गीतिका मनोज की ( भाग-2)
1-
करें नित्य माँ का वंदन।
हृदय-पुष्प से अभिनन्दन।
चरणों का नित ध्यान धरें,
ले मन का अक्षत-चन्दन।
वन्दे मातरम्! मन्त्र जपो,
दुःख का होता शीघ्र शमन।
माँ से ही मिलता सब कुछ,
जीवन में तन-मन औ धन।
माँ तो माँ है ,दयामयी,
देती हमको शांति-अमन।
बढ़े असुर जब-जब जग में,
करती है माँ सदा दमन।
हर निर्बल की बल है माँ,
करुणे!तुझको कोटि नमन!!
2-
जड़ों में था हमारे ,सत्यता के शोध का चिंतन।
परोसा जा रहा है आजकल,प्रतिशोध का चिंतन।
जो कुंठित लोग सच का सामना,करने से डरते हैं,
दिखाते हैं नपुंसक सा महज,अवरोध का चिंतन।
भले हो दामिनी लुटती या कटते सिर जवानों के,
कभी करते नहीं ये बुद्धिजीवी,क्रोध का चिंतन।
शेरों की धरा पर आ गए ,औलाद स्यारों की,
कराते नित्य मजहब, जातिवादी,बोध का चिंतन।
शठे शाठ्यम की भाषा में,अब इनसे बात करनी है,
भुलाकर दिल से इज्ज़त,मान औ अनुरोध का चिंतन।
3-
दिन को दिन रात को ,रात लिखिए।
अलग-अलग उनके ,हालात लिखिए।
हिन्दू लिखिए या मुसलमान लिखिए,
सही जो भी हो वो ,जज्बात लिखिए।
हाथ कटने का डर है ,तो छोडिये कलम,
सच के नुमाइन्दे हैं ,तो सही बात लिखिए।
क्यों सियासत में ढकेलते हो कलम को,
कलमकार हो सृजन ,सौगात लिखिए।
किसी की जीत पर ,कसीदे क्या पढ़ना,
सत्य शिव सुन्दर की ,तहकीकात लिखिए।
4-
आज देश की, मूल सियासत।
नेता गद गद,जनता आहत।
चोरी कर फिर ,सीना जोरी
कैसी अद्भुत, चोर बगावत।
बड़ा वहीं है,नाम है जिनके,
लूट,घोटाला,जेल,अदालत।
लोकतंत्र में ,सत्ता,कुर्सी,
परिवारों की, बनी विरासत।
मुफ्त मुफ्त, वाले वादों से,
बिगड़ गई है ,कितनी आदत।
जातिवाद से ,देश हमारा,
दीखता है ,कमजोर निहायत।
5-
पिंजरे से इक परिंदे की,उड़ान की बात।
झूठी लगती है दुनिया,जहान की बात।
लाख कोशिश के बाद ,भी समझता नहीं,
चुग्गे का गुलाम,आसमान की बात।
दर्द अपना जो ,बयां नहीं करता,
कौन समझेगा ,उस बेजुबान की बात।
आदि इत्यादि मरे,वतन परस्ती में,
कौन जानेगा?,छोड़कर महान की बात।
बँट चुका मुल्क,ये सियासत में,
महज़ लेकर हिन्दू ,मुसलमान की बात।
अब तो सम्मान भी ,ज़रा सोंच कर करना,
कहीं कर न बैठे,कोई अपमान की बात।
मुल्क को तोड़ना,आसान है 'मनोज'
दिलों को जोड़ना ,है इम्तेहान की बात।
6-
चाय सारा मुफ्त पीकर,पन्नी लौटाने का अर्थ।
जैसे सौ का कर्ज ले,चवन्नी लौटाने का अर्थ।
दामिनी के दर्द का ,एहसास का हिसाब दें,
या बताएँ माँ को उसकी,मुन्नी लौटाने का अर्थ।
भूल गए हो गोधरा या तू अक्षरधाम को,
या पिता की आँख की,रोशनी लौटाने का अर्थ।
वो जो भागलपुर में ,फैला था अँधियारा कभी,
उनके आँगन में बता,चाँदनी लौटाने का अर्थ।
कश्मीरी पंडित मरे,सिख दंगा पर बता,
बलत्कृत बेटी का नहीं,चुन्नी लौटाने का अर्थ।
रश्दी औ रहमान के प्रतिबन्ध कैसे भूलते?
मुझको मालूम सेव खाकर,सुथनी लौटाने का अर्थ।।
(सुथनी -एक फल जिसे सामान्य रूप से लोग नहीं खाते)
7-
बिना जलाए ,आग जलती है क्या?
सर्द मौसम में ,बर्फ पिघलती है क्या?
हो जिसकी सोच में, वासना की परत,
ऐसी अंधी जवानी ,सम्हलती है क्या?
ठंडे चूल्हों से ,अपेक्षा क्या करना,
चढ़े बिन आग पर ,दाल गलती है क्या?
भूख इन्सां की हो ,या परिंदे की,
भरे बिन पेट ,जिंदगी चलती है क्या?
समझ,रिश्तो की,हर तहजीब माँ से,
बिना कोंख कोई,संतान पलती है क्या?
8-
मुझको मालूम नहीं, क्या करता हूँ।
दोस्तों को मैं रोज ,खफ़ा करता हूँ।
सच अगर बोलना,गुनाह है तो,
हरेक पल मैं ऐसी ,खता करता हूँ।
दोस्त दुश्मन-से , पेश आते जब,
दुश्मनी में दोस्ती का ,पता करता हूँ।
मन से बीमार हैं,पचती नहीं दवा उनको,
खुदा खैर करे ,दिल से ,दुआ करता हूँ।
उनको मालूम है ,मेरी कमजोरी,
बेवफा दोस्त से भी मैं,वफ़ा करता हूँ।
9-
जिंदगी से बात कर तू प्यार से।
चल सदा अपनी सहज रफ़्तार से।
लक्ष्य पाना है तो ,खुद ऊपर उठो,
मत गिला-शिकवा करो संसार से।
वीरभोग्या है धरा,ये इसलिए,
शेर की तुलना करो,मत स्यार से।
भाग्य पर औ भीख पर ,मत कर यकीं,
आत्मगौरव मत गिरा,कुछ हार से।
तुझमें इक सूरज छिपा,अहसास कर,
डर नहीं तू बेवजह,अँधियार से।
10-
कौन कहता नदी के घर,समंदर नहीं आते?
परिंदों को बुढ़ापे में ,दुबारा पर नहीं आते?
तू पहले सब्र की शबरी,हृदय में तो बसाकर रख,
मैं भी देखता,क्यूँ राम,तेरे घर नहीं आते।
जो भी खुद्दार हैं ,ईमान पर जिनको भरोसा है,
उनकी जिंदगी की राह में,फिर डर नहीं आते।
मिला है उनको शायद ,वक्त के पाबंद का तमगा,
समय पर आजतक जो ,खुद कभी दफ्तर नहीं आते।
उनकी हमदर्दियों से ,दर्द का मीठा जहर पाकर,
तड़पकर उबलते आँसू,मगर बाहर नहीं आते।
जो फेंके ईंट उसने मुझपे,उससे घर बना डाला,
मेरे आँगन में तब से ,आजतक पत्थर नहीं आते।
11-
हरसूं लगी इस आग को,बुझाएगा कौन?
बढ़ के आगे अपना हाथ,जलाएगा कौन?
घिरी हैं मगरमच्छों से,मछेरों से नदी में,
तिरती मछलियों को आखिर,बचाएगा कौन?
बड़ी कड़वी दवा है,मर्ज का नुकसान करती है,
मगर जिद्दी बीमारों को ,पिलाएगा कौन?
हजारों गम लिए इंसान ,गूंगे की तरह है,
कवि भी मौन हो तो बोलिए ,सुनाएगा कौन?
12-
जब रिश्तों पे पद,पैसा होता है भारी।
स्वार्थपूर्ति में होती,केवल मारामारी।
जिनके मन खुद चोर बसा,कैसे कर सकता,
गैरों के जीवन की ,सच्ची पहरेदारी।
सुख-दुःख तो आते-जाते मौसम है प्यारे,
भोग रहा इंसान यहाँ पर बारी-बारी।
कठपुतली सा जीवन,वे हीं जी पाते हैं,
मर जाती है जीते जी,जिनकी खुद्दारी।
चूम लिया करती है चरण,सफलता उसकी,
जंग हौसलों की सतत,जो रखता जारी।।
13-
तू हीं बता यहाँ ,क्या नहीं होता।
हर कदम क्या ,हादिसा नहीं होता?
गैर तो गैर है,उसकी बात क्या करना,
खुद के रिश्तों में ,क्या दगा नहीं होता?
बिखर गया होता मैं ,कभी का जमाने में,
गर ख़ास मिट्टी का ,बना नहीं होता।
टपकते हैं लफ्ज,मेरी आखों से,
जुबां से जब कुछ ,अदा नहीं होता।
जबसे मालूम हुई ,जिंदगी की सच्चाई,
अब किसी बात पे मैं ,खफा नहीं होता।
14-
मुस्कराहट पर मिरे एतराज क्यूँ है।
दुश्मनों-सा आपका अंदाज क्यूँ है।
मेरे हिस्से की मिली उपलब्धियों से,
बेवज़ह मन आपका नासाज़ क्यूँ है।
कल तलक सूरज उगाते फिर रहे थे,
फिर अंधेरों से मुहब्बत आज क्यूँ है।
नीव के पत्थर मिटे हर बोझ लेकर,
फिर कंगूरों के सिरों पे ताज क्यूँ है।
खुद पे हँस कर जिंदगी में जान पाया,
नूर मेरे अक्स का बेताज क्यूँ है।
(नासाज़-बीमार, नूर-चमक, अक्स-चेहरा)
15-
आग,मिट्टी,हवा,पानी,जिंदगी को चाहिए।
खुबसूरत इक कहानी,जिंदगी को चाहिए।
हो रवानी,जोश औ जिंदादिली जिसमें सदा,
खुशबुओं से तर जवानी,जिंदगी को चाहिए।
दोस्त बचपन के न जाने,खो गए हैं सब कहाँ,
याद वो सारी पुरानी,जिंदगी को चाहिए ।
भेंट कर अहसास के कुछ फूल ,मन के बाग़ से,
प्यार की कोई निशानी,जिंदगी को चाहिए।
भूल ना जाएँ परिन्दें ,राह अपनी डाल के,
डोर रिश्तों की सुहानी,जिंदगी को चाहिए।
16-
होते दिल पर हमले ,कैसे-कैसे अक्सर।
आ जाते हैं रोज यहाँ,कुछ फूल-से पत्थर।
मैं केवल इंसान ,बने रहना चाहा तो,
ना जाने कितने इल्जाम,लगे हैं मुझ पर।
झुकना फितरत नहीं,मगर छोटे बच्चों को,
ख़ुशी-ख़ुशी मैं उठा लिया, करता हूँ झुक कर।
चलना सीखा रहे हैं,मुझको आज वहीं,
जीवन भर चलते रहे,जो बैसाखी पर।
ढोल ,मजीरे,तबले की प्रतिस्पर्धा में,
बजते हैं कुछ लोग यहाँ,ज्यों बजे कनस्तर।
रिश्तों के आँगन में ,बदबू सी आती है,
मन के द्वार बिछी है,जबसे मैली चादर।
17-
हिलती परछाईं रोशनी का पता देती है।
मुहब्बत मुसल्लसल आदमी का पता देती है।
उगा लो लाख चेहरे पर,हँसी का समंदर,
आँख इंसान की तश्नगी का पता देती है।
खुशबू याद की दिलों में जज्ब हो तो,
दर्द के होंठ पे ,हँसी का पता देती है।
मेरे दुश्मन हीं,तेरे दोस्त क्यों होते आखिर,
ये अदा तेरी,दुश्मनी का पता देती है।
लड़ेगा मौत से जो,उम्र भर आगे बढ़ कर,
यहीं जज्बात तो,जिंदगी का पता देती है।
18-
जिंदगी उसकी हसीन होती है।
जिसकी अपनी जमीन होती है।
जो दिल को बाँधती है रिश्तों में,
स्नेह की डोर,महीन होती है।
कभी बासी नहीं होती खुश्बू,
सदा ताजातरीन होती है।
दुनिया के दिलों में प्यार भर दे,
वो कविता बेहतरीन होती है।
मुल्क वो खुश नहीं होता कभी भी,
जहाँ बेटी गमगीन होती है।
देश कचरे से जियादा कुछ नहीं,
जिसकी बस्ती मलीन होती है।
19-
क्या बतलाएँ कितना मुश्किल जीवन अब तो जीना जी
किस्मत में हैं गम के आँसू,निशदिन हमको पीना जी।।
फले-फूले जीवन की बगिया,तनिक न उसको भाया जी,
अरमानों में आग लगा दी,मौसम बहुत कमीना जी।
हुआ स्वर्ग दोजख-सा जबसे,सैलाबों की साजिश में,
भरी ठंड में डर के मारे ,आता बहुत पसीना जी।
एक तरफ मुफलिस का जीवन,ऊपर से दहशतगर्दी,
किसका दोष बताएं किसने ,चैन हमारा छीना जी।
20-
उपदेशों में कर्तव्यों का ओढ़े हुए लबादे लोग ।
अपने हिस्से की मिहनत,गैरों के कंधे लादे लोग।।
विश्वासों पर दंश मारने वाले फितरत वालों को ,
आस्तीन में पाल रहे हैं,कितने सीधे -सादे लोग।
जड़ता की मूरत के आगे ,झुक-झुककर देखा हमने,
जाने कैसी आस लगाए ,बैठे ले फरियादें लोग।
शोषण की शिक्षा में माहिर ,गलत इरादों को लेकर ,
झूठे ख्वाब दिखाते दिखते,करते नकली वादे लोग।
कौवे की चाहत है देखी, हंस उसे समझे दुनिया ,
स्वर्ण अक्षरों में यशगाथा,लिखकर उसकी गा दें लोग ।
21-
आते-जाते लगता है डर।
घर से दफ्तर ,दफ्तर से घर।
घूरती हैं राहों में निशदिन ,
जाने कैसी नज़रें अक्सर।
लड़की तो लड़की होती है,
कलकत्ता हो या हो बक्सर।
गम हों या खुशियों के मंजर ,
नहीं असर पड़ता अब दिल पर।
फल जबसे पेड़ों पर आये,
मिलने आ जाते कुछ पत्थर।
गम के सायों में मत पूछो,
कितना मुश्किल जीना हँसकर।
22-
किसी के दर्द पर जो ,दिल हीं दिल में रो नहीं सकते।
समझ लो जिंदगी में ,वो किसी के हो नहीं सकते।
मुहब्बत जब भी होती है,किसी इंसान से प्यारे,
ऐसे इश्कजादे जिंदगी में सो नहीं सकते।
जिसमें हौसले का नूर हो,ज़ज्बा हो बढ़ने का ,
अंधेरों के बवंडर में,कभी वो खो नहीं सकते।
सियासत गर अराजकता,भगोड़ेपन की दर्पण है,
भगोड़े लोग कालिख को ,कभी भी धो नहीं सकते।
घृणा के बीज के तेज़ाब से,है दिल भरा जिनका,
अमन के फूल धरती पर,कभी वो बो नहीं सकते।
जो खुद बैसाखियों का ,ले सहारा चल रहे प्यारे,
वतन का भार जीवन में,कभी वो ढो नहीं सकते।
23-
छूकर ये क्या जनाब कर दिया ।
पानी भी शराब कर दिया।
अभी तो होंठ से लगाया था,
पावों को बेहिसाब कर दिया।
सच तो सच है ,फिर मत कहना,
महफ़िल में इंकलाब कर दिया।
थी मेरी जिंदगी निःशब्द अब तक,
तुमने पढ़कर ,किताब कर दिया।
तुम्हें क्या दे दिए ,पैंसठ बरस हम,
मिट्टी मुल्क की ,खराब कर दिया।
24-
डर का समंदर बन गई है जिंदगी।
क्या बवंडर बन गई है जिंदगी।
ख़्वाब के हर पृष्ठ पर तनती हुई,
जैसे हंटर बन गई है जिंदगी।
पल,महीने,वर्ष साँसों पर छपा,
इक कलेंडर बन गई है जिंदगी।
गम,ख़ुशी की डाल पर यूँ झूलकर,
एक बन्दर बन गई है जिंदगी।
आज रिश्तों को निगलकर उगलती,
ज्यों छछूंदर बन गई है जिंदगी।
25-
आदमी कितना अराजक हो गया।
मुफ्तखोरी का उपासक हो गया।
आदतें जबसे हुईं भस्मासुरी,
स्वार्थ में कितना भयानक हो गया।
त्याग से ज्यादा यहाँ लिप्सा बढ़ी
जिंदगी का लक्ष्य नाहक हो गया।
नागफनियों का चलन जबसे हुआ,
फूल का जीवन विदारक हो गया।
अब तलक जो लूटता था देश को,
देशभक्ति का प्रचारक हो गया।
क्या सियासत हो गई इस दौर की,
नक्सली दिल्ली-सुधारक हो गया।
26-
ऐसी नीति बनी सरकारी।
होती जिसमें चोर बाजारी।
अब तक तो ऐसा हीं देखा ,
नेता जीता ,जनता हारी।
सांप नेवला लहूलुहान कर,
पैसा,ताली लिया मदारी।
जीवन के सपनों में पग-पग,
मुँह फाड़कर खड़ी लाचारी।
थककर चूर हुई नैतिकता,
जज्बातों का मन है भारी।
बदबूदार सियासत अब तो,
है दिल्ली की राजकुमारी।
राजनीति अनुबंध संधि में,
कुर्सी सबकी बारी-बारी।
27-
नकली चेहरे नकली लोग।
बिना रीढ़ बिन पसली लोग।
किनसे दिल की बात करें,
कहाँ रहे अब असली लोग।
आत्मप्रशंसा में केवल अब ,
बजा रहे कुछ डफली लोग।
दर्पण के चेहरे से डरकर,
करते उसकी चुगली लोग।
मीरा ने जब सच बोला,
बोले उनको पगली लोग।
आज सियासत की नजरों में,
फँसी जाल में मछली लोग।
शहरों में हीं मिल जाते अब,
सभ्य,सुसज्जित जंगली लोग।
28-
सोच ये कैसी घड़ी है।
हरतरफ बस हड़बड़ी हैं ।
कौन सुनता है किसी की,
सबको अपनी हीं पड़ी है।
अजनबी रिश्ते हुए सब,
त्रासदी कितनी बड़ी है।
ख्वाब देकर तोड़ देना,
सरासर धोखाधड़ी है।
हारना भी जिंदगी में,
जीत की पुख्ता कड़ी है।
29-
चेहरे पे नकाब, मत डालो।
नज़र किसी पे खराब ,मत डालो।
इश्क चेहरा है ,ख़ुदा का उस पर,
नफरत का तेज़ाब ,मत डालो।
पढ़ा बच्चों को ,मन की आँखों से,
उनमें कूड़ा -किताब ,मत डालो।
हुई बर्बाद पीढ़ियाँ कितनी,
हलक में यूँ शराब, मत डालो।
मुहब्बत, त्याग की विरासत है,
उसमें कोई हिसाब, मत डालो।
30-
जिंदगी उसकी हसीन होती है।
जिसकी अपनी जमीन होती है।
जो दिल को बाँधती है रिश्तों में,
स्नेह की डोर,महीन होती है।
कभी बासी नहीं होती खुश्बू,
सदा ताजातरीन होती है।
दुनिया के दिलों में प्यार भर दे,
वो कविता बेहतरीन होती है।
मुल्क वो खुश नहीं होता कभी भी,
जहाँ बेटी गमगीन होती है।
देश कचरे से जियादा कुछ नहीं,
जिसकी बस्ती मलीन होती है।
31-
न्याय बेईमान हो गया |
व्यर्थ संविधान हो गया |
देखकर अनीति का चलन ,
सत्य बेजुबान हो गया |
आज लोकतंत्र फिर लुटा ,
चोर फिर महान हो गया ।
आदमी अब आदमी नहीं ,
हिन्दू मुसलमान हो गया |
पेशगी उसे भी कल मिली ,
प्यादा दीवान हो गया |
32-
जबसे झूठे कथ्य, मानक हो गए |
सत्य के सिद्धांत, भ्रामक हो गए |
कौड़ियों के भाव ,जो कल तक बिके,
आज लाखों के, अचानक हो गए |
है डुबी लिप्सा में, जबसे लेखनी ,
हाशिये पर सूर ,नानक हो गए |
है कमी परिवेश, या माँ-बाप की ,
किस कदर बेटे ,भयानक हो गए |
दामिनी का दौर, निशदिन देखकर ,
दर्द से गुंफित, कथानक हो गए |
33-
वक्त का है क्या ठिकाना ,क्या से क्या हो जायेगा |
आज है जो सुर्ख़ियों में ,कल निहां हो जायेगा |
झूठ के दरबार में, सच बोलना अपराध है ,
फिर भी खुद पर रख भरोसा ,फैसला हो जायेगा |
बात अच्छी है तो, दुनिया को बताओ तुम सदा ,
लोग माने या नहीं ,पर मशविरा हो जायेगा |
सुधर जायेगी ये दुनिया ,ना कोई शिकवा -गिला ,
आदमी खुद के लिए जब ,आईना हो जाएगा |
प्यार छुपने से ,छुपाने से, भी यूँ छिपता नहीं ,
अँधेरों में सितारों-सा ,नुमायां हो जाएगा |
34-
स्वार्थ में टुच्ची औ सस्ती हो गई |
सियासत मौकापरस्ती हो गई |
हो गया मुहाल ,जीना अब यहाँ ,
हर तरफ चोरों की, बस्ती हो गई |
बेवजह गुलाम ,दिल को कर दिया ,
मन की जैसे ,जबरदस्ती हो गई |
देखकर पीड़ा, हमारी आँख में ,
उनकी जैसे, दिल की मस्ती हो गई |
भूख से पामाल थी, किस्मत कभी ,
आज वो दुनिया की हस्ती हो गई |
35-
मानव -मन की शुष्क धरा में ,प्राण जगाने आया हूँ |
अंतस के अँधियारों को ,मैं दूर भगाने आया हूँ |
निगल न जायें अँधियारे ये ,किरणों के नव स्पंदन ,
स्पंदन में जिजीविषा के, बीज उगाने आया हूँ |
सुविधाओं के पिंजरे में ,पंखों का अर्थ भूला पंछी ,
गीत उड़ानों का लेकर मैं, आज सुनाने आया हूँ |
मातृभूमि की प्रखर वंदना और मुक्ति की चाह लिए ,
भक्ति ,क्रांन्ति का पुष्प ,दीप ,नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ |
36-
भाईचारा ,प्रेम जहाँ पर,सपना है |
कैसे कह दूँ मुल्क, यहीं वो अपना है |
जहाँ सेक्स औ बलात्कार की बातें हीं ,
मीडिया ,अखबारों को, केवल जपना है |
मंत्र आज का ,दिखता है, वो बिकता है ,
इश्तेहार बन बाज़ारों में, छपना है |
जलते हुए सवालों को, हल कौन करे ,
या सदियों तक, हमको यूँ हीं तपना है |
नैतिकता औ मूल्यों की, जब बात करूँ,
कहते हैं सब, मुझमें अभी बचपना है |
37-
दिन हैं अच्छे, ये अहसास कराया जाए |
हर मुफलिस को, अब सीने से लगाया जाए |
दबे-कुचले औ शोषित, वंचितों की धरती पे ,
गिरे इस मुल्क को ,बच्चे- सा उठाया जाए |
ग़मों की आँच पे ,ज़ज्बात का मरहम रख के ,
दर्द के पाँव का, हर जख्म मिटाया जाए |
बीज इंसानियत की, इस धरा पे कायम हो ,
किसी भी हाल में ,बच्चों को बचाया जाए |
जो भी भटके हैं ,उन्हें प्यार की थपकियों से ,
धीरे-धीरे हीं सही, राह पे लाया जाए |
जाति-मजहब की, दीवारों को तोड़कर अब तो ,
प्रेम की नींव पर ,इक मुल्क बसाया जाए |
38-
धूप मतलब की नूरानी हो गई |
अब सियासत बदजुबानी हो गई |
वासना के पृष्ठ पर लिखी हुई ,
एक गन्दी-सी कहानी हो गई |
इश्क ने सीमा मिटा दी उम्र की ,
हुश्न बूढ़े की दिवानी हो गई |
देश यो यो और मुन्नी में डुबा,
गौण अब झाँसी की रानी हो गई |
कब तलक खरगोश हारेगा यहाँ ,
ये कथा कितनी पुरानी हो गई |
जो पिता सोता नहीं है रातभर ,
समझ लो बिटिया सयानी हो गई |
39-
आज़ादी के बाद देखिये, कैसे-कैसे काम हो गए |
पेटेंट सभी घोटाले-घपले, नेताओं के नाम हो गए |
मातृभूमि की आज़ादी हित ,जिसने फाँसी चूम लिया ,
राजनीति की कब्रगाह में, नाम वहीँ गुमनाम हो गए |
जाति-धर्म की दीवारों में ,कटुता के पत्थर रखकर ,
धीरे-धीरे हम सब खुद हीं ,कुर्सी के गुलाम हो गए |
जिसने पार्टी बदल-बदलकर सत्ता का सुख भोग लिया ,
उसकी तो समझो जीवन में, सुख के चारो धाम हो गए |
40-
अद्भुत अजब शिकारी पैसा |
करता चोट करारी पैसा |
कौन जीत पाया है उससे ,
सबसे बड़ा जुआरी पैसा |
किसको मिलता है जीवन में ,
बिना घूस सरकारी पैसा |
कभी जरुरत ,कभी शौक से,
करवाता मक्कारी पैसा |
क्रिकेट खेल नहीं है यारों ,
असली खेल ,खिलाड़ी पैसा |
कैसे-कैसे नाच नचाये ,
देखो आज मदारी पैसा |
क़द्र नहीं करते जो उसकी ,
करता उन्हें भिखारी पैसा |
बाजारों के दौर में देखा ,
रिश्तों पर भी भारी पैसा |
41-
शाम कभी भोर जिंदगी |
धड़कन की शोर जिंदगी |
वक्त की पतंग साधती ,
सांसों की डोर जिंदगी |
पाकर हर भाव की छुअन,
हो गई विभोर जिंदगी |
चाहतों का चाँद देखकर ,
बन गई चकोर जिंदगी |
दर्द का गुबार बन ,बही ,
आँखों की लोर जिंदगी |
लगती आसान है ,मगर ,
मौत से कठोर जिंदगी |
42-
राष्ट्रभक्ति की प्रखर चेतना ,जब से ली अँगड़ाई है |
परिवर्तन की हुँकारों से ,राजनीति घबराई है |
शासन-सत्ता ,गद्दारों ने, राष्ट्रनीति की राहों में ,
षड्यंत्रों से बुनी हुई ,इक लम्बी जाल बिछाई है |
लफ्फाजी ,हुड़दंग ,अराजकता की ,आज सियासत में ,
भ्रष्टों से मिलकर कुछ ने ,अपनी सरकार बनाई है |
शर्मिंदा है देश ,शहीदों के सपने, सब घायल हैं ,
अनाचार ने अपनी लंका ,जबसे यहाँ बसाई है |
भूख ,गरीबी के घर बैठी ,महँगाई डायन जबसे ,
आर्तनाद ,क्रन्दन से चहुँदिश, घोर उदासी छाई है |
धन-कुबेर बस सोच रहा ,धन खर्चें कहाँ जमाने में ,
हम हैं इक जो रोटी खातिर ,सारी उम्र बिताई है |
43-
मत अपना काम, अधूरा कर |
जो भी करना है ,पूरा कर |
जीवन को कर ,हँसता गुलाब ,
मत खुद को भाँग, धतूरा कर |
खोने की कुछ, परवाह ना कर ,
मन को मीरा ,तन सूरा कर |
बेटी ,बहनों की, इज्जत कर ,
मत गलत नजर से, घूरा कर |
जो काट सके, मन का बंधन ,
तू ज्ञान रश्मि को ,छूरा कर |
44-
बुरे इस वक्त की हर बात पर, चितन करें |
सियासी घात औ प्रतिघात पर, चिंतन करें |
सियासत है जहर, फ़रजंद को माँ ने बताया था ,
पैंसठ साल की हालात पर, चिंतन करें |
मच्छर कुर्सियों पर बैठकर, हाथी बने कैसे? ,
कहाँ से आ गई औकात पर, चिंतन करें |
अभी भी मुफलिसी, मुँह फाड़कर दर -दर पे बैठी है ,
दिया किसने ये सब सैगात पर, चिंतन करें |
जो नौटंकी है चालू आज ,भ्रष्टों को मिटाने की ,
चलो सत्ता की इस शाह-मात पर, चिंतन करें |
45-
बीज को जिंदगी चाहिए |
जिंदगी को जमीं चाहिए |
फूट सकें भाव की कोपलें ,
दिल में कुछ तो नमी चाहिए |
दंभ उपलब्धियों का न हो ,
हश्र में कुछ कमी चाहिए |
हो अँधेरा भले राह में ,
रोशनी में यकीं चाहिए |
बाँट ले गैर का दर्द जो ,
ऐसा इक आदमी चाहिए |
46-
थोड़ा देखो, यूँ चुपचाप भी |
इस सियासत का, घर आप भी |
यहाँ दिखते हैं ,चारो तरफ ,
आदमी की तरह, साँप भी |
मुल्क में मुफ्त, बंटने लगे ,
पानी, बिजली औ, लैपटॉप भी |
उनके वरदान से सौगुना ,
खुबसूरत है ,अभिशाप भी |
पद औ पावर के, संयोग से ,
कद से ऊँचा, दिखे नाप भी |
पुण्य का अर्थ, खोने लगा ,
आज जायज हुआ, पाप भी |
एक नेता ने, माँ खोज ली ,
खोज ले इक अदद, बाप भी |
जिंदगी है, मुकम्मल तभी ,
सुख के संग जब हो, संताप भी|
47-
मान रहा कुछ बाधाएँ हैं, दिल्ली में |
बाकिर सब तो, सुविधायें हैं, दिल्ली में |
गाँव हमारा, दिल्ली जैसा कब होगा ,
लगी निगाहें ,आशायें हैं, दिल्ली में |
गिरवी पड़ी जमाने से ,देखी हमने,
गाँवों की सब कवितायें हैं ,दिल्ली में |
लूट रहे सब देश ,तरीके अलग-अलग ,
तरह-तरह की प्रतिभाएँ हैं ,दिल्ली में |
महज जुर्म औ बलात्कार से सम्बंधित ,
मीडिया देती सूचनायें हैं, दिल्ली में |
माँ बूढ़ी -सी ,पर आंटी के चेहरे पर ,
सेव सरीखी, आभाएँ हैं ,दिल्ली में |
पश्चिम की नंगी ,अधनंगी संस्कृति की,
सूर्पनखा -सी, महिलाएं हैं, दिल्ली में |
सच कहना अब, जुर्म हो गया है यारों ,
धाराओं पे, धाराएँ हैं, दिल्ली में |
48-
समय करवट बदलता किस कदर है |
खबर जो छापता था ,खुद खबर है |
सही इंसान की पहचान मुश्किल ,
भरोसे में भरा कितना जहर है |
बहर बस ढूढ़ते हैं वे ग़ज़ल में ,
दिलों के दर्द से जो बेखबर हैं |
जहाँ से हादसों का दौर आए ,
समझ लो आ गया कोई शहर है |
कोई लमहा ना यूँ बेकार जाए ,
वक्त इस जिंदगी का मुख़्तसर है |
पता ना मर्ज क्या है दिल में उनके ,
अभी भी हर दवा यूँ बेअसर है |
सितमगर था जो मेरी जिंदगी का ,
वहीँ अब न्याय का भी ताजवर है |
49-
खबर के नाम पर मीडिया ,जहाँ बाज़ार हो जाए |
क्या होगा घोटालों की जहाँ सरकार हो जाए |
वहाँ घुट -घुट के मरने के सिवा, अब रास्ता है क्या ,
जहाँ आतंक ,हत्या ,जुर्म कारोबार हो जाए|
भगत ,आज़ाद, विस्मिल- सा, हमारे भव्य भारत में
धरा की कोंख से कोई, पुनः अवतार हो जाए|
हो रहा मुल्क में षड़यंत्र, शेरों को मिटाने की ,
कि फिर सत्तानशीं इक बार रँगा स्यार हो जाए |
विवादों को मिटाकर ,धर्म ,मजहब ,जाति का यारों ,
करो संवाद तो ये मुल्क, एकाकार हो जाए |
नई तस्वीर अपने मुल्क की, गर चाहते हो तुम ,
नई सरकार चुनने के लिए, हुँकार हो जाए |
50-
गर्दनें कट रहीं हैं ख्वाब की, फसल की तरह |
जिंदगी लग रही है आज, महज पल की तरह |
मौत का हादिसा अब, हादिसा नहीं लगता ,
मर्सिया पढ़ रहे हैं लोग, अब ग़ज़ल की तरह |
झोपड़ी में हीं कैद हो के, रह गए रिश्ते ,
अजनबी हैं यहाँ सब, शहर के महल की तरह |
जिंदगी जी रहे हैं लोग, कई किश्तों में ,
कभी नदियों तो कभी थार की, मरुथल की तरह |
दिन में वे बाँटते, तहज़ीब की लम्बी चादर ,
रात होती है जिनकी बार में, जंगल की तरह |
51-
चाहे जो भी सज़ा दीजिए |
दर्दे दिल को बता दीजिए |
माफ़ करके खता सब मेरी ,
मुझको अपना बना लीजिये |
आप नाखुश कब तक रहें फिर ,
दिल किसी का दुखा दीजिए |
खो गया गर हो दिल आपका ,
दिल किसी का चुरा लीजिए|
पास आए अगर हुश्न कोई ,
इश्के तोहमत लगा दीजिए |
गर मेरे घर की परवा नहीं ,
तो दूसरा घर बसा लीजिए|
52-
कभी-कभी सोचा करता हूँ ,बैठे यहाँ अकेले में |
बाँच रहा अपनी कवितायें क्या भैंसों के मेले में ?
बड़े-बड़े सब चले गए, समझा कर दुनिया वालों को ,
वैसी की वैसी दुनिया है ,अब भी पड़ी झमेले में |
ज्ञानी अब विज्ञानी बनकर, शैतानी चालें चलता ,
इंसानी ताकत बंधक है ,बदबूदार तबेले में |
रिश्तों की सच्चाई देखी ,स्वार्थ भरी इस दुनिया में ,
कड़वाहट भी रिश्ते रखते , देखा नीम-करेले में|
गीता ,सीता ,राम,कृष्ण की बातें सब बेकार हुईं ,
बहते सारे लोग यहाँ अब ,भौतिकता के रेले में|
53-
आप-सा पोषण-भरण कैसे करूँ |
और उसका अनुसरण कैसे करूँ |
आपने दिल में बिठाया भेडिया,
भेडिया -सा आचरण कैसे करूँ |
ताक में है देशद्रोही देश का ,
शांति का मैं अपहरण कैसे करूँ |
चाहता हूँ गम की बस्ती में सदा ,
मैं ख़ुशी का संचरण कैसे करूँ |
रूप में खोया हुआ दर्पण कहे ,
लोभ का मैं संवरण कैसे करूँ |
54-
अग्निपथ पर मैं सदा बढ़ता रहा हूँ |
दर्द का हर ताप मैं सहता रहा हूँ |
शा 'जहाँ उँगुली ये एक दिन देगा,
जानकर भी ताज मैं गढ़ता रहा हूँ |
जब भी सूरज डूबता घनघोर तम में ,
दीप बनकर रातभर जलता रहा हूँ |
मैं समंदर सा कभी ठहरा नहीं हूँ ,
मैं हूँ दरिया निरंतर बहता रहा हूँ |
बंदिशें जब भी लगीं अभिव्यक्तियों पर ,
सत्य फिर नज़रों से मैं कहता रहा हूँ |
जीत का दुनिया मनाती जश्न कितना ,
हारकर भी मैं सदा हँसता रहा हूँ |
55-
आँखों में यहीं सुलगते, सवाल खड़े हैं |
कुछ लोग हीं क्यों देश में , खुशहाल खड़े हैं ?
पैंसठ बरस के बाद भी, इन्साफ के लिए
क्यों आम लोग हीं यहाँ, फटेहाल खड़े हैं ?
कौड़ी का आदमी था ,संसद गया जबसे ,
सुना शहर में उसके, कई माँल खड़े हैं |
किस भाँति देश बेचना, तरकीब सोचते ,
पग-पग पे यहाँ देखिये, दलाल खड़े हैं |
कुर्सी की साजिशों का, परिणाम देखिये ,
सर्वत्र जाति-धर्म के, दीवाल खड़े हैं |
कैसे उगेगा प्यार का पौधा, बताइए ,
दिल में घृणा के बरगद, जब पाल खड़े हैं |
56-
हमारा बोलना उनको कभी अच्छा नहीं लगता ,
हमारी चुप्पियाँ उनको कभी सोने नहीं देतीं |
हमारी सुर्खियाँ सच की उन्हें जब घेर लेती हैं ,
जो उनकी झूठ औ साजिश सफल होने नहीं देती |
हमें वो जख्म देकर मुस्कुराते हैं ,मुझे मालूम ,
मगर ये जिद है मेरी कि मुझे रोने नहीं देती |
बुझाती प्यास अपनी जब लहू से मज़हबी खंजर ,
अमन का बीज गुलशन में कभी बोने नहीं देती |
हमेशा कुर्सियां इतिहास अपने पक्ष में लिखतीं ,
जो अपने जुर्म को जाहिर कभी होने नहीं देतीं |
57-
चलो ,......तो फिर चलते हैं |
फिर कभी ,कहीं मिलते हैं |
मुहब्बत ....संभाल के रखना ,
ये यादों में ......पलते हैं |
मोम पिघलते हैं ,मिटते नहीं ,
अक्सर धागे हीं जलते हैं |
रूप पर इतराना ठीक नहीं ,
उम्र ढलान है ,सब ढलते हैं |
भौरों से पूछो उनका मकसद ,
ठिकाना रोज क्यों बदलते हैं ?
58-
सुविधाओं की जिज्ञासा में ज्ञान कहाँ मिलता हैं |
श्रद्धाहीन जगत में अब भगवान् कहाँ मिलता है |
पत्थर पूज रही है दुनिया ,इसका कारण एक यहीं ,
अब दुनिया में पूज्यपाद इंसान कहाँ मिलता है |
हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख,ईसाई ,सब मिलते हैं टुकड़ों में ,
पूछ रहा हूँ सबका हिन्दुस्तान कहाँ मिलता है |
जाति-धर्म के घृणा गीत अब मंचों से गाये जाते ,
इंसानी जज्बों का अद्भुत गान कहाँ मिलता है |
शिवि,दधीचि की त्यागमयी,निःस्वार्थमयी इस धरती पर ,
मानवता हित बिना छूट अब दान कहाँ मिलता है |
रावण अब भी सजा रहा है अनाचार की लंका को ,
जला सके जो लंका वो हनुमान कहाँ मिलता है।
59-
कुछ ख़ुशी तो कुछ गम, पसंद करते हैं |
कुछ फूल कुछ शबनम, पसंद करते हैं |
जिसे भी चाहते हैं, जिंदगी में हम यारों ,
बहुत से लोग उसको कम, पसंद करते हैं |
हाँ में हाँ मिलाने की, कला में माहिर जो ,
उसे हर बादशा हरदम, पसंद करते हैं |
मिटटी के खिलौने ,मिट्टियों में मिल चुके अब ,
बच्चे खेल में गन ,बम, पसंद करते हैं |
किसी को आदमी में ,देवता दिखता नहीं है ,
यहाँ अब लोग दैरो -हरम, पसंद करते हैं |
60-
चाहता हूँ आदमी हूँ ,आदमी बनकर रहूँ |
जिंदगी भर जुल्म के, प्रतिपक्ष में तनकर रहूँ |
प्रेम का एक भव्य मंदिर, बन सके इस मुल्क में ,
या खुदा मैं एक पत्थर, नींव का बनकर रहूँ |
तितलियों-सा,फूल-सा,खुश्बू से तर करके चमन ,
हर हृदय में मैं , मधुर गुंजार का मधुकर रहूँ |
जुगनुओं-सा हौसला, देता रहूँ मैं रात भर ,
मैं उजालों की किरन का, एक अदद बूनकर रहूँ |
आज कोई आ रहा क्या, तुझसे मिलने के लिए,
आईना ये पूछता ,जब भी मैं बन-ठनकर रहूँ |
61-
वजह क्या है कि ऐसा, काम करना चाहते हो |
मुझे हर वक्त क्यूँ ,बदनाम करना चाहते हो |
मिटाकर नाम मेरा, क्यूँ समय की पट्टी से ,
बिना संघर्ष अपने, नाम करना चाहते हो |
उजालों पे हमारे, पोतकर अँधेरा क्यों ,
हमारी हसरतों की, शाम करना चाहते हो |
बोकर नागफनियाँ ,जिंदगी के आँगन में ,
फूल की सेज पर, आराम करना चाहते हो |
पीठ पर दोस्ती की ,रखकर खंजर क्यों ,
हासिल इस तरह, मुकाम करना चाहते हो |
62-
कौन कहता है कि वह दूर, नज़र आता है |
देखना चाहो तो जरुर, नज़र आता है |
दिल में इक प्यार का चिराग, जला कर देखो ,
खुदा का अक्स भी भरपूर, नज़र आता है |
खा रहा आदमी को आदमी, सियासत में ,
चेहरा कुर्सियों का क्रूर, नज़र आता है |
बेटे के नाम पर तो बाप की, छाती चौड़ी ,
बेटी के नाम पर मजबूर, नज़र आता है |
जिनका बाज़ार में इश्तेहार बड़ा है जितना ,
आज उतना हीं वो मशहूर, नज़र आता है |
63-
अपने ख्वाब जीवन के सलोना ढूढ़ते है |
जिन्हें भी नींद आती है बिछौना ढूढ़ते हैं |
मुफलिसी लाख हो पर बस्तियों में आज भी बच्चे ,
उन्हें देखा कबाड़ों में खिलौना ढूढ़ते हैं |
ख़बरों से उन्हें क्या वास्ता ,अखबार में बच्चे ,
सुबह में गुदगुदे कार्टून कोना ढूढ़ते हैं |
दिखने के लिए ऊँचा व शोहरत के लिए कितना ,
जमाने में तरीका हम घिनौना ढूढ़ते हैं |
मिटटी में मिलाकर देश को ,इस देश के नेता ,
सियासत के खदानों में ,वे सोना ढूढ़ते हैं |
64-
अपने शौक को महँगा,कोई सस्ता बनाता है |
कोई कठिनाईयों के बीच भी रस्ता बनाता है |
अपने गाँव के दर्जी को हमने आज भी देखा ,
बच्चों के लिए स्कूल का बस्ता बनाता है |
यहाँ पर मुफलिसों की झोपड़ी में रात बिता कर ,
सियासत दां करोड़ों का सदा भत्ता बनाता है |
कभी ईमान ,साहस धैर्य का हथियार बनाकर ,
अकेला आदमी संघर्ष का दस्ता बनाता है |
जिसे सौंपा था हमने मुल्क हिन्दुस्तान ये सारा ,
वहीं इस मुल्क की हालात को खस्ता बनाता है |
सुबह में मुस्कुराते फूल चमकते ओस बूंदों से ,
सूर्य के आगमन पर शज़र गुलदस्ता बनाता है |
65-
संकल्पों से निशदिन आँखें चार करो |
अपने नेक इरादों से खुद प्यार करो।
दुनिया क्या कहती है ,ये परवाह न कर,
दिल जो कहता है ,उसके अनुसार करो |
सूरज पैदा कर मन के गलियारों में ,
अंधियारों पर बेदर्दी से वार करो |
जीवन की सच्चाई से मुख मोड़ नहीं ,
संघर्षों के संग जीना स्वीकार करो |
लक्ष्य भेद करने का केवल मंत्र यहीं ,
शांत चित् हो मन को एकाकार करो।
है गुनाह गर प्यार आदमी से करना ,
तो 'मनोज' जीवन में बारंबार करो |
66-
केवल अपनी खाल बचाना, उनकी आदत |
दूसरों पर इल्जाम लगाना, उनकी आदत |
प्रेम मुहब्बत महज खेल है, उनकी खातिर ,
रिश्तों में भी गणित लगाना, उनकी आदत |
मैनें सोचा बचा लिया है, उसने मुझको ,
बचने पर पल-पल मुरझाना ,उनकी आदत |
स्वार्थ पूर्ति में विश्वासों का, जाल बिछा कर ,
विश्वासों पर घात लगाना ,उनकी आदत |
सच्चाई से आँख मूंदकर, कौन बचा है ,
मुर्गे -सी हरकत बचकाना ,उनकी आदत |
67-
सामने उनके कभी, रोता नहीं जब |
दर्द में भी धैर्य को, खोता नहीं जब |
वक्र होती त्योरियाँ ,देखी हैं उनकी ,
प्रार्थना के शिल्प में, होता नहीं जब |
उसे क्या मालूम, समंदर पार करना ,
जो लगाया है कभी, गोता नहीं जब |
लक्ष्य तो पाया वहीं , जो जिंदगी में ,
साधना की राह पर ,सोता नहीं जब |
कैसे कटेगा, घृणा की खेत से तू ,
प्रेम की फसलें कभी, बोता नहीं जब|
68-
जहर भी तब तलक, जहर नहीं होता |
मुकम्मल जब तलक, असर नहीं होता |
ग़मों की आँच पर, आँसू अगर नहीं उबले ,
ऐसे इंसान में समझो, जिगर नहीं होता |
बिना अहसास के, ये जिंदगी अधूरी है ,
कोई मकाँ जैसे एक, घर नहीं होता |
चरागे इश्क दिल में, जो भी जला लेता है ,
उसे तो मौत से भी, डर नहीं होता |
जिसमें हौसला है आसमां को चूमनेकी,
उसकी उड़ान को जरूरी, पर नहीं होता |
.पा के दुनिया भर की दौलत भी 'मनोज '
क्यों जिंदगी में इंसान का गुजर नहीं होता।
69-
कर सके फिर से निर्बल से चंगा तुम्हें |
भेंट करता हूँ छंदों की गंगा तुम्हें |
जो शहीदों की कुर्बानियों से मिला ,
गर्व से झूमता एक तिरंगा तुम्हें |
जिनकी साज़िश से गुलाम है भारती ,
ऐसे चेहरों को करना है नंगा तुम्हें |
जाति ,भाषा तथा धर्म के नाम पर ,
रोकना है यहाँ आज दंगा तुम्हें |
आज संकल्प की मुट्ठियाँ भींच लो ,
दुश्मनों से भी लेना है पंगा तुम्हें |
70-
मेरी तन्हाईयों में याद बनकर, तू हीं क्यों आता |
ख्वाबों में मेरे एक चाँद बनकर, तू हीं क्यों आता |
बता दे हे अलौकिक चेतना, मेरे ह्रदय में तू ,
सुरीली बाँसुरी अनुनाद बनकर, तू हीं क्यों आता |
समझ जब भी थकी मेरी, बताने को मुझे फिर भी ,
सहज अहसास- सा अनुवाद बनकर ,तू हीं क्यों आता |
टूटे रिश्ते हैं जब औ शब्द सारे, मौन बैठे हैं ,
मेरे शब्दों में फिर संवाद बनकर, तू हीं क्यों आता |
मुहब्बत की रूहानी औ रूमानी, रूप लेकर तू ,
शीरी के गाँव में फरहाद बनकर, तू हीं क्यों आता |
सृजन की क्यारियाँ अंतस में, जब भी शुष्क हो जातीं ,
उगाने को नया कुछ, खाद बनकर ,तू हीं क्यों आता |
71-
जवां-जवां सा एक खुमार ,उनकी नज़रों में है |
कुछ मुहब्बत ,कुछ करार ,उनकी नज़रो में है |
कब से पलकें बिछा के, अपने दर पे बैठे वो ,
एक बेसब्र इंतज़ार ,उनकी नज़रों में है |
गुनगुनी धूप-सी मुस्कान की लकीरों में ,
दिख रहा प्यार का इजहार, उनकी नज़रों में है |
पाँव पड़ते नहीं, सीधे ज़मीं पे देखो ना ,
अल्हडी उम्र का इक भार, उनकी नज़रों में है |
इक चंचल हिरन को, कैद करके रखा है ,
एक मज़बूत कारागार, उनकी नज़रों में है |
तोड़ देती हरेक बांध, सबके संयम की ,
एक सैलाब- सी रफ़्तार ,उनकी नज़रों में है |
मिलाकर नज़र उनसे, मैंने सोचा दूर हो लूँ ,
उलझ कर रह गए हर बार ,उनकी नज़रों में हैं |
72-
अजनबी-सा शहर ये जब से बसा है |
इस शहर में हादसा ही हादसा है |
कोई भी दिखता नहीं अपना यहाँ पर ,
भीड़ में हर आदमी तनहा फँसा है |
रोशनी की आँख में तेज़ाब बोकर ,
अब अन्धेरा बस्तियों में आ बसा है |
साँप की अब अहमियत को ख़त्म करके ,
आदमी ने आदमी को खुद डंसा है |
खौफ के साए में भी मैंने सूना है ,
एक बच्चा कहीं पर खुलकर हँसा है |
73-
अपना -अपना, यहाँ मुहल्ला है |
कहीं पे राम, तो कहीं अल्ला है |
अब तो इंसाँ, सियासत के हाथों ,
कभी गेंद तो, कभी बल्ला है |
शहीद हो गए वो, सरहदों पे ,
न कोई कैंडिल है , न हल्ला है |
जिंदगी मकान है, अब सरकारी ,
न चौखट है जिसमें,न पल्ला है |
मुफलिसी ,भूख की अब आँखों में ,
ग़मज़दा आंसुओं का, छल्ला है
74-
भौतिकता को जीवन में, इस तरह उतारा जाता है ।
संस्कार की बात करे जो ,उसे नकारा जाता है ।
बेशर्मी के दौर में यारों ,बात अदब की क्या करना ,
नंगेपन की बात करे जो ,उसे सँवारा जाता है ।
आज सियासत की बस्ती में ,कुर्सी की हर थाली में ,
आम आदमी के सपनों को ,रोज डकारा जाता है।
जिस औरत को माँ ,बेटी औ देवी का सद रूप दिया ,
किस कारण से कोंख में उसको,निशदिन मारा जाता है ।
प्रगतिशीलता ने डिस्को ,पब ,रेव पार्टियाँ जब से दीं ,
रंगरलियों में भद्रजनों का समय गुजारा जाता है ।
रिश्तों को अब नोंच -नोंच कर खाने का है आम चलन ,
विश्वासों का सरल सिपाही ,अक्सर मारा जाता है ।
नैतिकता ,ईमान ,त्याग ,तहज़ीब कलम की ताकत से ,
है गवाह इतिहास यहाँ ,हर दौर सुधारा जाता है ।
75-
सत्य की रक्षार्थ हीं इस देश में ,
कृष्ण की वाणी कभी गीता बनी ।
क्रौंचनी के रुदन का अहसास कर ,
आदिकवि विह्वल हुआ ,कविता बनी ।
शुचिता को सिद्ध करती अग्नि में ,
क्यों यहाँ हर काल में सीता बनी ।
दामिनी के दर्द में बहती हुई,
लेखनी भी शोक की सरिता बनी ।
76-
मधुर -मधुर होते हैं रिश्ते ,
खट्टे हों तो दिल में रिसते ।
रिश्ते खुशबूदार बनें तो ,
महके जीवन के गुलदस्ते ।
रिश्ते प्रेम नगर में मिलते ,
सबसे सरस मुलायम सस्ते ।
रिश्तों में विश्वास रहे तो ,
कटता जीवन हँसते -हँसते ।
77-
फिर से दुर्गा का यहाँ अवतार हो ।
फिर से दनुजों का यहाँ संहार हो ।
मातृशक्ति हस्त में फिर से यहाँ ,
चूड़ियों की जगह अब तलवार हो ।
लेखनी वह धन्य है जिसमें सदा ,
जागरण का आमरण हुँकार हो ।
माँ, बहन, बेटी भी होती नारियाँ ,
उनकी श्रद्धा, स्नेह का श्रृंगार हो ।
आत्मा क्यों मर रही इंसान की ,
सोचिये ,किस तरह का आचार हो ।
गंदे मन को साफ़ कर के प्रण करें ,
अब ना कोई दामिनी शिकार हो ।
फैसला ना दे सके संसद अगर ,
फैसला कर किसकी अब सरकार हो।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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