौगात बनी,
सजी हुई दूकान,वंदेमातरम।
अहंकार पुरुषार्थ ,सदा पाले बैठा,
रहा कुचलता मान,वंदेमातरम।
सब कुछ तू ,दुनिया की नज़रों में लेकिन,
नहीं रही इंसान ,वंदेमातरम।
मुर्गे की बोटी महँगी ,तू सस्ती है,
यहीं आज पहचान ,वंदेमातरम।
क्या मिलता सुख,अमृत दुनिया को देकर ,
खुद करती विषपान,वंदेमातरम।
आज कोंख भी बना दिया तेरी खातिर,
हमने कब्रिस्तान ,वंदेमातरम।।
61-
पागल है ! पतझड़ में मधुबन ढूढ़ रहा है!
मुर्दो की बस्ती में जीवन ढूढ़ रहा है!
लिपटे हैं दामन में जिनके नाग हजारों,
नादानी में बाहर चंदन ढूढ़ रहा है!
सूरज की बस्ती में जुगनू,क्या कारण है?
अँधियारे का अंधा दामन ढूढ़ रहा है।
अपनी खुशियों की खातिर निशदिन हत्यारा,
बस्ती बस्ती सच का क्रंदन ढूढ़ रहा है।
ये भी सच है नापाकों के घर में घुसकर,
दहशतगर्दों को अभिनन्दन ढूढ़ रहा है।
62-
नहीं एक भी पल देता है।
वक्त छोड़कर चल देता है।
सोचो,डूबते के हिस्से में,
तिनका कितना बल देता है।
घृणा-रज्जु से बँधा हुआ मन,
केवल कचरा ,मल देता है।
हाँफ रही धरती को पानी,
आवारा बादल देता है।
करनी का फल तय है प्यारे,
आज नहीं तो कल देता है।
सदा सब्र की झुकी डाल पर,
ईश्वर मीठा फल देता है।
इंसानों में छिपा भेड़िया,
मौका पाकर छल देता है।
वक्त निरुत्तर कर देता,पर,
थककर खुद ही हल देता है।
63-
शब्द जब भी आपसी संवाद, करते हैं।
मौन रहकर भाव अनहद नाद, करते हैं।
जब भरोसा दो दिलों को,पास लाता है,
जिंदगी में प्यार उसके,बाद करते हैं।
अनकहे कैसे कहें ,जब समझ आता नहीं,
फिर नयन से नयन का,अनुवाद करते हैं।
दिल के सोए तार पे,उंगली फिरा कर देखिए,
ये भी वीणा की तरह, अनुनाद करते हैं।
दर्द की घाटी में उगते,आँसुओं को पढ़ जरा,
मुफलिसी में किस तरह,फरियाद करते हैं।
64-
बहुरुपिये कुछ बहा रहे घड़ियाली आँसू।
भीतर भीतर पीट रहे पर ताली आँसू।
जहाँ शहादत से सबूत माँगा जाता है,
बन जाते हैं राष्ट्र भाल पर गाली आँसू।
सत्ता के चक्कर में इतने उतरे नीचे,
जाति-धर्म की करते आज दलाली आँसू।
स्वार्थसिद्धि के बाजारों में कभी कभी तो,
असली पर भारी पड़ते हैं जाली आँसू।
कुंठाओं की घृणा गर्भ में पलते देखा,
जहर उगलकर करते महज जुगाली आँसू।
उनको है विश्वास,जरा रोने धोने से,
स्वार्थपूर्ति को देते हैं हरियाली आँसू।
आँसू पर ऐतबार बताओ कौन करेगा,
रह जाएंगे सदा बिलखते खाली आँसू।।😢
65-
राष्ट्रहित मे बोले कक्का।
छोड़ो किरकट,चौका, छक्का।
कुत्तों को ऐसे मारो कि
रह जाएं बस हक्का बक्का।
दुनिया में नंगा कर उनको,
कूटनीति से मारो धक्का।
हुक्का-पानी बंद करो अब,
प्यासा मर जाएगा पक्का।
दहशत की अंधी गाड़ी पर,
बम बरसा कर फाड़ो चक्का।।
डर इतना बैठा दो दिल में,
जम जाए खूँ बनकर थक्का।।
66-
बेंत अचानक फल गया।
खोटा सिक्का चल गया।
आग लगाकर खुद घर में,
कबिरा जिंदा जल गया।
धीरे धीरे झूठ मुल्क में,
सच को जैसे निगल गया।
खंजर-सा मौसम अद्भुत,
आत्मघात हित मचल गया।
भेड़ समझते थे जिसको ,
छुपा भेड़िया निकल गया।
67-
सच चुभता दर्पण होता है।
तप्त रेत का कण होता है।
अहंकार जब मन में छाए,
जीवन बस रावण होता है।
आँखों से संवाद प्रणय का,
निश्चित अद्भुत क्षण होता है।
सतत् प्रेम की अग्निशिखा में,
शीतल मन तर्पण होता है।
जड़,चेतन की पृष्ठभूमि पर,
जीवन इक विवरण होता है।
आज नहीं, सदियों का सच है,
भला,बुरा में रण होता है।
अँधियारा बढ़ने का कारण,
शायद संरक्षण होता है।
उदधि राम हित जब बाधा हो,
फिर तो वध का प्रण होता है।
पत्थर नहीं पुष्प घात से,
हृदय भूमि पर व्रण होता है।
68-
पिंजरे से इक परिंदे की,उड़ान की बात।
झूठी लगती है दुनिया,जहान की बात।
लाख कोशिश के बाद ,भी समझता नहीं,
चुग्गे का गुलाम,आसमान की बात।
दर्द अपना जो ,बयां नहीं करता,
कौन समझेगा ,उस बेजुबान की बात।
आदि इत्यादि मरे,वतन परस्ती में,
कौन जानेगा?,छोड़कर महान की बात।
बँट चुका मुल्क,ये सियासत में,
महज़ लेकर हिन्दू ,मुसलमान की बात।
अब तो सम्मान भी ,ज़रा सोंच कर करना,
कहीं कर न बैठे,कोई अपमान की बात।
मुल्क को तोड़ना,आसान है 'मनोज'
दिलों को जोड़ना ,है इम्तेहान की बात।
69-
जब भी मिलना,खुलकर मिलना।
अपनों से खुद, चलकर मिलना।
कालिनेमी बैठे राहों में,
उनसे जरा, संभलकर मिलना।
रिश्तों के इस तमस काल में,
सदा दीप-सा, जलकर मिलना।
मिलना स्थायी होता है,
संघर्षों में ,पलकर मिलना।
कितना सुन्दर! ओसकणों का,
सुबह फूल पर, ढलकर मिलना।
कौन ख़ुशी को नाप सका है,
बिछड़े दिल से, मिलकर मिलना।
70-
आज देश की, मूल सियासत।
नेता गद गद,जनता आहत।
चोरी कर फिर ,सीना जोरी
कैसी अद्भुत, चोर बगावत।
बड़ा वहीं है,नाम है जिनके,
लूट,घोटाला,जेल,अदालत।
लोकतंत्र में ,सत्ता,कुर्सी,
परिवारों की, बनी विरासत।
मुफ्त मुफ्त, वाले वादों से,
बिगड़ गई है ,कितनी आदत।
जातिवाद से ,देश हमारा,
दीखता है ,कमजोर निहायत।
71-
जीवन के राहों के असली प्यार पिताजी |
नमन तुम्हारे चरणों में सौ बार पिताजी ||
कर्त्तव्यों की गोद ,पीठ ,कन्धों पर अपने ,
मुझे बिठा दिखलाते थे संसार पिताजी |
भूख ,गरीबी ,लाचारी की कड़ी धूप में ,
तुम छाया के बरगद थे छतनार पिताजी |
चोरी करते थे मगर तुम चोर नहीं थे ,
मेरी खातिर गए जेल कई बार पिताजी |
अहसासों की ऊँगली से गढ़ते थे जीवन ,
जीवन की मिटटी के थे कुम्हार पिताजी |
इतने नाज़ुक मधुर ,सरस कि लगते जैसे ,
पुष्प दलों पे ओस बूँद सुकुमार पिताजी |
माँ तो गंगा -सी पावन होती है यारों ,
मगर हिमालय से ऊँचे पहाड़ पिताजी |
मुझे हवाओं में खुशबू बन मिल जाते हैं ,
जाफरान-से अद्भुत खुश्बूदार पिताजी |
तुमको पढ़ना, रामचरित मानस पढ़ना है,
देहाती ,बकलोल, सहज, गँवार पिताजी |
जीवन -सागर के तट,तेरे इन्तजार में ,
बैठा हूँ इस पार ,गए उस पार पिताजी |
परिचय- डॉ मनोज कुमार सिंह
जन्मतिथि -20.02. 67
जन्म स्थान-आदमपुर [सिवान], बिहार |
शिक्षा - एम० ए०[ हिंदी ],बी० एड०,पी-एच ० डी० |
प्रकाशन - विभिन्न राष्ट्रीय -अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित |
'नवें दशक की समकालीन हिंदी कविता :युगबोध और शिल्प ' और
'छायावादी कवियों की प्रगतिशील चेतना ' विषय पर शोधग्रंथ प्रकाशनाधीन |
विद्यालय पत्रिका 'प्रज्ञा ' का संपादन |
सम्मान/पुरस्कार 1- नवोदय विद्यालय समिति
[मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार की स्वायत इकाई ] द्वारा लगातार चार बार गुरुश्रेष्ठ सम्मान /पुरस्कार से सम्मानित
2-शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012
3 - स्व. प्रयाग देवी प्रेम सिंह स्मृति साहित्य सम्मान 2014
4-सुदीर्घ हिंदी सेवा और सांस्कृतिक अवदान हेतु प्रशस्ति-पत्र 2015
5-मानव संसाधन विकास मंत्रालय ,भारत सरकार की शिक्षा मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी द्वारा प्रशस्ति पत्र।
सम्प्रति- स्नातकोत्तर शिक्षक ,[हिंदी] के पद पर कार्यरत |
संपर्क - जवाहर नवोदय विद्यालय,जंगल अगही,पीपीगंज,गोरखपुर
पिन कोड-273165
मोबाइल - 09456256597
ईमेल पता-
drmks1967@gmail.com
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