साहित्य में श्रम और जुगाड़ का कॉकटेल
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बड़ा साहित्यकार कहलाने के लिए अपनी किताब के लोकार्पण में कुछ पेड तथाकथित बड़े साहित्यकारों को बुलवा लीजिए,कुछ और खर्च करके पाँच दस अखबारों और पत्रिकाओं में कुछ समीक्षा करवा कर छपवा दीजिए।जहाँ भी जाइये अपनी किताब की एक प्रति ले लीजिए और दस बीस पचास लोगों से पढ़ने की मुद्रा में फोटो खींच लीजिए।फिर फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब पर डालते रहिए।मेरा विश्वास है,बड़े बड़े लोगों में आपकी गिनती होने लगेगी।साहित्य में जुगाड़ टेक्नोलॉजी बहुत मुफीद औजार है,उसे फॉलो करिए।सफलता और प्रसिद्धि झक मारकर आपके कदम चूमने लगेगी।
अब थोड़ा कुछ देर के लिए गंभीर होकर पढ़ लीजिए कि साहित्य का उद्देश्य आरंभ से ही रस की प्राप्ति रहा है, आनंद रहा है। आनंद, रस के आज और भी कई माध्यम उपलब्ध हैं। अब पाठक, पाठक होने से अधिक श्रोता होकर आनंद ले रहा है, दर्शक होकर आनंद ले रहा है। उसके पास अब पढ़कर आनंद लेने का समय नहीं। उसके पास अब पढ़ते हुए कल्पना करने का समय नहीं। उसके हाथ में आनंद, रस के बीसियों बटन हैं। दबाए, जो चाहे देखा। किताब ढूंढने की जरूरत नहीं। जो चाहे, सुना। जैसे भी वक्त मिला। जब शब्द दृश्यों में बदल जाएं तो ऐसा होना स्वाभाविक ही होता है। साहित्य को पाठक मिलने के लिए जरूरी है कि पुस्तक मेलों के साथ-साथ पाठक मेले भी हों।नहीं तो साहित्य की पुस्तकें पुस्तकालयों की आलमारी में कचरा बनकर रह जाएंगी।
अरे!आप तो गंभीर होकर पढ़ने लगे।रिलैक्स प्लीज!
अब आदमी के पास समय कहाँ है कि साहित्य के अध्ययन में संस्कृत के भामह,दंडी, वामन,विश्वनाथ जैसे आचार्यों या हिन्दी में महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुंदर दास, जयशंकर प्रसाद ,डॉ नगेन्द्र या पाश्चात्य विद्वानों में प्लेटो,अरस्तु, वर्डसवर्थ, सैमुअल टेलर कॉलरिज,पी वी शैली,मैथ्यू अर्नाल्ड आदि इत्यादि को पढ़े।जितना समय वह इन्हें पढ़ने में लगाएगा,उतने में तो वह फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब पर वीडियो देखकर लहालोट हो जाएगा। फिर ये सूरदास,तुलसीदास, कबीरदास हों या रहीमदास इन्हें पढ़कर क्या करना है?ये लोग अपने लिए महान कवि,लेखक, साहित्यकार होंगे,हमें क्या?इन्होंने तो बहुत परिश्रम और ज्ञान के बल पर लिखा होगा,अब श्रम और ज्ञान की क्या आवश्यकता,जब लक्ष्य प्राप्ति के हर साधन संसाधन मौजूद हैं।वह लेखक ,कवि मूर्ख हैं, जो खुद चिंतन मनन करके ज्ञान का सागर बहाने की बात सोचते हैं।अब तो गैलेक्सी ही हमारे जेब में है जो चाहे,जब चाहे,पढ़े,..नहीं नहीं..देखे,सुने।उसमें तो ज्ञान का झरना है,अश्रव्य और अदृश्य का श्रव्य तथा दृश्य अनहदनाद उपलब्ध है,बस कान में उसे थोड़ा ठूसना पड़ता है,जिसे बगल के बैठा व्यक्ति भी नहीं सुन पाता।
है न साधन संसाधन में श्रम से अधिक जुगाड़ का महत्त्व!
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