वन्दे मातरम्!मित्रो,आज एक गजल के साथ हाजिर हूँ। आपका स्नेह अपेक्षित है।
दोस्त ऐसा था जिसके,दिल में भी दिमाग निकला।
जिस्म इंसान का,पर आचरण से नाग निकला।
जो कहते थे धुले हैं,गंगाजल से आज उनके,
मन की चादर पे देखा,बदनुमा हर दाग निकला।
अगर आवाज न करता,तो छुपा रह जाता,
जिसे कोयल समझता था,असल में काग निकला।
मुझे आगे वो करके,चाहता था मार देना,
मगर सौभाग्य था कि,भीड़ से मैं भाग निकला।
जो दिखता था इरादों से,मुझे फौलाद जैसा,
कसौटी पर बुरे हर वक्त में,बस झाग निकला।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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