Friday, April 10, 2020
दोहे मनोज के-(भाग-1)
दोहे मनोज के...भाग-(1)
सत्य तेल के बुंद सा,कभी भी छिप न पाय।
कितना भी जल डालिए, ऊपर ही छितराय।।
उसे समझ आता नहीं, त्याग,समर्पण,प्यार।
पैसा ही जिनका खुदा,सुविधा ही संसार।।
कभी उन्हें न दीजिए,सद् शिक्षा का दान।
जिनका घुटनों में बसा,समझ-बूझ औ ज्ञान।।
बिन सबूत ये न्याय भी,बन जाता है रोग।
जब विवेक औ ज्ञान का,होता नहीं प्रयोग।।
प्रतिभा ईश्वर की कृपा,नाम जगत की देन।
पर घमंड अपनी उपज,छीनै मन का चैन।
अहंकार से भिन्न है,स्वाभिमान का रूप।
एक घृणा की उत्स है,एक प्रेम की धूप।।
जो विचार से शून्य है,होता वृषभ समान।
नहीं ठिकाना कब कहाँ,कर देगा अपमान।।
चोरी, झूठ,फरेब के,दिखते बहुत वकील।
जिनके कारण से हुआ,हरदम देश ज़लील।।
पी जाएँ मल मूत्र भी,ज्यों प्रसाद का भोग।
ऐसा है इस देश में, जातिवाद का रोग।।
गंगा को करते रहे,अब तक जो बीमार।
तीन साल में चाहते,अद्भुत स्वास्थ्य सुधार।।
दिखने में सब एक-से,भिन्न मगर व्यवहार।
बिना मिले गुण,कर्म के,मिलते नहीं विचार।।
पश्चिम की अंधी नकल,गई हृदय में बैठ।
संतो के इस देश में, सांता की घुसपैठ।।
नित्य नयन जो देखते,सारा ये संसार।
क्यों देख पाते नहीं, खुद को भी इक बार।।
दुराचार में कम नहीं,मातु पिता का हाथ।
बेटी को जो भेजते,बाबाओं के साथ।।
भ्रष्ट कुर्सियाँ एक हैं,मातहतों में फूट।
इसीलिए हर एक को,नित्य रहे ये लूट।।
मुफ्त में सब कुछ मिले,अंडा,छोला,खीर।
भर चुनाव चलता यहाँ,मछली,मीट,पनीर।।
जब शठता छोड़े नहीं, हठी, ढीठ,शठ,नीच।
उसे व्यंजना की जगह,अभिधाओं से फीच।।
स्वार्थपूर्ति में खेलते,लोग यहाँ हर दाव।
धीरे धीरे मर रहा,जीवन में सद्भाव।।
बेटा,बेटी एक से,पर अंतर है एक।
बेटों से ज़्यादा सदा,मिलीं बेटियाँ नेक।।
समाचार बस पूछता,बेटा कभी कभार।
दौड़ीं आती बेटियाँ,माँ जब पड़े बिमार।।
बेटी है ससुराल में,बेटा गया विदेश।
माँ बाप घर बैठकर,काटे जीवन शेष।।
उस बूढ़े माँ बाप का,सबसे खस्ता हाल।
जिसका बेटा जा बसा,छोड़ उन्हें ससुराल।।
आत्मकेंद्रित हो गया,जबसे ये इंसान।
मरी पड़ी संवेदना,कुंठित है ईमान।।
स्वार्थ,अहं के फेर में,खो देता सर्वस्व।
कैसा ये इंसान है,चाहे बस वर्चस्व।।
साहब का दिखने लगा,बदला हुआ स्वभाव।
जाति मूल का आचरण,कुत्सित कुंठित भाव।।
कितना भी अच्छा करूँ,देते नहीं ख़िताब।
मगर ज़रा सी चूक पर,करते रपट खराब।।
गलती पर तो ठीक है,जुर्माना औ दण्ड।
मगर सही भी कार्य पर,ताने हैं कोदंड।।
जिनके मन अहमन्यता और आचरण हीन।
पद पाकर वे समझते,खुद को बड़े प्रवीन।
कितना कुंठित दिख रहा,कुर्सी का आचार।
सही कार्य को भी करे,गलत सिद्ध हर बार।।
लाइक के संग टिप्पणी, कुछ तो करें हुजूर।
अर्थवान रचना बने,सन्नाटे हों दूर।।
लाभान्वित हम हो सकें,खुद में करें सुधार।
कुछ तो मुझको दीजिये,अपना शुभ्र विचार।।
यहाँ हजारों मित्र हैं,पर कुछ ही साकार।
देते हैं अनमोल वे,निशदिन ललित विचार।।
दोहा,मुक्तक औ ग़ज़ल,का लेकर हथियार।
कविता मेरी नित करे,विडम्बना पर वार।।
काव्य कुसुम सुरभित रहे,दे नव नित्य सुवास।
जीवन को लय छंद में,बाँधू यहीं प्रयास।।
गुजराती दुर्गंध ले,पूणे किया प्रवेश।
जातिवाद का कोढ़िया,मेवाणी जिग्नेश।
खालिद औ जिग्नेश हैं,जहरीले ज्यों नाग।
लगा दिए जाकर पुणे,जातिवाद की आग।।
देश तोड़ने में लगे,कुंठित खेमेबाज।
जातिवाद के जहर का,हो अब शीघ्र इलाज।।
देख सामने जुर्म भी ,रहते हैं जो मौन।
अपराधी हैं या बता,आखिर हैं ये कौन?
हम चोरों के बीच में,रहते हैं दिनरात।
चोर,चोर को कह सकें,नहीं पड़ी औकात।।
वो सुविधा सुख व्यर्थ है,और महज इक भ्रांति।
जो जीवन में छीन ले,सहज हृदय की शांति।।
पैसा ऐसा है अगर,तोड़े जो घर बार।
पैसा जाए भाड़ में,बचा रहे परिवार।।
ब्रिटिशों से मिल तोड़ दी,अपनों का ही नीड़।
कितनी बड़ी गुलाम थी,जयचंदों की भीड़।।
गद्दारों का आजतक,छिपा रहा इतिहास।
बीच सड़क पर हो गया,जिनका पर्दाफाश।।
वामी कामी लिख गए,उलट पुलट इतिहास।
आज देश ये भोगता,नित्य दर्द संत्रास।।
नहीं आज जो मानते, खुद को मनु-संतान।
वहीं बताएँ कौन हैं,पूछे हिंदुस्तान।।
छोड़ प्रेम का वाङ्मय,रख मन में बस गाँठ।
पढ़ा रहे इतिहास के,नफरत वाले पाठ।।
कर्तव्यों को भुल गए,याद रहे अधिकार।
बिना कर्म,श्रम चाहते,हम सुविधा संसार।।
वोट प्रपंची देश को,सदा किये गुमराह।
प्रतिभाओं का क़त्ल कर,ढूढ़ें उन्नति राह।।
आग लगाने से हुआ,शत्रु का मोहभंग।
देखा कि हर आग में,लहरे भगवा रंग।।
सुन 'मनोज' होता नहीं,इतना बड़ा नवाब।
गर अपने देते नहीं,सुरभित प्रेम गुलाब।।
नफ़रत पाले मर गया,भरी जवानी ख़्वाब।
इक बुड्ढा जीता रहा,पाकर प्रेम गुलाब।।
सीखा सदा गुलाब से,अद्भुत एक उसूल।
खुद रख लेता शूल है, दूजों को दे फूल।।
जाति एक यथार्थ है,जातिवाद है व्यर्थ।
दुनिया इस के सत्य को,समझे वहीं समर्थ।।
सुसिद्धिर्भवति कर्मजा,का करिए नित पाठ।
हट जाएंगे देखना,स्वयं राह के काठ।।
कुंठाओं की ठोक कर,दिल में अपने कील।
मानव करता आ रहा,खुद को सदा ज़लील।।
जब ईश्वर ने दे दिया,तुमको पंख,आकाश।
फिर पिंजरे में कैद क्यों,बने पड़े हो दास?
इसीलिए कुछ जाति को,बना लिए हथियार।
मुफ्तमाल देती रहे,सदा उन्हें सरकार।।
पल्लवग्राही ज्ञान से,भरे पड़े विद्वान।
आता जाता कुछ नहीं,चाहे बस सम्मान।।
गर्दभ वाला ज्ञान ले,औ कूकर अनुभूति।
कुछ करते रहते सदा,शूकर-सी करतूति।।
लीक पकड़ सब चल रहे,वही पुरानी चाल।
नव्य निरामय सोच का,पड़ न जाए अकाल।।
गर्वीले इतिहास पर,भले लग रही चोट।
भंसाली को चाहिए,पद्मावत से नोट।।
व्यापारिक हर सोच का,होता यही चरित्र।
पैसा ही माँ बाप है,पैसा ही है मित्र।।
टीवी एंकर में दिखे,कितना भरा गुबार।
समाचार पढ़ता सदा,चिल्लाकर हर बार।।
समाचार बनते सदा,लेकर षष्ठ ककार।
क्या,कब,कहाँ,कौन और,क्यों,कैसे आधार।।
समाचार है सूचना,बिन कोई लाग लपेट।
मिर्च मसाला डालकर,करते मटियामेट।।
नहीं रही निष्पक्षता,दिखे महज़ हथियार।
विचारधारा के बने,ये चैनल सरदार।।
लोकतंत्र में हम जिसे,समझे चौथा स्तंभ।
बाँट रहा वो देश में,जाति,मज़हबी दंभ।।
मार डालते सत्य का,रूप हमेशा शिष्ट।
समाचार में डालकर,संदेहों का ट्विस्ट।।
पत्रकारिता बन चुकी,बाजारु अब माल।
पैसे खातिर कर रही,निशदिन सत्य हलाल।।
संसद में जब तब दिखे,चैनल में नित यार।
कुत्तों-सी भौं भौं लिए,शब्दों की बौछार।
सूचनाओं में सनसनी,धोखे का व्यापार।
बीच हमारे बाँटकर,करते अत्याचार।।
सत्य सूचना की जगह,विज्ञापन अश्लील।
जिसे देख दर्शक सदा,होते यहाँ जलील।।
बहुत दोगला मीडिया,दिखे आचरण हीन।
चंदन पर करता नहीं,अब काली स्क्रीन।।
चौथा खंभा हो चुका,सड़ियल आज अँचार।
जिसका नहीं समाज से,सरोकार या प्यार।।
सौ में नब्बे सूचना,राजनीति से आज।
देता है ये मीडिया,ले घटिया अंदाज।।
जब नक्सली चरित्र पर,किया गया इक शोध।
पूँजीवादी बन चुके,कर पूँजी प्रतिरोध।।
स्वागत है तब वाल पर,सही कीजिए तर्क।
नहीं व्यक्तिगत कीजिए,कोई कभी कुतर्क।।
नित्य करूँगा स्वार्थ पर, चोट सदा भरपूर।
तुझको गर लगता बुरा,रहो यहाँ से दूर।।
जिसके पास न शब्द हैं,उचित न कोई तर्क।
कुंठाओं से ग्रस्त हो,करते सदा कुतर्क।।
भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
दोहे मेरे बोलते ,खरी खरी सी बात।।
नहीं समझता हूँ सुनो,कभी किसी को नीच।
और मित्र पर फेकता,नहीं कभी भी कीच।।
भाषण देते फिर रहे,जाति मिटे सर्वत्र।
मगर इक तरफ ले रहे,जाति प्रमाणक पत्र।।
जाति प्रमाणक पत्र में,लगा तू पहले आग।
फिर अलापना बाद में,जाति हटाओ राग।।
महज़ वोट के नाम पर,आरक्षण उपहार।
लाभ उठाने के लिए,जाति बना हथियार।।
तुम्हीं बता अंबेडकर,क्यों नहि बने सवर्ण?
ब्राह्मणी से शादी कर,क्यों नहि बदले वर्ण?
शादी ब्राह्मण से किया,दलित मीरा कुमार।
मगर अभी भी हैं दलित,ये कैसा आचार?
माता हिन्दू धर्म की,पिता हैं मुसलमान।
फिर भी हिन्दू क्यों नहीं,अभिनेता सलमान?
धर्म बदलने के लिए,रहते हो तैयार।
जाति बदल कर देख लो,मिल जाए उपचार।।
जब पूजा लगता तुझे,महज अंधविश्वास।
मंदिर में क्यों चाहिए,दलित पुजारी खास?
दलित सियासी शब्द बस,कुर्सी का हथियार।
शोषित,वंचित सत्य है,जिनका हो उपचार।।
आज़ादी के बाद से,यहीं दिखा परिवेश।
गदहों के संग दौड़कर,घोड़ा हारे रेस।।
भेदभाव न हो कभी,रखिये सदा प्रयास।
हर समाज को चाहिए,उत्तम उचित विकास।।
देश तभी आगे बढ़े,यथा योग्य दो काम।
नहीं तो आएगा सदा,घातक ही परिणाम।।
तभी बढ़ेगा मानिए,आगे हिन्दुस्तान।
भोजन,कपड़ा,छत मिले,औ' सबको सम्मान।।
धर्म,जाति समभाव हो,जीवन हो सापेक्ष।
पंथ,धर्मनिरपेक्ष सा,बनो जाति निरपेक्ष।।
कर कुतर्क यूँ मत करो,रिश्ते कभी खराब।
नहीं जरूरी क्रोध में,दो तुम शीघ्र जवाब।।
पैसे में दम बहुत है,फिर भी है बेकार।
आज जोड़ने की जगह,तोड़ रहा परिवार।।
वक्त बनाया है मुझे,गूंगा बहरा, मौन।
ताड़ रहा हूँ जिंदगी,आखिर हूँ मैं कौन।।
घरकच में जबसे भुला,नींद,भूख और प्यास।
नहीं ले सका ठीक से, जीवन में मैं साँस।।
सत्संगत से भागते,रुष्ट दुष्ट,हैवान।
सदा कुसंगति में बसे,केवल उनके प्रान।।
अच्छा क्या है क्या बुरा,नहीं जिसे पहचान।
वहीं कुसंगति में फँसा, जीवन में इंसान।।
जब भी चाहे मार दे,विश्वासों को लात।
यहीं आज का सत्य है,स्वार्थपूर्ति औ घात।।
चकाचौंध की जिंदगी,मायावी बाजार।
जिसमें फँस कर रह गया,ये पूरा संसार।।
स्वार्थपूर्ति में हैं बँधे, उनके सभी उसूल।
ठगना ही बाजार का,लक्ष्य रहा है मूल।
साहब का दिखने लगा,बदला हुआ स्वभाव।
जाति मूल का आचरण,कुत्सित कुंठित भाव।।
कितना भी अच्छा करूँ,देते नहीं ख़िताब।
उल्टे चूक बता सा'ब,करते रपट खराब।।
गलती पर तो ठीक है,जुर्माना औ दण्ड।
मगर सही भी कार्य पर,ताने हैं कोदंड।।
जिनके मन अहमन्यता और आचरण हीन।
पद पाकर वे समझते,खुद को बड़े प्रवीन।
कितना कुंठित दिख रहा,कुर्सी का आचार।
सही कार्य को भी करे,गलत सिद्ध हर बार।।
जब शठता छोड़े नहीं, हठी, ढीठ,शठ,नीच।
उसे व्यंजना की जगह,अभिधाओं से फीच।।
स्वार्थपूर्ति में खेलते,लोग यहाँ हर दाव।
धीरे धीरे मर रहा,जीवन में सद्भाव।।
उनको भी मिलता कहाँ,जीवन में सम्मान।
पद-मद में जो मातहत,का करते अपमान।।
ऊँची कुर्सी पा गया,जब भी कोई नीच।
बदबू फैलाता लिए,अपकर्मों की कीच।।
संघर्षों के बीच भी,पाती रहीं निखार।
जब जब धमकी,धौंस की,कलमें हुई शिकार।।
मोदी की उपलब्धि है,बोल रहे रोबोट।
मन्दिर मन्दिर घुम रहे,पप्पू पाने वोट।।
जातिवादियों के लिए,हुई सबक की बात।
उल्टा चाँटा जड़ दिया,आज जिन्हें गुजरात।।
गृह त्यागी के साथ में ,तुलना है बेकार।
इक है मिट्टी में पला,इक सुविधा के द्वार।।
राहुल के संग मिलकर,हार गए विघ्नेश।
हार्दिक हों जिग्नेश हों ,या नेता अल्पेश।।
हार'दिक इस देश का,बहुत बड़ा है रोग।
है सुझाव फिर से करे,सीडी का उद्योग।।
जनादेश का भी करो,कुछ तो तू सम्मान।
क्यों मशीन पर दोष मढ़,करते हो अपमान।।
मणिशंकर ने मार दी,काँगरेस की रेड़।
राजनीति में रोपकर,'नीच' नाम का पेड़।।
जीत आखिरी जीत है,हार आखिरी हार।
एक वोट से थी गिरी,कभी अटल सरकार।।
पहले यूपी से हटे,माया औ' अखिलेश।
अब होगा काँग्रेस से,मुक्त हमारा देश।।
राजनीति कर जाति की,फिर भी हुआ न पास।
है विकास पागल नहीं,पागल किया विकास।।
छीछालेदर कर रहे,क्यों अपनी हर बार।
हार गए तो मान लो,अब तो अपनी हार।।
सत्तर वर्षों से रही,काँग्रेसी ये रीति।
पचा नहीं पाती कभी,दुसरों की ये जीत।।
अजब आज का दौर है,गजब वक्त का फेर।
गदहे को घोड़ा कहे,और स्यार को शेर।।
जयचंदों की है खड़ी,देखी लंबी फौज।
जाति,धर्म का लाभ ले,काट रही है मौज।।
जिनको जूते मार कर ,जन ने दिया नकार।
फिर भी नहीं स्वीकारते,मुख से अपनी हार।।
ये कैसा है आकलन,ये कैसा आचार।
हार बताते जीत को,और जीत को हार।।
छोटी छोटी कोशिशें,बहुत कारगर चीज।
बड़े लक्ष्य की प्राप्ति की,बन जाती हैं बीज।।
एक हाथ रखता कलम,एक हाथ तलवार।
यथा उचित करता सदा,मैं अपना व्यवहार।।
चाहे गोबर फेक तू,या तू फेको कीच।
जनता देगी फैसला,कौन यहाँ है नीच।।
स्वतः बनेगा देश ये,नैतिक श्रेष्ठ समाज।
कैशलेस गर हो सके,राजनीति ये आज।।
अनुभव की अभिव्यक्ति का,जरिया श्रेष्ठ,महान।
दोहा,मुक्तक लिख ग़ज़ल,अद्भुत छंद विधान।।
लाउड स्पीकर हाथ में,पैरों में रख देश।
चिल्लाकर वो दे रहे,हमें शान्ति संदेश।।
अब साहित्य न साधना,ना तप,ना आचार।
कवि,प्रकाशक,वितरक,करते बस व्यापार।।
डुब जाता तब काव्य का,प्रखर,दिव्य आदित्य।
किलो से बिकते जहाँ,भाव भरे साहित्य।
जिसे समझता था सदा,अच्छा रचनाकार।
जाति,धर्म अरु लिंग का,निकला ठेकेदार।।
निश्छलता गुण प्रेम का,रखिये हृदय सहेज।
तर्क विसंगति से घटे, विश्वासों का तेज।।
ज्ञान बड़ा अनमोल है,प्रेम श्रेष्ठतम भाव।
जीवन इसके योग से,पाता सहज स्वभाव।।
काव्य वृक्ष पर जब फलें,छंद, बिम्ब,लय,ताल।
अमृत रस घोले सहज,हृदय मध्य तत्काल।।
शब्द,भाव की सर्जना,बनती काव्य विभूति।
गीत,ग़ज़ल, दोहा रचे,लेकर नव अनुभूति।।
तन-मन से रावण लगे,जैसे राम रहीम।
ऐसे छलियों से सदा ,होता धर्म यतीम।।
कवि हुए बस तीन ही,दो हैं ब्रह्मा,व्यास।
वाल्मीकी तीसरे कवि,शेष सभी बकवास।।
वेद,महाभारत रचे,रामायण कवि मूल।
उस पर ही उगते रहे,रचनाओं के फूल।
जो खोने लगता सतत्,अपनों का सद् प्यार।
दुनिया से मिलती उसे,इक दिन बस दुत्कार।।
ऋग्वेद जिसको कहा,पावन सदा अघन्य।
हत्या कर कुछ कर रहे,भक्षण कर्म जघन्य।।
(शब्दार्थ- अघन्य-गाय, जघन्य-घृणित)
क्या दूँ मैं गुरुदक्षिणा,कैसे दूँ सम्मान।
जो कुछ है तेरा दिया,मेरी क्या पहचान।।
मत कुपात्र को दीजिये,शिक्षा,भिक्षा,दान।
पाकर भी करता सदा,दाता का अपमान।।
अपनी बिटिया के लिए,सही तेरे ज़ज्बात।
लेकिन औरों के लिए,क्यों मन में प्रतिघात?
सीमित चुनावों तक रही,लोकतंत्र की बात।
राजनीति का अर्थ अब,घात और प्रतिघात।।
लोकतंत्र के नाम पर,मिली लूट की छूट।
नेता सत्ता रस पियें,जनता विष का घूंट।।
कर्तव्यों को भूलकर,याद किये अधिकार।
वर्चस्वों की आग में,झुलस रहे परिवार।।
टूट रहे निशदिन यहाँ,विश्वासों के सेतु।
रिश्तों में जबसे घुसे,छल के राहू-केतु।।
समाजवाद के ढोंग ने,किया स्वयं असहाय।
या लोहिया की लग गई,आज सपा को हाय।।
परिवार की पार्टी के,दो दो अब अध्यक्ष।
जनता भी कन्फ्यूज हैं,किसका लें हम पक्ष।।
जातिवादी पार्टियाँ,तुष्टिकरण की मूल।
कुर्सी खातिर बेचती,अपने नित्य उसूल।।
थूक थूक कर चाटीए,चाट चाटकर थूक।
देख सियासी रूप ये,उठे हृदय में हूक।।
बनी रहे कुर्सी सदा,रहे हाथ सब तंत्र।
देख रही जनता यहाँ,प्रायोजित षड़यंत्र।।
मुगलकाल का दिख रहा,फिर से आज फरेब।
सोलह था तैमूर का,सत्रह औरंगजेब।।
शांति,अमन बरसे सदा,ऐसा हो नववर्ष।
मानवता की छाँव में,देश करे उत्कर्ष।।
नवल वर्ष में कामना,पल-पल हो खुशहाल।
शोषित,वंचित को मिले,रोटी,चावल,दाल।।
नवलय ,नवगति छंद -सा ,हो यह नूतन वर्ष |
राग लिए नवगीत का ,बरसे घर-घर हर्ष ||
नवल वर्ष में प्राप्त हो ,खुशियाँ अपरंपार |
जीवन मानो यूँ लगे ,फूलों का त्यौहार ||
अच्छी सब ख़बरें मिलें,नवल वर्ष में मित्र।
सबके अधरों पर रहें,खुशियों के सब चित्र।।
जिनका दिल काला स्वयं,मन पर धब्बे साठ।
पढ़ा रहे हैं आज वो,सद्चरित्र के पाठ।।
स्वार्थ वृति का आदमी,कितना हो विद्वान।
करता मानव मात्र का,नित्य महज नुकसान।।
चरणदास संस्कृति के,देखे सत्तर साल।
नेता टूजी तक गए,जनता बस बेहाल।।
आजादी से आज तक,देखा हिन्दुस्तान।
पप्पू के परिवार हित,चरणदास बलिदान।।
मैडम जी की जूतियाँ,चरणदास ले शीश।
ढो ढो कर पाते रहे,जीवन भर बख्शीश।।
नजरें कुर्सी पर टिकीं,मुख पर हाहाकार।
नकली आँसू आँख में,लिए घुमैं मक्कार।।
चरणदास संस्कृति के,देखे सत्तर साल।
नेता टूजी तक गए,जनता बस बेहाल।।
कालेधन के पक्ष में,जबसे खड़ा विपक्ष।
सूअर बाड़े सा दिखा,सारा संसद कक्ष।।
शर्म,हया को भूलकर,महज घात-प्रतिघात।
संसद का पर्याय अब,गाली,जूता,लात।।
कालेधन की चोट से,पप्पू हैं नासाज़।
झाड़ फूंक से चल रहा,जिनका आज इलाज।।
काशी अस्सी घाट पर,करके प्रातः स्नान।।
बाँट रहे हैं रिश्तों की,समधी द्वय मुस्कान।।
जिसके दिल कालिख पुता,दूजे सोंच विवर्ण।
लोहा भरे दिमाग से,कैसे निकले स्वर्ण।
मन मुट्ठी में कीजिए,मिटा सोच से खोंट।
समझ बूझ रखिए कदम,नहीं लगेगी चोट।।
न कराहते बन पड़े,उगल न पाते राज।
बवासीर सा सालता,कालाधन ये आज।।
साईं इतना दीजिए,धन से घर भर जाय।
इतना लूटूं देश को,बीस पुश्त तक खाय।
लय,प्रवाह,यति,गति लिए,होते सुमधुर छंद।
सहज समर्पण में छिपा,जीवन का आनंद।।
फेसबुक पर कवियों की,ऐसी लगी कतार।
मोती के बाजार में, ज्यों मछली-व्यापार।।
.................................................
तुम मुझको तुलसी कहो,तुझको कहूँ कबीर।
आओ मिलकर बाँट लें,बौनेपन की पीर।।
................................................
वाह वाह की लत लगी,बस ताली की चाह।
मंचों की कविता बनीं,सबसे बड़ी गवाह।।
भ्रम पैदा करते सदा,फेसबुकीया मित्र।
उनको रचना चाहिए,या उन्मादक चित्र।।
भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
कविता मेरी बोलती,खरी खरी सी बात।।
फुटपाथी पाठक सदा,रहें वाल से दूर।
गुणग्राही कुछ मित्र ही,हैं मुझको मंजूर।।
टैगासुर सुन प्रार्थना,मत कर तू मजबूर।
नहि तो करके ब्लॉक फिर,कर दूँगा मैं दूर।।
थोड़ी भी गर है बची,तुझमें सही तमीज।
बो मत सत्ता के लिए,जातिवाद के बीज।।
अगड़ा पिछड़ा औ दलित,लेकर विषय विवाद।
नेताओं ने कर दिया,पूर्ण मुल्क बर्बाद।।
झूठ बोलना सीखिए,बनिए पलटीमार।
तभी रहेगी 'आप' की,दिल्ली में सरकार।
राजनीति में मान्य हैं,जब से झूठ,फरेब।
वहीं सफल नेता यहाँ,जिसमें जितना ऐब।
पैंसठ बरसों बाद भी ,आज़ादी बस नाम |
डॉलर के दरबार में ,रुपया अभी गुलाम ||
बेलगाम टीवी हुआ ,कौन करे कंट्रोल |
भौड़ेपन की आग में ,मूत रहा पेट्रोल ||
सोसल साइट्स पर सदा ,आक्रामक व्यवहार|
पर टीवी व्यभिचार पर ,नरम रही सरकार ||
हिंसा औ अश्लीलता ,विविध भाँति के रोग |
चटखारे ले बाँटता ,टीवी का उद्योग ||
चेन्नई एक्सप्रेस पर, खर्चे शतक करोड़ |
मगर प्याज के नाम पर, रोने की है होड़ ||
मैं लड़ता हूँ भूख से ,मुझसे लडती प्यास |
मैं दोनों के बीच में ,झेल रहा संत्रास |
चमक रहे हो खुद यहाँ ,और सभी द्युतिहीन |
कैसे मानू मैं तुम्हें ,असली कला-प्रवीन ||
भावों की बरसात से ,भारी मन के पाँव |
सृजन- प्रसव की चाह में ,ढूढ़े सुन्दर छाँव ||
अखबारों की सुर्खियाँ ,समाचार का सार |
मानवता के रक्त से, सना पड़ा अखबार |
सिसक रहीं है हड्डियां ,पड़े गटर में बंद |
शोकाकुल परिवेश में, कौन सुनाये छंद |
गोदें सूनी हो रहीं ,सपने सारे ध्वस्त |
आज दरिंदे कर रहे, मानवता को पस्त ||
मानवता थर्रा गई ,देख क्रूर यह खेल |
क्या कभी मुर्झाएगी ,यह हिंसा की बेल ||
रक्षाबंधन पर्व पर ,सबको नमन हज़ार |
बहनों के रक्षार्थ हम ,सदा रहें तैयार ||
जाति-धर्म से श्रेष्ठ है ,बहनों का सद् प्यार |
अदभुत ,पावन पर्व है ,राखी का त्यौहार ||
सत्य ,ज्ञान, गुरु ,आत्म से ,जब बंधता इंसान |
बनकर रक्षा कवच ये ,देते जीवन दान ||
मनमोहक ,दिलकश अदा ,ठगने का हथियार |
है अनीति के शास्त्र पर ,टिका हुआ बाज़ार |
औरत ,इज्जत ,प्रेम हो ,या रिश्तों के बीज |
बाज़ारों के दौर में ,बिकती है हर चीज ||
किसको कैसे लूटना ,कुत्सित लिए विचार |
दुनिया में हमको सदा ,सिखलाते बाज़ार ||
टीवी के बाज़ार में ,औरत इक उत्पाद |
चटखारे ले बेचता ,नंगेपन की खाद |
अदभुत है बाज़ार का ,अर्थशास्त्र उद्योग |
स्वार्थपूर्ति बस ध्येय है ,लाभांशों का योग ||
कैसा तेरा न्याय है ,कैसा तू हमदर्द |
जुल्म ढा रहा संत पर ,कैसा है तू मर्द ||
सत्ता का अपराध से ,ये कैसा अनुबंध |
अपराधी खुला घूमें ,संतों पर प्रतिबन्ध ||
कान्हा जी के जन्म पर ,खुशियाँ मिलें अपार |
चहुँ दिशि सुख औ शान्ति हो ,घर-घर बरसे प्यार ||
प्रेम ,भक्ति सद्कर्म का ,देने को सन्देश |
कृष्ण लला तू आ जरा ,फिर से मेरे देश ||
संकट में है देश का ,धर्म ,न्याय औ संत |
हे कान्हा आकर करो ,फिर दुष्टों का अंत ||
एक कंस वध के लिए ,लिए कृष्ण अवतार |
आज हज़ारों कंस हैं ,कौन करे संहार ||
क्षमा करो हे निर्भया ,दिला सके ना न्याय |
तेरे संग कानून भी ,किया बहुत अन्याय ||
मेरे देश महान का ,ये कैसा क़ानून |
घोर क्रूर हैवान का ,माफ़ कर दिया खून ||
जिसको फाँसी चाहिए ,पाया कुछ दिन जेल |
फिर खेलेगा निकलकर ,बलात्कार का खेल ||
कानूनी ये फैसला ,दिला दिया अहसास |
अब रक्षा के नाम पर ,न्याय मात्र बकवास ||
इज्जत खो बिटिया मरी ,झेल-झेल संत्रास |
देख हश्र क़ानून का ,उठा आज विश्वास ||
मुल्ला ,बाबा ,पादरी ,को किसने दी छूट |
सदा धर्म की आड़ में ,सबकी इज्जत लूट ||
मिडिया ,राहुल ,सोनिया ,से लेकर के बैर |
बाबा आसाराम सुन ,नहीं तुम्हारी खैर ||
ज्ञान ,आचरण ,प्रेम के,सबसे बड़े फ़क़ीर |
भारत की तस्वीर में ,तुलसी सूर ,कबीर ||
पाक साफ यदि है हृदय ,तो जंगल क्या जेल |
संत कभी डरता नहीं ,नहीं रचाता खेल ||
संतों की पहचान है ,सहज ,सरल व्यवहार |
सदाचरण की जिंदगी ,जीव मात्र से प्यार ||
कुछ ढोंगी , बहुरुपिया ,कालनेमि के बाप |
पकड़ संत का रूप वे ,बाँट रहे हैं पाप ||
विश्वासों के मूल पर ,करते वहीँ प्रहार |
जिनको जीवन में कभी ,मिला नहीं है प्यार ||
लोभ,मोह ,ईर्ष्या घृणा ,अपनाकर अपमान |
दया ,प्रेम ,करुणा ,विनय ,भूल गया इंसान |
दुनिया में उस रूप की ,कैसे हो पहचान |
भीतर से तो भेड़िया ,ऊपर से इंसान ||
पत्थर का पूजन किया ,धर ईश्वर का ध्यान |
नहीं मिला जब जगत में ,पूज्यपाद इंसान ||
गुरु का आशीर्वाद हीं ,ईश्वर का वरदान |
बिनु गुरु के संभव नहीं ,ईश्वर की पहचान ||
गुरु शिष्य की परंपरा ,पावन औ प्राचीन |
लेकिन अर्वाचीन में बेबस और मलीन||
गुरु किरिपा देता हमें ,ज्ञान पुष्प का दान |
जब चरणों में शीश हो ,मन में हो सम्मान |
गुरु शिक्षक कुछ हीं बचे ,रहते सदा सहाय |
बाकी सब करने लगे ,शिक्षा का व्यवसाय ||
अथक परिश्रम सृजन से ,मिलता सुन्दर अर्थ |
गुरुओं के सद्प्रेम से, जीवन बने समर्थ ||
घोर तिमिर संसार में ,शिष्य जहां फँस जाय |
अज्ञानी गुमराह को ,गुरु हीं राह दिखाय ||
मनसा ,वाचा ,कर्मणा ,हो हिंदी उत्थान |
तभी एक होगा यहाँ ,पूरा हिन्दुस्तान ||
हिंदी मानस में बसे ,विविध रूप भगवान |
तुलसी ,सूर ,कबीर हों ,या रहीम ,रसखान |
इक भाषा ,इक राष्ट्र हित ,चलो करें संघर्ष |
हिंदी जनभाषा बने ,यहीं सही उत्कर्ष ||
मुख में हिन्दुस्तान है ,दिल में है इंग्लैण्ड |
हिन्दी के हर गीत पर ,अंग्रेजी का बैंड ||
दिल्ली मैंने देख ली ,तेरे मन की खोंट |
अंग्रेजी को ताज है ,औ हिंदी को चोट ||
हिंदी भारत की रही , जन जन की पहचान |
धड़कन अब भी राष्ट्र की ,आन, बान औ शान ||
धान पौध -सी बेटियाँ ,दो खेतों की योग |
इसको कहें वियोग या ,इक सुन्दर संयोग ||
बिछड़न,लिपटन अरु रुदन ,समझ पुराने ख्याल |
मुस्काती अब बेटियाँ ,जाती हैं ससुराल ||
बेटी दुःख की खान है ,बहू स्वर्ण की सेज |
ऐसी हीं कुछ सोच है ,लेकर विषय दहेज़ ||
बाप पढ़ाया भेज कर ,बेटे को परदेश |
अफसर बनकर बाप को ,देता अब निर्देश ||
रोगी ढूंढें वैद्य को ,विद्याभ्यासी ज्ञान |
ज्ञानी ढूंढें तत्त्व को ,वेश्या जस धनवान ||
बेशर्मी के दौर में, जीना हुआ मुहाल |
नाक कटाकर भी यहाँ ,रहते कुछ खुशहाल ||
जीवन की अनुभूति का ,सुन्दर सत्य प्रमाण |
है मकसद साहित्य का ,हो सबका कल्याण ||
स्वतः मुक्त होता हृदय ,मिटते सब अवसाद |
जब रचना करने लगे ,जीवन से संवाद ||
एक तरफ साहित्य में ,फैला ब्राह्मणवाद |
दलितवाद दूजै तरफ ,लेकर खड़ा विवाद ||
राजनीति में फँस गई कविता की पहचान |
जोड़ -तोड़ में कवि लगे ,कैसे बनें महान ||
पुरस्कार साहित्य का ,हुआ जुगाड़ी खेल |
अबुआ झबुआ पा रहे ,लगा ,लगा कर तेल ||
पढ़ा रहे हैं आज वो ,हमें प्रगति के पाठ |
जिसने जीवन भर पढ़ा ,सोलह दूनी आठ ||
शर्म ,हया, शालीनता , औरत के श्रृंगार |
लेकिन अर्वाचीन में ,हैं तीनों बेकार |
कामुकता ,अश्लीलता ,का लेकर हथियार |
औरत को अब बेचता ,मीडिया का बाज़ार |
घृणा ,द्वेष अन्याय का ,चलो करें संहार |
प्रेम ,त्याग ,श्रद्धा ,विनय ,का लेकर हथियार |
विश्व विजय करता वहीँ ,जिसके मन में प्यार |
इसके आगे सब यहाँ ,फींके हैं हथियार ||
गाँधी फिर आओ यहाँ ,तू अपने इस देश |
सत्य ,अहिंसा ,प्रेम का, लेकर नव सन्देश |
गाँधी तेरे नाम पर ,गाँधी हुए तमाम |
कुछ तो राजकुमार हैं ,कुछ घूरे के आम |
ये कैसा आदर्श है ,कैसा राष्ट्र -चरित्र |
रुपये में हम बेचते ,गाँधी जी के चित्र |
कर्म और ईमान का ,अद्भुत रहा मिसाल |
लाल बहादुर नाम था ,भारत माँ का लाल |
दो कौड़ी का आदमी ,होता जब मशहूर |
अहंकार ,मद में सदा ,रहता निश्चित चूर ||
राजनीति की ओट में ,किया मुल्क बदहाल |
गदहों की औलाद ने ,पहन शेर की खाल ||
कालेधन की माँग पर ,इक पर अत्याचार |
इक बाबा के ख्वाब पर ,झपट पड़ी सरकार ||
ये कैसा व्यवहार है ,हे शोभन सरकार |
क्यों भ्रष्टो को दे रहे, आज स्वर्ण उपहार ||
जिनके बल पर धर्म की , महिमा रही अनंत |
वहीँ आज इस देश में, शोषित हैं अब संत ||
संकट में यह देश है ,मान रहा हूँ आज |
सस्ता अब भी आदमी ,औ महँगा है प्याज ||
राजनीति जब -जब रही ,वंशवाद के हाथ |
शहजादों के देश में ,जनता हुई अनाथ ||
भूख, गरीबी, दर्द का ,आर्तनाद चहुँओर |
तुम कुर्सी पर बैठ कर ,होते रहे विभोर ||
पप्पा ने सत्ता दिया ,होके भाव विभोर |
पर चच्चा मिल कर रहे ,कुर्सी को कमजोर ||
बनी बनाई राह पर ,चलना है आसान |
राह बना कर जो चले ,वहीँ मर्द इंसान ||
सीधी -सादी जिंदगी ,जीता जो इंसान |
जीवन में होता नहीं ,उसका कुछ नुकसान ||
सही -गलत का आकलन, करता जो इंसान |
वहीँ बना पाता सदा ,अपनी इक पहचान
आज सभ्य इंसान में ,दिखता यहीं उसूल |
पत्थर के गुलदान में ,जस कागज के फूल |
इशरत को बेटी कहे ,मोदी को अवसाद?
बोधगया में कौन है ,बेटी या दामाद ??
आज सियासत खेलती ,खुला-खुला- सा खेल |
देश भक्त को जेल है ,आतंकी को बेल ||
तन कच्छप ,मन शशक सा , इक धीमा इक तेज |
फिर भी जीवन भर चलें ,औसत चाल सहेज ||
जिस बच्चे की पीठ पर ,हो बुजुर्ग के हाथ |
जीवन भर होता नहीं ,बच्चा कभी अनाथ |
बच्चों की मुस्कान में ,बसते जब भगवान |
तब क्यों है इस जगत में ,पत्थर-सा इंसान ||
शब्द-अर्थ दाम्पत्य -से ,जस धरती-आकाश |
दोनों के सहधर्म से ,उपजे भाव प्रकाश ||
आज प्रगति के नाम पर ,कितना हुआ विनाश |
हाँफ रही शोषित धरा ,कांप रहा आकाश ||
तथाकथित कुछ सेकुलर ,देते बस उपदेश |
जातिवाद के नाम पर ,बाँट रहे हैं देश |
जब कटुता की आँच से , ,जलते मन के खेत |
ठूंठा-ठूंठा जग लगे ,जीवन बंजर रेत ||
चोरी मेरा काम है ,चोरी हीं आधार |
जीवन भर करता रहा ,चोरी चुपके प्यार ||
देकर पाने की जहाँ ,मन में जगे विचार |
उसको कह सकते नहीं ,किसी तरह उपकार ||
अग्यानी ग्यानी बने ,औ ग्यानी विद्वान|
गुरुओं के उपकार से ,जीवन बने महान ||
पहले रोटी दान कर ,फिर करना तुम प्यार |
शोषित वंचित के लिए ,यहीं बड़ा उपकार ||
हे भारत के आम जन ,कर दो इक उपकार |
अबकी बार चुनाव में ,चुनो नई सरकार ||
क्या करना आकाश का ,जहाँ नहीं ठहराव |
उससे अच्छी ये धरा ,जहाँ टिके हैं पाँव |
राजनीति की सोच में ,कब किसकी परवाह |
जनता जाए भाड़ में ,बस कुर्सी की चाह ||
गाँधी जी के नाम पर ,गांधी हुए तमाम |
कुछ तो राज कुमार हैं ,कुछ घूरे के आम ||
वायु ,गगन, धरती मिले ,मिले अनल औ नीर |
पंचतत्त्व ब्रह्माण्ड से ,विरचित सकल शरीर |
नफरत ,कुंठा ह्रदय में ,होठों पे मुस्कान |
कालनेमि -से रूप का ,कैसे हो पहचान ||
नक़ल ,नक़ल में भेद है ,अकल ,अकल में भेद |
नक़ल अकल से जो करे ,पाये जीवन वेद|
ले उधार की रोशनी ,चाँद बना जब ख़ास |
सरेआम करने लगा ,जुगनू का उपहास |
क्रोध ,मोह ,मद लोभ में ,हम इतने मदहोश |
जीवन की लहरें हुईं ,बेवश औ खामोश |
भूख ,प्यास ने बनाया ,हमको महज गुलाम |
इनके अत्याचार ने ,जीना किया हराम |
तुम एसी में बैठकर ,लेते हो आनंद |
हम श्रम-साधक स्वेद से ,लिखते जीवन छंद ||
राजा के दरबार में ,वहीँ लोग स्वीकार |
हाँ में हाँ जो बोलते ,जी हजूर ,सरकार||
बिन तुक की बातें सदा ,देतीं दुख,अवसाद |
जैसे सूअर को कहें ,कुत्ते की औलाद ||
नीचे कुल का जनमिया ,करनी भी है नीच |
घृणा त्याग तू बन बड़ा ,प्रेम हृदय में सींच ||
बोलो वन्दे मातरम ,करो राष्ट्र का मान |
तभी शहीदों की धरा ,पाएगी सम्मान ||
लड़का -लड़की मित्रता ,नया चला है ट्रेंड |
बीच सड़क पे बज रहा ,संस्कार का बैंड ||
विश्वासों की नींव पर ,कर पीछे से वार |
कुत्तों ने फिर कर दिया ,शेरों का संहार |
भारत माँ के लाडलों ,तुमको नमन हजार |
फिर आना इस देश में ,करने नव संचार |
सत्ता औ इंसानियत ,कहाँ रहा है मेल |
लाशों पर भी खेलती ,राजनीति का खेल |
ईद ,तीज दोनों मने ,हों सारे खुशहाल |
गले मिलें दिल खोलकर ,निशदिन सालो साल ||
मत्स्य -न्याय में चल रहा ,अब भी शासन चक्र |
सत्ता की नज़रें दिखीं ,कमजोरों पर वक्र ||
जन- सेवा के नाम पर,घोटालों का कंत|
सौ-सौ चूहा हज़म कर , बना हुआ है संत ||
कर्तव्यों के सिर चढ़े ,जब-जब ये अधिकार |
अहंकार का रूप धर ,बने स्वार्थ के यार ||
देश -दहन में सोचना, कितना तेरा हाथ |
चुन चुनकर नेता गलत ,करते देश अनाथ ||
खतरे में हैं बेटियाँ ,फिर भी हम सब मौन |
हैवानों की हवस से ,बता ,बचाये कौन ?
पड़िया जब पैदा भई ,भैंस पुजाती द्वार |
पर बेटी के जन्म पर ,जननी को फटकार ||
लोकशक्ति हीं शक्ति है ,देशभक्ति हीं भक्ति |
संविधान हीं देश का ,धर्मग्रन्थ की सूक्ति ||
संकट में तुम कृष्ण हो ,औ चरित्र से राम |
हे सैनिक !इस देश के ,तुझको करूँ प्रणाम ||
गाय ,गीता ,गायत्री ,चलो बचाएं आज |
यहीं देश की अस्मिता ,गौरव,गरिमा ,लाज ||
तप,मर्यादा,तेज,यश,मिटते पाय कुसंग |
जीवन की संजीवनी ,संयम ,त्याग ,उमंग ||
पतझर तो इक चक्र है ,फरे,झरे ,फल-पात |
जन्म-मरण भी नियति है ,जीवन के सौगात ||
बिना कर्म जब फल मिले ,पंथी को भरपूर |
तब क्यों चाहेगा कभी ,फल लागे अति दूर ||
कला जिंदगी में हमें ,देती दृष्टि नवीन|
दिशाहीन को दे दिशा ,करती सदा प्रवीन||
दीवारों में खिड़कियाँ ,कला दृष्टि की देन |
घुटन भरे माहौल में ,देती है सुख -चैन ||
गुरु कृपा देता हमें ,ज्ञान पुष्प का दान |
जब चरणों में शीश हो, मन में हो सम्मान ||
गुरु का आशीर्वाद हीं ,ईश्वर का वरदान |
बिन गुरु के संभव नहीं ,ईश्वर की पहचान ||
अथक परिश्रम सृजन से, मिलता सुन्दर अर्थ |
गुरुओं के सद्प्रेम से ,जीवन बने समर्थ ||
घोर तिमिर संसार में ,शिष्य जहाँ फँस जाय|
अज्ञानी गुमराह को ,गुरु हीं रह दिखाय||
गुरु-शिष्य की परम्परा ,पावन औ प्राचीन |
लेकिन अर्वाचीन में, बेबस और मलीन ||
फूल -सी बच्ची गर्भ की ,कुचल रहे क्यों आज ?
क्यों बेटे की चाह में ,दानव बना समाज ?
बेटी हीं हैं देवियाँ ,दुर्गा की अवतार |
यहीं करेंगी फिर यहाँ ,दनुजों का संहार |
तु भी माँ की बेटी थी ,मिला तुझे सम्मान |
फिर अपनी हीं कोंख का ,क्यों करती अपमान
मंदिर में देवी पुजै, बगुला भगत समाज |
बेटी के दुश्मन बने ,घर वाले हीं आज |
दानव से मानव बनो , हरो मनुज की पीर |
भ्रूण हत्या को बंद कर ,बहा प्रेम का नीर |
स्वार्थ रहित अब जन कहाँ ,कहाँ रहा अब स्नेह |
जाति- घृणा ने कर दिया ,शुष्क हृदय का गेह |
नफरत ,कुंठा हृदय में ,कथनी केवल भव्य |
भेड़ रूप में भेड़िया, समझाए कर्त्तव्य ||
द्वेष ,घृणा के कूप में ,मन जिनके हैं बंद |
कौन सुनेगा जगत में,उनसे छल के छंद ||
जाति- धर्म के नाम पर ,बाँट रहे कुछ पीर |
हत्या करके प्रेम की ,खुद को कहे कबीर |340
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