वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा गजल हाजिर है। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।
रहा है क्या हमेशा से हीं,ये ऐसा ज़माना।
किताबें लिखना,खुद बेचना, मेला लगाना।
जब से बाज़ार का है दौर,सब कुछ बिक रहा है,
शहर की रद्दियाँ भी,जानतीं शोहरत कमाना।
लाख पतझर चमन में,जुल्म ढाता हैं गुलों पर,
मगर वो आज तक,छोड़े नहीं हैं मुस्कुराना।
धूप आती नहीं है ,आजकल आँगन में मेरे,
धुंध कुहरे का अपना,कुछ न कुछ करके बहाना।
सृजन का ताज गढ़ता हूँ,हकीकत जानकर भी,
शा'जहाँ काट देगा हाथ,एकदिन क्या ठिकाना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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