बिथा कथा मजदूर की
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काम धंधे हो गए
चौपट अचानक
जिंदगी मजबूरियों से
घिर चुकी है।
चल पड़े मजदूर
पैदल ही घरों को,
भूख की इस भीड़ से
सड़कें पटी हैं।
रास्ते में खड़ा है
दानव कोरोना।
काम उसका
जिंदगी में मौत बोना।
मानना उनका कि
यूँ मरने से पहले
धीरे धीरे गाँव तक
जाना सही है।
दूरिया घर की बहुत हैं
पाँव छोटे
भुखमरी में साथ लेकर
बाल बच्चे,
चल रहे हैं,
रुक रहे हैं
चल रहे हैं
पेट में मजदूरनी के
पल रहे कुछ
दो महीने बाद
आयेंगे जहां में।
है नहीं दिल्ली किसी की
जानता हूँ
है सयानी,स्वार्थ की
प्रतिमूर्ति है बस।
काम जब तक है
तुम्हें आहार देगी।
नहीं तो भूखों
तुम्हें ये मार देगी।
अब समझ आया
असल में गाँव अपना।
दर्द-दुख में दिया
हमको छाँव अपना।
इसलिए मैं चल रहा हूँ भूख में भी
गाँव है बेचैन मेरा मेरी खातिर।
अब लगा कि दिल्ली कितनी
क्रूर शातिर।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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