Wednesday, April 20, 2016

कुण्डलिया

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज एक समसामयिक  कुण्डलिया आपको समर्पित कर रहा हूँ। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

                   कुण्डलिया
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कैंसर कह या एड्स कह,जिसकी मोटी खाल।
राजनीति का बेवड़ा,मिस्टर खुजलीवाल।
मिस्टर खुजलीवाल,झूठ का बड़ा पुलिंदा।
जिससे संभल न पाती दिल्ली,चला भटिंडा।
नक्सल,आतंकवाद समर्थक, पर हो सेंसर।
देशद्रोह का फैलाता,ये निशदिन कैंसर।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

मित्रो!राष्ट्रवादियों को चेतने का समय आ गया है।कितने पाकिस्तानी भारत के अन्दर हैं,अब पता चल रहा है जबसे देश में राष्ट्रवादी सरकार है।

बेनामी रंजिशें चारो तरफ।
हो रही साजिशें चारो तरफ।
मुल्क को तोड़ने की एक सूत्री,
चल रहीं कोशिशें चारो तरफ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

आह्वान गीत

वन्दे मातरम्! मित्रो!मेरी एक रचना जो सामयिक सन्दर्भों पर आधारित है। आह्वान गीत के रूप में समर्पित है।अगर रचना आपको अच्छी लगे तो स्नेह सादर अपेक्षित है।

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   आह्वान गीत
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राष्ट्रचेतना की जागृति का,
नारा अनुपम श्रेष्ठतम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।।

शस्य श्यामला मातृभूमि का
निशदिन अभिनव गान करें।
मृदूनि कुसुमादपि भावों से,
नित्य नवल अभिधान करें।
हृदय-कुंज के भाव-सेज पर,
रखकर अक्षत चंदनम।
भारत माता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।

विभवशालिनी,शरणदायिनी,
मातृभूमि है दयामयी।
अमृत से भरपूर हृदय से,
क्षमामयी,वात्सल्यमयी।
प्राण समर्पित करें सदा हम,
यहीं रहे कर्तव्य परम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।

पावन ध्वज ये सदा तिरंगा,
गगन श्रृंग लहराए।
संस्कृति की गौरव गाथा का,
शौर्यगान दुहराए।
नई ऊँचाई छूने खातिर,
आगे बढ़ते रहें कदम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।

देशद्रोहियों के जीवन में,
मचा सकें हम घोर प्रलय।
देश छोड़कर भागें या फिर,
बोलें भारत माँ की जय।
एक राष्ट्र ,एक ध्वज,एक भाषा,
हो पहचान यहीं अनुपम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Tuesday, April 12, 2016

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गजल आपको समर्पित करता हूँ।स्नेह दीजिये।

गूंगे,बहरे से,खोखले चेहरे।
छिपे परतों में,दोगले चेहरे।

मंसूबे नेक नहीं हैं जिनके,
दिखने में मगर ,भले चेहरे।

सियासत खा गई इंसानियत को,
भूख की आग पर, तले चेहरे।

घृणा के रूप की,किस्सा सुनाते,
मुहब्बत के डरे, जले चेहरे।

मुफलिसी,दर्द,मातम जिंदगी में,
कभी समझेंगे क्या,खिले चेहरे?

डॉ मनोज कुमार सिंह

Monday, April 4, 2016

गजल

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गजल,जो युगीन संदर्भो से प्रेरित है,समर्पित करता हूँ। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है। टिप्पणी अवश्य दें।

हम न हिन्दू  कभी,न मुसलमान के हैं।
हम हैं इंसान महज,पक्षधर इंसान के हैं।

जब से बोला है हमने,खुरदुरा सच,
जहर की बस्ती में,मौसम तूफ़ान के हैं।

न्याय के देश में,अन्याय चल नहीं सकता,
सब बराबर हैं ,कथन संविधान के हैं।

कुर्सी सत्ता की, महज चाहत में,
देश को तोड़ना,हिस्सा तेरे ईमान के हैं।

सुनो ना'पाक',बंगलादेशियो के कारकूनों,
मिटा देंगे तेरी साजिश,हम हिन्दुस्तान के हैं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Sunday, April 3, 2016

ढोल,गंवार,शुद्र,पशु,नारी:एकविमर्श

वन्दे मातरम्! मित्रो ! ऐसे ही कुछ हो जाए चर्चा। विषय ले लेते हैं-
ढोल,गंवार,शुद्र,पशु,नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।
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हिंदी में दो शब्द 'ताड़ना 'और 'प्रताड़ना' अलग अलग अस्तित्व रखते हैं। 'प्रताड़ना' का अर्थ होता है- परपीड़ा।ताड़ना बहुअर्थी शब्द है जिसके बोलचाल में उपयोग होते हैं:- साधना, तानना, नजर जमाना, निशाना लगाना, नियंत्रित रखना इत्यादि। अब इस चौपाई के सन्दर्भ में इसका अर्थ देखते हैं-
1 ढोल:- यदि ठीक से रस्सियाँ खिंच कर सही सुर पर नहीं लाया जाएगा तो वह सही स्वर नहीं निकालेगा.
2 गंवार: -जिसे सही गलत का बोध नहीं है यदि उसे नियंत्रित रखने की आवश्यकता होती है. उसे बताना होता है की सही क्या है और गलत क्या जैसे की हम बच्चों को रखते हैं.
3 शूद्र: -वह व्यक्ति होता है. जो न तो ज्ञान प्राप्त कर ब्राहमण बन सका, न उसमे क्षत्रिय की तरह वीरता है और न वनिक बुद्धि है व्यापार कर धन अर्जन करने की. तो वह  केवल समाज के बचे हुए सेवा कार्य हाथ में लेकर जीविका कमाता है. यदि आप उसे उचित सेवा कार्य नहीं देकर खुला छोड़ेंगे तो जो व्यक्ति कमा नहीं सकता जिसके पास कोई कला, ज्ञान नहीं है, वह क्या करेगा? दूसरों को लूटेगा, गुंडागर्दी करेगा. अतः समाज में इस घटक को नियंत्रित रखना अति आवश्यक है. भारत में शायद आवारागर्दी की दफा इसी भावना का प्रतीक है  ,जिसके तहत पुलिस किसी भी व्यक्ति को इसलिए गिरफ्तार कर सकती है कि वह लावारिस है. विदेशों में भी बेरोजगार लोगों को बेरोजगारी भत्ता देने का प्रावधान है।
4 पशु:- स्वभाव से ही बुद्धि रहित होता है। यदि आप किसी पशु पालक के साथ रहे हों तो पता लगेगा कि गाय कुत्ता आदि को बचपन से ही जैसा सिखाया जाता वैसा उनका स्वभाव हो जाता है बड़े होकर उसमे परिवर्तन नहीं लाया जा सकता तो इसलिए उन्हें बचपन से ही सिखाया जाता है और आदत डाली जाती है कि कैसा व्यवहार करना है। जो यहाँ ताड़ना का अर्थ है न कि पशु अत्याचार।
5 नारी:-जहाँ भी नारी शब्द आता  है वह पत्नी के अर्थ में होता है। स्त्री स्वभाव से ही त्याग व समर्पण के भाव से युक्त होती है। जब बात विवाह की आती है स्त्री चाहती है अपना शरीर मन आत्मा किसी ऐसे व्यक्ति को समर्पित करे जो अधिकारी हो जो इसे संभाल सके न की किसी कापुरुष को। तो यहाँ ताड़ना का अर्थ अपनी पत्नी की इच्छाओं को समझकर उसकी पूर्ति करने का है। क्या कोई भी स्त्री ऐसे पति के साथ रहना चाहेगी जो उसके मनोभाव न समझ सके. स्त्री पुरुष सम्बन्ध की अधिक व्याख्या आप चाहें तो मैं  अलग से शास्त्रों का सन्दर्भ दे सकता हूँ ।इसमें न तो अत्याचार की बात नहीं अपितु आदर्श व सुखपूर्ण रिश्ते की बात है।

आप क्या अर्थ लगाते हैं?कृपया स्पष्ट करें। वामपंथियों ने तो तुलसी के इस चौपाई का आज तक गलत व्याख्या ही प्रस्तुत की है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

सुन लो अफजल औ माओ की संतानो ।
ज़रा सियाचिन में जाकर सीना तानो।
देश विरोधी नारों से क्या होगा,
पहचान चुका है देश,तुम्हें हैवानों।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!करोड़ो भारतीयों की भावना को, जो अपने मन में रखता है उसे शब्द देना चाहता हूँ।क्या आप भी ऐसा ही भाव रखते हैं?अफजल गैंग, महिषासुर, माओ और स्टालिन के मानसपुत्रों के लिए ऐसी भावना से छूट दी जाती है।

मुझमें बहता है सदा,भारत माँ का रक्त।
माँ चरणों का दास हूँ,चरण-धूलि का भक्त।
चरण-धूलि का भक्त,रहूँ मैं हरदम सच्चा।
खेलूँ तेरी गोद में,हे माँ! बनकर बच्चा।
कहे मनोज अपमान,नहीं माँ का मैं सहता।
माँ का अमृत स्नेह,सदा है मुझमें बहता।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

'दलित' महज एक राजनीतिक शब्द

वन्दे भारतमातरम्!क्या दलित केवल सियासत के लिए मोहरा भर है?पढ़िये और अपनी सार्थक टिप्पणी से अवश्य अवगत कराएँ।

'दलित' महज एक राजनीतिक शब्द
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आज के समय में लोग लाभ लेने के लिए जाति मजहब का ढाल ओढ़कर देश को चूना लगाने में देर नहीं लगाते। आइये एक राजनीतिक शब्द 'दलित'पर चर्चा करते हैं।
'दलित' यह एक ऐसा शब्द है जिसने देश को बाँटना शुरू कर दिया है,  अब से कुछ वर्ष पहले तक लोग अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते थे लोग चाहते थे कि उन्हें उनके नाम से जाना जाए, इसके लिए उन्हें कठोर परिश्रम, अनगिनत मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता था किंतु जब वो समाज में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो जाते तो जो संतुष्टि उन्हें प्राप्त होती उसकी अनुभूति अवर्णनीय होती....निःसंदेह कठोर परिश्रम के बाद प्राप्त सफलता का अलग ही सुख होता है | मेरा अनुभव कहता है कि हर व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत पहचान अधिक प्रिय होती है, कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पहचान खोकर एक वर्ग विशेष के नाम से पहचाने जाने को अधिक सम्माननीय नहीं समझता और सम्मान किसे प्रिय नहीं होता? हममें से अधिकतर लोगों ने अपने विद्यार्थी जीवन में महादेवी वर्मा की एक कृति पढ़ी होगी 'गिल्लू' जिसमें लेखिका ने गिलहरी के बच्चे को पाला और उसको नाम दिया 'गिल्लू' | एक स्थान पर लिखा है 'गिल्लू' जो अब तक जातिवाचक था 'गिल्लू' नाम मिलते ही व्यक्तिवाचक हो गया' इसे पढ़कर वास्तव में ऐसा महसूस होता है कि गिल्लू अपने समकक्ष प्राणियों यानि अन्य गिलहरियों से श्रेष्ठ हो गया है| विचारणीय है कि जब एक बेजुबान अदना से जीव मात्र के लिए उसका व्यक्तिगत नाम इतना महत्वपूर्ण हो सकता है तो मनुष्य के लिए क्यों नही? परंतु आजकल तो एक अलग ही लहर चल पड़ी है- 'दलित' कहलाने की... यदि समाज में किसी व्यक्ति को दलित कह कर संबोधित किया जाय तो उस दलित को बहुत बुरा लगेगा, उसे समाज के किसी अधिकार से वंचित रखा जाय तो यह निःसंदेह शोषण कहलाएगा|

   यदि हम आज से कुछ दशक पहले का इतिहास देखें तो पाएँगे कि उस समय समाज में छुआछूत बहुत व्याप्त था, लोग निम्न जाति के लोगों को छूते नहीं थे यदि गलती से छू गए तो शुद्धिकरण आदि किया करते थे...शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं थे जिसके कारण आर्थिक स्थिति भी दयनीय होती थी, समाज मे इनकी दशा बेहद दयनीय होती थी,  उस समय सचमुच ही ये निम्न श्रेणी के लोग दलित ही होते थे किंतु बदलते समय के साथ-साथ इनके भाग्य भी बदले और कानून के बदलाव तथा सरकार के प्रयासों से इन पिछड़े और दलितों के जीवन में बदलाव आया गाँव से लेकर शहर, शिक्षा से लेकर रोजगार सभी क्षेत्रों में इनकी भागीदारी को समानता के स्तर पर रखा गया बल्कि यदि सामान्य श्रेणी से ऊपर कहा जाय तो भी गलत न होगा क्यों कि सामान्य श्रेणी के लोग इनके आरक्षित स्थानों में अपनी शिरकत नहीं कर सकते जबकि ये अपने आरक्षण और उससे बाहर दोनों ही जगह अपने पैर पसार सकते हैं,
आज स्थिति यह है कि SC,ST,OBC, पिछड़ा,दलित आदि कहकर कोई किसी को संबोधित नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने से वह व्यक्ति अपमानित महसूस करता है, किंतु सोचने की बात है कि जिस नाम से पुकारे जाने पर व्यक्ति स्वयं को अपमानित महसूस करता है, जहाँ फायदा उठाने की बारी आती है वहाँ बड़ी शान के साथ उसी नाम का प्रयोग करता है....   
  आज राजनीति में भी इन नामों का हुकुम के इक्के की तरह प्रयोग हो रहा है, अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए तथा मौजूदा सरकार को विकास के कार्य करने से रोकने के लिए और उसे बदनाम करने के लिए समाज को दलित, सवर्ण, अल्पसंख्य व पिछड़े वर्ग के नाम पर बाँटा जा रहा है और जनता है जो मूर्ख बन रही है या फिर चंद नोटों के लालच में भीड़ का हिस्सा बन जाती है......
जब कोई व्यक्ति स्वयं को दलित कहे जाने पर अपमानित महसूस करता है तो दलित के नाम पर सुविधाएँ लेने व आरक्षण आदि लेने में क्यों अपमान महसूस नहीं होता ? इसका अर्थ तो यही हुआ कि या तो इस 'दलित' शब्द का प्रयोग सिर्फ राजनीतिक पार्टियों द्वारा इन्हें अपने स्वार्थ रूपी मछली का चारा बनाने के लिए किया जाता है या फिर जो इस नाम से अतिरिक्त सुविधाएँ लेना चाहते हैं उनकी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं अर्थात् मान-अपमान से उन्हें कोई सरोकार नहीं बस स्वार्थ पूर्ति एकमात्र लक्ष्य होता है और ऐसे लोग समाज के लिए दीमक के समान होते हैं और ये सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा दिग्भ्रमित होते हैं, इसलिए जबतक समाज में व्यक्ति में जागरूकता नहीं आएगी देश की विकास की गति में अपेक्षित तीव्रता नहीं आएगी|

दोहा

वन्दे मातरम्!मित्रो!समधी मिलन पर एक दोहा प्रस्तुत कर रहा हूँ।समधी साहब के साथ एक हाल ही में ली गई तस्वीर।

समधी से समधी मिले,जैसे बिछड़े यार।
खुशियों के आँगन खिले,अनुपम,अद्भुत प्यार।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

एक कुण्डलिया।सन्दर्भ-(महिषासुर)

सूअर की औलाद संग,भैंसों की औलाद।
तुले हुए हैं मुल्क को,करने को बर्बाद।
करने को बर्बाद,ऐसी राह हैं पकड़े,
हो जाए यूँ भले देश के सौ सौ टुकड़े,
कहे मनोज कविराय यहीं देखा जीवनभर।
भैंस रही बस भैंस और सूअर बस सूअर।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो,आज एक गजल के साथ हाजिर हूँ। आपका स्नेह अपेक्षित है।

दोस्त ऐसा था जिसके,दिल में भी दिमाग निकला।
जिस्म इंसान का,पर आचरण से नाग निकला।

जो कहते थे धुले हैं,गंगाजल से आज उनके,
मन की चादर पे देखा,बदनुमा हर दाग निकला।

अगर आवाज न करता,तो छुपा रह जाता,
जिसे कोयल समझता था,असल में काग निकला।

मुझे आगे वो करके,चाहता था मार देना,
मगर सौभाग्य था कि,भीड़ से मैं भाग निकला।

जो दिखता था इरादों से,मुझे फौलाद जैसा,
कसौटी पर बुरे हर वक्त में,बस झाग निकला।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक मुक्तक हाजिर है। आप सभी का स्नेह सादर अपेक्षित है।

अपने हिस्से की जमीं,आसमान बाँहों में।
जिंदगी का ज्यों सारा सामान बाँहों में।
छिटकते हैं चाँदनी की तरह दूर तलक,
निरापद अधरों से मुस्कान बाँहों में।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक गजल हाजिर है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

फूल का औ खार का,अंतर समझ।
वासना औ प्यार का,अंतर समझ।

ख़ुशी है या दर्द,आँखों की नमी में,
अश्रु के इजहार का,अंतर समझ।

कौन लिखता है,सही इतिहास सोंचो,
कलम से तलवार का,अंतर समझ।

लक्ष्य तक पहुँचा पथिक,किसके सहारे,
नाव औ पतवार का,अंतर समझ।

जीतकर दुनिया,जो खुद से हार जाते,
जंग में हथियार का ,अंतर समझ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक गजल हाजिर है। स्नेह सादर अपेक्षित है।

उनकी फितरत है हर राज,छिपाते रहना।
अपने खिलाफ हर सबूत,मिटाते रहना।

गम से लबरेज है दिल,फिर भी दिखाने के लिए,
बुरा कितना है ये अंदाज़,मुस्कुराते रहना।

परिंदे आयेंगे एक दिन तुम्हारी बस्ती में,
कुछेक पेड़ यूँ आँगन में ,लगाते रहना।

भूले भटके ही सही,मेरी गली तक आये
खिजां में बनके ज्यों बहार,आते रहना।

लोग भूखे हैं,मगर देखना, सो जायेंगे,
सियासी ख्वाब की तुम लोरियाँ,गाते रहना।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

एक मुक्तक युवा पीढ़ी के नाम-

कुछ नौनिहाल रोज,औ प्रपोज में डूबे।
कुछ सुंदरी,सुरा के,महज मौज में डूबे।
कुछ बर्फ ओढ़ ,सरहदों पे हो रहे शहीद,
कुछ ओढ़कर रजाई,सुख खोज में डूबे।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे मातरम्!मित्रो!JNU कैम्पस दिल्ली में जो कुछ भी हुआ,वह अति शर्मनाक और देशद्रोह का कृत्य है। ऐसे तत्त्वों के लिए जो मेरी भावना है आपके सामने है।भारत सरकार से निवेदन है कि इस घटना का अवश्य संज्ञान ले और सख्त कार्यवाही करे।

खाकर रोटी मुल्क की,मुल्क करे बदनाम।
पग पग पर अब दिख रहे,ऐसे नमक हराम।
ऐसे नमक हराम, द्रोह की बोलें बोली।
इनको दौड़ाकर मारो,पिछवाड़े गोली।
शठे शाठ्यम समाचरेत का पाठ पढ़ाकर।
तब तक मारो,गिरे न जब तक,ये गश खाकर।

डॉ मनोज कुमार सिंह

हनुमनथप्पा को समर्पित

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज फौलादी इरादों से लबरेज जिजीविषा वाले,माँ भारती के सपूत, लांसनायक हनुमनथप्पा के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हेतु भगवान से प्रार्थना करते हुए, एक मुक्तक
समर्पित करता हूँ जो उनकी आत्मा की आवाज हो सकती है।आप भी इनके लिए प्रार्थना कीजिए।

साजिश तो की थी मुझको,मिटाने की हवा ने।
कहिए कि बचाया था,मेरी माँ की दुआ ने।
डरता नहीं हूँ आज भी,ऐ मौत!तुम सुनो,
थामी है डोर साँस की,जबतक ये खुदा ने।
”""""""''''''''''""""""""""""""""""""""""""""""
तत्काल की जानकारी-
(लो दोस्तो Navodayan Hanuman Thappa (JNV Darwad,Karnatka  & Migrated to JNV Farrukhabad,U.P.) ने सियाचिन के बर्फ के तूफान में आखिर दिखा ही दिया अपना Extra Talent जो कि कुछ ना कुछ हर नवोदयन में होता ही है।     सभी नवोदयन अपने इस जाँबाज असली हीरो के लिये दुआयें जरूर करें.....आज इसे आप सबकी दुआओं की सख्त जरूरत है-नरेश शर्मा)

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्! मित्रो!एक मुक्तक हाजिर है। स्नेह सादर अपेक्षित है।

खुद की ऐय्याशियों को,जो मुहब्बत नाम देते हैं।
छिछोरी चाल को अपनी,शराफत नाम देते हैं।
हमारे ख्वाब को हर रोज,खंजर भोंकते नेता,
अपनी मक्कारियों को भी,सियासत नाम देते हैं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहे

वन्दे मातरम्! मित्रो!आज दो समसामयिक दोहे आपको समर्पित हैं। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।
                      1
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
कैसे कर सकता यकीं,उन पर भारतवर्ष।
जिनके जीवन के बने,आतंकी आदर्श।।
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
                      2
:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
राजनीति कितनी हुई,जहरीली ये आज।
लाशों से भी माँगती,कुर्सी ,सत्ता,ताज।।
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा गजल हाजिर है। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

रहा है क्या हमेशा से हीं,ये ऐसा ज़माना।
किताबें लिखना,खुद बेचना, मेला लगाना।

जब से बाज़ार का है दौर,सब कुछ बिक रहा है,
शहर की रद्दियाँ भी,जानतीं शोहरत कमाना।

लाख पतझर चमन में,जुल्म ढाता हैं गुलों पर,
मगर वो आज तक,छोड़े नहीं हैं मुस्कुराना।

धूप आती नहीं है ,आजकल आँगन में मेरे,
धुंध कुहरे का अपना,कुछ न कुछ करके बहाना।

सृजन का ताज गढ़ता हूँ,हकीकत जानकर भी,
शा'जहाँ काट देगा हाथ,एकदिन क्या ठिकाना।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गजल हाजिर है। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

दिन अलग और जिनकी रात,अलग होती है।
हर बड़े शख्स की हर बात ,अलग होती है।

जीत हासिल जो करते हैं,निरंतर जिंदगी में,
उनके हर जंग की शुरुआत,अलग होती है।

रोज मिलते हैं अपने ,आम जिंदगी में मगर,
अजनबी आँख की मुलाकात,अलग होती है।

एक जैसे ही होते,मांस उपासक, फिर भी,
शेर औ स्यार की औकात,अलग होती है।

न्याय,अन्याय,नैतिकता से,उसे क्या मतलब,
हर सियासत की करामात,अलग होती है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गजल हाजिर है। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

अपने कभी अपनों से,यूँ जला नहीं करते।
रिश्ते निभाने वाले ,मुकाबला नहीं करते।

सच ये भी है इस दौर का,दुश्मन तो छोड़िये,
मित्रों का अब तो मित्र भी ,भला नहीं करते।

दो खाद पानी कुछ भी,कितना बबूल को,
शाखों पे कभी आम्रफल,फला नहीं करते।

जिनको भरोसा खुद पे,नहीं जिंदगी में वे
पाँवों पर कभी अपने,चला नहीं करते।

राहों में भटक जाते ,वे ही पथिक सदा,
जो लक्ष्य की दिशा का,फैसला नहीं करते।

संयम की चाँदनी में,नहाते हैं जो भी लोग,
स्वभावत: अभाव की,गिला नहीं करते।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक कुण्डलिया सादर समर्पित है। आप सभी का स्नेह अपेक्षित है।

न जाने कैसे होते ,रिश्तों के गठजोड़।
जहाँ कभी होती नहीं,हार जीत की होड़।
हार जीत की होड़,जहाँ केवल खोना है।
खोने में ही मिलता,जीवन का सोना है।
कहे मनोज कविराय,न आना मुझे जगाने।
देख रहा इक ख्वाब,जिसे दुनिया न जाने।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

वन्दे भारतमातरम्! मित्रो!आप सभी को 67 वें  गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाईयाँ। इस राष्ट्रपर्व पर एक कुण्डलिया भी सादर समर्पित है।

वन्देमातरम् मन्त्र का,जब होता उदघोष।
राष्ट्रभक्ति है झूमती,औ दुश्मन बेहोश।
औ दुश्मन बेहोश,तिरंगा नभ लहराए।
बलिदानों की यशगाथा,अनवरत सुनाए।
कहे मनोज कविराय,जपें इक मन्त्र सदा हम।
वन्देमातरम्!! वन्देमातरम्!! वन्देमातरम्!!

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज देश के विखंडित मानसिकता वाले बुद्धिजीवी, नीति निर्धारक और तथाकथित मीडिया वालों द्वारा जिस प्रकार राष्ट्रीय समाचारों ,विमर्शों में किसी भी प्रसंग में
दलित,मुस्लिम,मराठी,बिहारी,आरएसएस जैसे विशेषणों का दुरुपयोग किया जा रहा है उससे निश्चित रूप से राष्ट्रीय,भारतीय,मानवीय और सामाजिक जैसे विशेषणों का खात्मा सा हो गया है। आज असहिष्णु भाषा में  मेरी उल्टी बानी प्रस्तुत है।

दलित की या कि मुसलमान की मौत।
जैसे सियासत के, भगवान की मौत।

कितना अनैतिक हो गया,भारत,
घोर निंदनीय याकूब,साहिबान की मौत।

मारो तो मर जायेंगे,बेमौत अभी,
सारे देशभक्त ,बेईमान की मौत।

खतरे में हैं ,बकरियों की मिमियाहट,
जरुरी है शेर की, पहचान की मौत।

अब तो आतंक ही,बचाएगा मजहब,
खूनी खंजर से कर, इंसान की मौत।

रहे पिंजरा घृणा,कुंठा का कायम,
हरेक सोच में हो ,उड़ान की मौत।

सियासत लिख रही,जैसी इबारत,
बहुत नजदीक है,हिन्दुस्तान की मौत।

डॉ मनोज कुमार सिंह

चलो राष्ट्र उत्थान करें!!

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज माँ भारती के अमर सपूत सुभाष चन्द्र बोस की पावन जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन करते हुए एक रचना समर्पित कर रहा हूँ।

#चलो राष्ट्र उत्थान करें#
............................
हम सुभाष के पथ पर चलकर,
चलो राष्ट्र उत्थान करें।
संकल्पित कर्मों के बल पर,
नित्य लक्ष्य संधान करें।।
            1
आशा औ विश्वास जगाकर,
त्याग ,प्रेम का दीप जलाकर,
वैचारिक गंगा में निशदिन,
पुनीत दिव्य स्नान करें।
हम सुभाष के पथ पर.....
            2
शोषित,वंचित की सेवा कर,
बाल वृद्ध सबकी रक्षा कर,
जन-सीता की मुक्ति कार्य हित,
खुद को हम हनुमान करें।
हम सुभाष के पथ पर.....
             3
तन,मन,धन जो करे समर्पित,
मातृभूमि पर सब कुछ अर्पित,
तेज प्रखर ,बलिदानी,ज्ञानी,
पैदा हम संतान करें।
हम सुभाष के पथ पर......
           4
धीर,वीर,गंभीर,अचल हो,
सुन्दर ,सुस्मित हृदय-कमल हो,
सरहद की रक्षा में हँसकर,
हम जीवन बलिदान करें।
हम सुभाष के पथ पर.........
             5
भव्य,दिव्य यह देश बने फिर,
सुखद,शांत परिवेश बने फिर,
सोने की चिड़िया वाली फिर,
भारत की पहचान करें।
हम सुभाष के पथ पर ........
             6
आओ मिलकर तमस भगाएँ,
नव प्रभात की किरण उगाएँ,
रामराज्य के आदर्शों से ,
सुरभित हिन्दुस्तान करें।
हम सुभाष के पथ पर.......

डॉ मनोज कुमार सिंह