वन्दे मातरम्!मित्रो! आचार्य राजशेखर ने काव्य प्रतिभा के दो रूपों को स्वीकार किया।
‘‘सा च द्विधा कारयित्री भावयित्री च।
अर्थात् कवि के लिए आवश्यक होती है कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा। वस्तुतः यहाँ कवि और कविमर्मज्ञ में वही अन्तर है जो अन्तर ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तत्पर व्यक्ति और ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति में है। वस्तुतः काव्यरूपी ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुका व्यक्ति ही काव्य का मर्मज्ञ(आलोचक) हो सकता है और उसका कारण यह भावयित्री प्रतिभा ही है।लेकिन आज आलोचक की निष्पक्ष भूमिका संदिग्ध है। वह सहजता को ठगी का शिकार बनाने में अपनी प्रतिभा का प्रयोग कर रहा है।मेरी एक रचना इसी भाव पर आधारित है।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि सहज,तुम आलोचक।।
1
क्यों कविमर्मज्ञ का कर्म आज।
सुनकर आती है हमें लाज।
ज्यों गौरैयों पर टूट पड़े,
हिंसक भक्षक दुर्दांत बाज।
सदियों से घायल कवि कहता,
क्यों शोषित मैं,तुम हो शोषक।।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि सहज,तुम आलोचक।।
2
तेरे हाथों में छाप यंत्र।
तुम ही विक्रय के विज्ञ मंत्र।
तुम साधन साधक स्वयं देव!
अद्भुत खूबियों से भरे तंत्र।
खुद लोकार्पण का ले प्रभार,
बाजार बनाते हो रोचक।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि सहज,तुम आलोचक।।
3
तुम लाभांशों का योग देख।
किसको छापूँ उद्योग देख।
रचना कैसी हो फर्क नहीं,
छपतीं आमद,उपभोग देख।
अंधी स्पर्धा के युग के
तुम सफल आज इक संयोजक।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि सहज,तुम आलोचक।।
4
जब उठती लहरें स्वाभाविक।
हिलती नावें हिलता नाविक।
कवि भी तन्मय होकर झूमता,
पाकर कविता का मधु मानिक।
जब अनासक्त कवि होता है,
कविता होती उसकी प्रेरक।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि सहज,तुम आलोचक।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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