दोहे मनोज के--
(माँ पर दोहे)
माँ जीवन की उत्स है,माँ जीवन की खाद।
माँ बिन जीवन कल्पना,महज एक अपवाद।।
मन-मधुबन की सुरभि माँ,अरु अमरित की खान।
हृदय-कुंज में रख हमें, देती जीवन दान।।
माँ श्रद्धा का रूप है,माँ जीवन विश्वास।
घोर तिमिर संसार में, माँ ही धवल उजास।।
माँ उपासना से मिले,सत्संयम अरु त्याग।
सदाचार,वैराग्य का,जलता सदा चिराग।।
करुणा,ममता अरु दया,त्याग,धैर्य का रूप।
माँ बच्चे को यूँ लगे,ज्यों जाड़े की धूप।
माँ अतुलनीय रूप का ,नहिं दूजा उपमान।
माँ तो माँ होती महज, जीवन का वरदान।।
माँ जीवन की डोर है,माँ धड़कन,माँ श्वास।
माँ का तन,मन,रक्त ही,रचता है विश्वास।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
Friday, April 10, 2020
दोहे मनोज के-(भाग-1)
दोहे मनोज के...भाग-(1)
सत्य तेल के बुंद सा,कभी भी छिप न पाय।
कितना भी जल डालिए, ऊपर ही छितराय।।
उसे समझ आता नहीं, त्याग,समर्पण,प्यार।
पैसा ही जिनका खुदा,सुविधा ही संसार।।
कभी उन्हें न दीजिए,सद् शिक्षा का दान।
जिनका घुटनों में बसा,समझ-बूझ औ ज्ञान।।
बिन सबूत ये न्याय भी,बन जाता है रोग।
जब विवेक औ ज्ञान का,होता नहीं प्रयोग।।
प्रतिभा ईश्वर की कृपा,नाम जगत की देन।
पर घमंड अपनी उपज,छीनै मन का चैन।
अहंकार से भिन्न है,स्वाभिमान का रूप।
एक घृणा की उत्स है,एक प्रेम की धूप।।
जो विचार से शून्य है,होता वृषभ समान।
नहीं ठिकाना कब कहाँ,कर देगा अपमान।।
चोरी, झूठ,फरेब के,दिखते बहुत वकील।
जिनके कारण से हुआ,हरदम देश ज़लील।।
पी जाएँ मल मूत्र भी,ज्यों प्रसाद का भोग।
ऐसा है इस देश में, जातिवाद का रोग।।
गंगा को करते रहे,अब तक जो बीमार।
तीन साल में चाहते,अद्भुत स्वास्थ्य सुधार।।
दिखने में सब एक-से,भिन्न मगर व्यवहार।
बिना मिले गुण,कर्म के,मिलते नहीं विचार।।
पश्चिम की अंधी नकल,गई हृदय में बैठ।
संतो के इस देश में, सांता की घुसपैठ।।
नित्य नयन जो देखते,सारा ये संसार।
क्यों देख पाते नहीं, खुद को भी इक बार।।
दुराचार में कम नहीं,मातु पिता का हाथ।
बेटी को जो भेजते,बाबाओं के साथ।।
भ्रष्ट कुर्सियाँ एक हैं,मातहतों में फूट।
इसीलिए हर एक को,नित्य रहे ये लूट।।
मुफ्त में सब कुछ मिले,अंडा,छोला,खीर।
भर चुनाव चलता यहाँ,मछली,मीट,पनीर।।
जब शठता छोड़े नहीं, हठी, ढीठ,शठ,नीच।
उसे व्यंजना की जगह,अभिधाओं से फीच।।
स्वार्थपूर्ति में खेलते,लोग यहाँ हर दाव।
धीरे धीरे मर रहा,जीवन में सद्भाव।।
बेटा,बेटी एक से,पर अंतर है एक।
बेटों से ज़्यादा सदा,मिलीं बेटियाँ नेक।।
समाचार बस पूछता,बेटा कभी कभार।
दौड़ीं आती बेटियाँ,माँ जब पड़े बिमार।।
बेटी है ससुराल में,बेटा गया विदेश।
माँ बाप घर बैठकर,काटे जीवन शेष।।
उस बूढ़े माँ बाप का,सबसे खस्ता हाल।
जिसका बेटा जा बसा,छोड़ उन्हें ससुराल।।
आत्मकेंद्रित हो गया,जबसे ये इंसान।
मरी पड़ी संवेदना,कुंठित है ईमान।।
स्वार्थ,अहं के फेर में,खो देता सर्वस्व।
कैसा ये इंसान है,चाहे बस वर्चस्व।।
साहब का दिखने लगा,बदला हुआ स्वभाव।
जाति मूल का आचरण,कुत्सित कुंठित भाव।।
कितना भी अच्छा करूँ,देते नहीं ख़िताब।
मगर ज़रा सी चूक पर,करते रपट खराब।।
गलती पर तो ठीक है,जुर्माना औ दण्ड।
मगर सही भी कार्य पर,ताने हैं कोदंड।।
जिनके मन अहमन्यता और आचरण हीन।
पद पाकर वे समझते,खुद को बड़े प्रवीन।
कितना कुंठित दिख रहा,कुर्सी का आचार।
सही कार्य को भी करे,गलत सिद्ध हर बार।।
लाइक के संग टिप्पणी, कुछ तो करें हुजूर।
अर्थवान रचना बने,सन्नाटे हों दूर।।
लाभान्वित हम हो सकें,खुद में करें सुधार।
कुछ तो मुझको दीजिये,अपना शुभ्र विचार।।
यहाँ हजारों मित्र हैं,पर कुछ ही साकार।
देते हैं अनमोल वे,निशदिन ललित विचार।।
दोहा,मुक्तक औ ग़ज़ल,का लेकर हथियार।
कविता मेरी नित करे,विडम्बना पर वार।।
काव्य कुसुम सुरभित रहे,दे नव नित्य सुवास।
जीवन को लय छंद में,बाँधू यहीं प्रयास।।
गुजराती दुर्गंध ले,पूणे किया प्रवेश।
जातिवाद का कोढ़िया,मेवाणी जिग्नेश।
खालिद औ जिग्नेश हैं,जहरीले ज्यों नाग।
लगा दिए जाकर पुणे,जातिवाद की आग।।
देश तोड़ने में लगे,कुंठित खेमेबाज।
जातिवाद के जहर का,हो अब शीघ्र इलाज।।
देख सामने जुर्म भी ,रहते हैं जो मौन।
अपराधी हैं या बता,आखिर हैं ये कौन?
हम चोरों के बीच में,रहते हैं दिनरात।
चोर,चोर को कह सकें,नहीं पड़ी औकात।।
वो सुविधा सुख व्यर्थ है,और महज इक भ्रांति।
जो जीवन में छीन ले,सहज हृदय की शांति।।
पैसा ऐसा है अगर,तोड़े जो घर बार।
पैसा जाए भाड़ में,बचा रहे परिवार।।
ब्रिटिशों से मिल तोड़ दी,अपनों का ही नीड़।
कितनी बड़ी गुलाम थी,जयचंदों की भीड़।।
गद्दारों का आजतक,छिपा रहा इतिहास।
बीच सड़क पर हो गया,जिनका पर्दाफाश।।
वामी कामी लिख गए,उलट पुलट इतिहास।
आज देश ये भोगता,नित्य दर्द संत्रास।।
नहीं आज जो मानते, खुद को मनु-संतान।
वहीं बताएँ कौन हैं,पूछे हिंदुस्तान।।
छोड़ प्रेम का वाङ्मय,रख मन में बस गाँठ।
पढ़ा रहे इतिहास के,नफरत वाले पाठ।।
कर्तव्यों को भुल गए,याद रहे अधिकार।
बिना कर्म,श्रम चाहते,हम सुविधा संसार।।
वोट प्रपंची देश को,सदा किये गुमराह।
प्रतिभाओं का क़त्ल कर,ढूढ़ें उन्नति राह।।
आग लगाने से हुआ,शत्रु का मोहभंग।
देखा कि हर आग में,लहरे भगवा रंग।।
सुन 'मनोज' होता नहीं,इतना बड़ा नवाब।
गर अपने देते नहीं,सुरभित प्रेम गुलाब।।
नफ़रत पाले मर गया,भरी जवानी ख़्वाब।
इक बुड्ढा जीता रहा,पाकर प्रेम गुलाब।।
सीखा सदा गुलाब से,अद्भुत एक उसूल।
खुद रख लेता शूल है, दूजों को दे फूल।।
जाति एक यथार्थ है,जातिवाद है व्यर्थ।
दुनिया इस के सत्य को,समझे वहीं समर्थ।।
सुसिद्धिर्भवति कर्मजा,का करिए नित पाठ।
हट जाएंगे देखना,स्वयं राह के काठ।।
कुंठाओं की ठोक कर,दिल में अपने कील।
मानव करता आ रहा,खुद को सदा ज़लील।।
जब ईश्वर ने दे दिया,तुमको पंख,आकाश।
फिर पिंजरे में कैद क्यों,बने पड़े हो दास?
इसीलिए कुछ जाति को,बना लिए हथियार।
मुफ्तमाल देती रहे,सदा उन्हें सरकार।।
पल्लवग्राही ज्ञान से,भरे पड़े विद्वान।
आता जाता कुछ नहीं,चाहे बस सम्मान।।
गर्दभ वाला ज्ञान ले,औ कूकर अनुभूति।
कुछ करते रहते सदा,शूकर-सी करतूति।।
लीक पकड़ सब चल रहे,वही पुरानी चाल।
नव्य निरामय सोच का,पड़ न जाए अकाल।।
गर्वीले इतिहास पर,भले लग रही चोट।
भंसाली को चाहिए,पद्मावत से नोट।।
व्यापारिक हर सोच का,होता यही चरित्र।
पैसा ही माँ बाप है,पैसा ही है मित्र।।
टीवी एंकर में दिखे,कितना भरा गुबार।
समाचार पढ़ता सदा,चिल्लाकर हर बार।।
समाचार बनते सदा,लेकर षष्ठ ककार।
क्या,कब,कहाँ,कौन और,क्यों,कैसे आधार।।
समाचार है सूचना,बिन कोई लाग लपेट।
मिर्च मसाला डालकर,करते मटियामेट।।
नहीं रही निष्पक्षता,दिखे महज़ हथियार।
विचारधारा के बने,ये चैनल सरदार।।
लोकतंत्र में हम जिसे,समझे चौथा स्तंभ।
बाँट रहा वो देश में,जाति,मज़हबी दंभ।।
मार डालते सत्य का,रूप हमेशा शिष्ट।
समाचार में डालकर,संदेहों का ट्विस्ट।।
पत्रकारिता बन चुकी,बाजारु अब माल।
पैसे खातिर कर रही,निशदिन सत्य हलाल।।
संसद में जब तब दिखे,चैनल में नित यार।
कुत्तों-सी भौं भौं लिए,शब्दों की बौछार।
सूचनाओं में सनसनी,धोखे का व्यापार।
बीच हमारे बाँटकर,करते अत्याचार।।
सत्य सूचना की जगह,विज्ञापन अश्लील।
जिसे देख दर्शक सदा,होते यहाँ जलील।।
बहुत दोगला मीडिया,दिखे आचरण हीन।
चंदन पर करता नहीं,अब काली स्क्रीन।।
चौथा खंभा हो चुका,सड़ियल आज अँचार।
जिसका नहीं समाज से,सरोकार या प्यार।।
सौ में नब्बे सूचना,राजनीति से आज।
देता है ये मीडिया,ले घटिया अंदाज।।
जब नक्सली चरित्र पर,किया गया इक शोध।
पूँजीवादी बन चुके,कर पूँजी प्रतिरोध।।
स्वागत है तब वाल पर,सही कीजिए तर्क।
नहीं व्यक्तिगत कीजिए,कोई कभी कुतर्क।।
नित्य करूँगा स्वार्थ पर, चोट सदा भरपूर।
तुझको गर लगता बुरा,रहो यहाँ से दूर।।
जिसके पास न शब्द हैं,उचित न कोई तर्क।
कुंठाओं से ग्रस्त हो,करते सदा कुतर्क।।
भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
दोहे मेरे बोलते ,खरी खरी सी बात।।
नहीं समझता हूँ सुनो,कभी किसी को नीच।
और मित्र पर फेकता,नहीं कभी भी कीच।।
भाषण देते फिर रहे,जाति मिटे सर्वत्र।
मगर इक तरफ ले रहे,जाति प्रमाणक पत्र।।
जाति प्रमाणक पत्र में,लगा तू पहले आग।
फिर अलापना बाद में,जाति हटाओ राग।।
महज़ वोट के नाम पर,आरक्षण उपहार।
लाभ उठाने के लिए,जाति बना हथियार।।
तुम्हीं बता अंबेडकर,क्यों नहि बने सवर्ण?
ब्राह्मणी से शादी कर,क्यों नहि बदले वर्ण?
शादी ब्राह्मण से किया,दलित मीरा कुमार।
मगर अभी भी हैं दलित,ये कैसा आचार?
माता हिन्दू धर्म की,पिता हैं मुसलमान।
फिर भी हिन्दू क्यों नहीं,अभिनेता सलमान?
धर्म बदलने के लिए,रहते हो तैयार।
जाति बदल कर देख लो,मिल जाए उपचार।।
जब पूजा लगता तुझे,महज अंधविश्वास।
मंदिर में क्यों चाहिए,दलित पुजारी खास?
दलित सियासी शब्द बस,कुर्सी का हथियार।
शोषित,वंचित सत्य है,जिनका हो उपचार।।
आज़ादी के बाद से,यहीं दिखा परिवेश।
गदहों के संग दौड़कर,घोड़ा हारे रेस।।
भेदभाव न हो कभी,रखिये सदा प्रयास।
हर समाज को चाहिए,उत्तम उचित विकास।।
देश तभी आगे बढ़े,यथा योग्य दो काम।
नहीं तो आएगा सदा,घातक ही परिणाम।।
तभी बढ़ेगा मानिए,आगे हिन्दुस्तान।
भोजन,कपड़ा,छत मिले,औ' सबको सम्मान।।
धर्म,जाति समभाव हो,जीवन हो सापेक्ष।
पंथ,धर्मनिरपेक्ष सा,बनो जाति निरपेक्ष।।
कर कुतर्क यूँ मत करो,रिश्ते कभी खराब।
नहीं जरूरी क्रोध में,दो तुम शीघ्र जवाब।।
पैसे में दम बहुत है,फिर भी है बेकार।
आज जोड़ने की जगह,तोड़ रहा परिवार।।
वक्त बनाया है मुझे,गूंगा बहरा, मौन।
ताड़ रहा हूँ जिंदगी,आखिर हूँ मैं कौन।।
घरकच में जबसे भुला,नींद,भूख और प्यास।
नहीं ले सका ठीक से, जीवन में मैं साँस।।
सत्संगत से भागते,रुष्ट दुष्ट,हैवान।
सदा कुसंगति में बसे,केवल उनके प्रान।।
अच्छा क्या है क्या बुरा,नहीं जिसे पहचान।
वहीं कुसंगति में फँसा, जीवन में इंसान।।
जब भी चाहे मार दे,विश्वासों को लात।
यहीं आज का सत्य है,स्वार्थपूर्ति औ घात।।
चकाचौंध की जिंदगी,मायावी बाजार।
जिसमें फँस कर रह गया,ये पूरा संसार।।
स्वार्थपूर्ति में हैं बँधे, उनके सभी उसूल।
ठगना ही बाजार का,लक्ष्य रहा है मूल।
साहब का दिखने लगा,बदला हुआ स्वभाव।
जाति मूल का आचरण,कुत्सित कुंठित भाव।।
कितना भी अच्छा करूँ,देते नहीं ख़िताब।
उल्टे चूक बता सा'ब,करते रपट खराब।।
गलती पर तो ठीक है,जुर्माना औ दण्ड।
मगर सही भी कार्य पर,ताने हैं कोदंड।।
जिनके मन अहमन्यता और आचरण हीन।
पद पाकर वे समझते,खुद को बड़े प्रवीन।
कितना कुंठित दिख रहा,कुर्सी का आचार।
सही कार्य को भी करे,गलत सिद्ध हर बार।।
जब शठता छोड़े नहीं, हठी, ढीठ,शठ,नीच।
उसे व्यंजना की जगह,अभिधाओं से फीच।।
स्वार्थपूर्ति में खेलते,लोग यहाँ हर दाव।
धीरे धीरे मर रहा,जीवन में सद्भाव।।
उनको भी मिलता कहाँ,जीवन में सम्मान।
पद-मद में जो मातहत,का करते अपमान।।
ऊँची कुर्सी पा गया,जब भी कोई नीच।
बदबू फैलाता लिए,अपकर्मों की कीच।।
संघर्षों के बीच भी,पाती रहीं निखार।
जब जब धमकी,धौंस की,कलमें हुई शिकार।।
मोदी की उपलब्धि है,बोल रहे रोबोट।
मन्दिर मन्दिर घुम रहे,पप्पू पाने वोट।।
जातिवादियों के लिए,हुई सबक की बात।
उल्टा चाँटा जड़ दिया,आज जिन्हें गुजरात।।
गृह त्यागी के साथ में ,तुलना है बेकार।
इक है मिट्टी में पला,इक सुविधा के द्वार।।
राहुल के संग मिलकर,हार गए विघ्नेश।
हार्दिक हों जिग्नेश हों ,या नेता अल्पेश।।
हार'दिक इस देश का,बहुत बड़ा है रोग।
है सुझाव फिर से करे,सीडी का उद्योग।।
जनादेश का भी करो,कुछ तो तू सम्मान।
क्यों मशीन पर दोष मढ़,करते हो अपमान।।
मणिशंकर ने मार दी,काँगरेस की रेड़।
राजनीति में रोपकर,'नीच' नाम का पेड़।।
जीत आखिरी जीत है,हार आखिरी हार।
एक वोट से थी गिरी,कभी अटल सरकार।।
पहले यूपी से हटे,माया औ' अखिलेश।
अब होगा काँग्रेस से,मुक्त हमारा देश।।
राजनीति कर जाति की,फिर भी हुआ न पास।
है विकास पागल नहीं,पागल किया विकास।।
छीछालेदर कर रहे,क्यों अपनी हर बार।
हार गए तो मान लो,अब तो अपनी हार।।
सत्तर वर्षों से रही,काँग्रेसी ये रीति।
पचा नहीं पाती कभी,दुसरों की ये जीत।।
अजब आज का दौर है,गजब वक्त का फेर।
गदहे को घोड़ा कहे,और स्यार को शेर।।
जयचंदों की है खड़ी,देखी लंबी फौज।
जाति,धर्म का लाभ ले,काट रही है मौज।।
जिनको जूते मार कर ,जन ने दिया नकार।
फिर भी नहीं स्वीकारते,मुख से अपनी हार।।
ये कैसा है आकलन,ये कैसा आचार।
हार बताते जीत को,और जीत को हार।।
छोटी छोटी कोशिशें,बहुत कारगर चीज।
बड़े लक्ष्य की प्राप्ति की,बन जाती हैं बीज।।
एक हाथ रखता कलम,एक हाथ तलवार।
यथा उचित करता सदा,मैं अपना व्यवहार।।
चाहे गोबर फेक तू,या तू फेको कीच।
जनता देगी फैसला,कौन यहाँ है नीच।।
स्वतः बनेगा देश ये,नैतिक श्रेष्ठ समाज।
कैशलेस गर हो सके,राजनीति ये आज।।
अनुभव की अभिव्यक्ति का,जरिया श्रेष्ठ,महान।
दोहा,मुक्तक लिख ग़ज़ल,अद्भुत छंद विधान।।
लाउड स्पीकर हाथ में,पैरों में रख देश।
चिल्लाकर वो दे रहे,हमें शान्ति संदेश।।
अब साहित्य न साधना,ना तप,ना आचार।
कवि,प्रकाशक,वितरक,करते बस व्यापार।।
डुब जाता तब काव्य का,प्रखर,दिव्य आदित्य।
किलो से बिकते जहाँ,भाव भरे साहित्य।
जिसे समझता था सदा,अच्छा रचनाकार।
जाति,धर्म अरु लिंग का,निकला ठेकेदार।।
निश्छलता गुण प्रेम का,रखिये हृदय सहेज।
तर्क विसंगति से घटे, विश्वासों का तेज।।
ज्ञान बड़ा अनमोल है,प्रेम श्रेष्ठतम भाव।
जीवन इसके योग से,पाता सहज स्वभाव।।
काव्य वृक्ष पर जब फलें,छंद, बिम्ब,लय,ताल।
अमृत रस घोले सहज,हृदय मध्य तत्काल।।
शब्द,भाव की सर्जना,बनती काव्य विभूति।
गीत,ग़ज़ल, दोहा रचे,लेकर नव अनुभूति।।
तन-मन से रावण लगे,जैसे राम रहीम।
ऐसे छलियों से सदा ,होता धर्म यतीम।।
कवि हुए बस तीन ही,दो हैं ब्रह्मा,व्यास।
वाल्मीकी तीसरे कवि,शेष सभी बकवास।।
वेद,महाभारत रचे,रामायण कवि मूल।
उस पर ही उगते रहे,रचनाओं के फूल।
जो खोने लगता सतत्,अपनों का सद् प्यार।
दुनिया से मिलती उसे,इक दिन बस दुत्कार।।
ऋग्वेद जिसको कहा,पावन सदा अघन्य।
हत्या कर कुछ कर रहे,भक्षण कर्म जघन्य।।
(शब्दार्थ- अघन्य-गाय, जघन्य-घृणित)
क्या दूँ मैं गुरुदक्षिणा,कैसे दूँ सम्मान।
जो कुछ है तेरा दिया,मेरी क्या पहचान।।
मत कुपात्र को दीजिये,शिक्षा,भिक्षा,दान।
पाकर भी करता सदा,दाता का अपमान।।
अपनी बिटिया के लिए,सही तेरे ज़ज्बात।
लेकिन औरों के लिए,क्यों मन में प्रतिघात?
सीमित चुनावों तक रही,लोकतंत्र की बात।
राजनीति का अर्थ अब,घात और प्रतिघात।।
लोकतंत्र के नाम पर,मिली लूट की छूट।
नेता सत्ता रस पियें,जनता विष का घूंट।।
कर्तव्यों को भूलकर,याद किये अधिकार।
वर्चस्वों की आग में,झुलस रहे परिवार।।
टूट रहे निशदिन यहाँ,विश्वासों के सेतु।
रिश्तों में जबसे घुसे,छल के राहू-केतु।।
समाजवाद के ढोंग ने,किया स्वयं असहाय।
या लोहिया की लग गई,आज सपा को हाय।।
परिवार की पार्टी के,दो दो अब अध्यक्ष।
जनता भी कन्फ्यूज हैं,किसका लें हम पक्ष।।
जातिवादी पार्टियाँ,तुष्टिकरण की मूल।
कुर्सी खातिर बेचती,अपने नित्य उसूल।।
थूक थूक कर चाटीए,चाट चाटकर थूक।
देख सियासी रूप ये,उठे हृदय में हूक।।
बनी रहे कुर्सी सदा,रहे हाथ सब तंत्र।
देख रही जनता यहाँ,प्रायोजित षड़यंत्र।।
मुगलकाल का दिख रहा,फिर से आज फरेब।
सोलह था तैमूर का,सत्रह औरंगजेब।।
शांति,अमन बरसे सदा,ऐसा हो नववर्ष।
मानवता की छाँव में,देश करे उत्कर्ष।।
नवल वर्ष में कामना,पल-पल हो खुशहाल।
शोषित,वंचित को मिले,रोटी,चावल,दाल।।
नवलय ,नवगति छंद -सा ,हो यह नूतन वर्ष |
राग लिए नवगीत का ,बरसे घर-घर हर्ष ||
नवल वर्ष में प्राप्त हो ,खुशियाँ अपरंपार |
जीवन मानो यूँ लगे ,फूलों का त्यौहार ||
अच्छी सब ख़बरें मिलें,नवल वर्ष में मित्र।
सबके अधरों पर रहें,खुशियों के सब चित्र।।
जिनका दिल काला स्वयं,मन पर धब्बे साठ।
पढ़ा रहे हैं आज वो,सद्चरित्र के पाठ।।
स्वार्थ वृति का आदमी,कितना हो विद्वान।
करता मानव मात्र का,नित्य महज नुकसान।।
चरणदास संस्कृति के,देखे सत्तर साल।
नेता टूजी तक गए,जनता बस बेहाल।।
आजादी से आज तक,देखा हिन्दुस्तान।
पप्पू के परिवार हित,चरणदास बलिदान।।
मैडम जी की जूतियाँ,चरणदास ले शीश।
ढो ढो कर पाते रहे,जीवन भर बख्शीश।।
नजरें कुर्सी पर टिकीं,मुख पर हाहाकार।
नकली आँसू आँख में,लिए घुमैं मक्कार।।
चरणदास संस्कृति के,देखे सत्तर साल।
नेता टूजी तक गए,जनता बस बेहाल।।
कालेधन के पक्ष में,जबसे खड़ा विपक्ष।
सूअर बाड़े सा दिखा,सारा संसद कक्ष।।
शर्म,हया को भूलकर,महज घात-प्रतिघात।
संसद का पर्याय अब,गाली,जूता,लात।।
कालेधन की चोट से,पप्पू हैं नासाज़।
झाड़ फूंक से चल रहा,जिनका आज इलाज।।
काशी अस्सी घाट पर,करके प्रातः स्नान।।
बाँट रहे हैं रिश्तों की,समधी द्वय मुस्कान।।
जिसके दिल कालिख पुता,दूजे सोंच विवर्ण।
लोहा भरे दिमाग से,कैसे निकले स्वर्ण।
मन मुट्ठी में कीजिए,मिटा सोच से खोंट।
समझ बूझ रखिए कदम,नहीं लगेगी चोट।।
न कराहते बन पड़े,उगल न पाते राज।
बवासीर सा सालता,कालाधन ये आज।।
साईं इतना दीजिए,धन से घर भर जाय।
इतना लूटूं देश को,बीस पुश्त तक खाय।
लय,प्रवाह,यति,गति लिए,होते सुमधुर छंद।
सहज समर्पण में छिपा,जीवन का आनंद।।
फेसबुक पर कवियों की,ऐसी लगी कतार।
मोती के बाजार में, ज्यों मछली-व्यापार।।
.................................................
तुम मुझको तुलसी कहो,तुझको कहूँ कबीर।
आओ मिलकर बाँट लें,बौनेपन की पीर।।
................................................
वाह वाह की लत लगी,बस ताली की चाह।
मंचों की कविता बनीं,सबसे बड़ी गवाह।।
भ्रम पैदा करते सदा,फेसबुकीया मित्र।
उनको रचना चाहिए,या उन्मादक चित्र।।
भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
कविता मेरी बोलती,खरी खरी सी बात।।
फुटपाथी पाठक सदा,रहें वाल से दूर।
गुणग्राही कुछ मित्र ही,हैं मुझको मंजूर।।
टैगासुर सुन प्रार्थना,मत कर तू मजबूर।
नहि तो करके ब्लॉक फिर,कर दूँगा मैं दूर।।
थोड़ी भी गर है बची,तुझमें सही तमीज।
बो मत सत्ता के लिए,जातिवाद के बीज।।
अगड़ा पिछड़ा औ दलित,लेकर विषय विवाद।
नेताओं ने कर दिया,पूर्ण मुल्क बर्बाद।।
झूठ बोलना सीखिए,बनिए पलटीमार।
तभी रहेगी 'आप' की,दिल्ली में सरकार।
राजनीति में मान्य हैं,जब से झूठ,फरेब।
वहीं सफल नेता यहाँ,जिसमें जितना ऐब।
पैंसठ बरसों बाद भी ,आज़ादी बस नाम |
डॉलर के दरबार में ,रुपया अभी गुलाम ||
बेलगाम टीवी हुआ ,कौन करे कंट्रोल |
भौड़ेपन की आग में ,मूत रहा पेट्रोल ||
सोसल साइट्स पर सदा ,आक्रामक व्यवहार|
पर टीवी व्यभिचार पर ,नरम रही सरकार ||
हिंसा औ अश्लीलता ,विविध भाँति के रोग |
चटखारे ले बाँटता ,टीवी का उद्योग ||
चेन्नई एक्सप्रेस पर, खर्चे शतक करोड़ |
मगर प्याज के नाम पर, रोने की है होड़ ||
मैं लड़ता हूँ भूख से ,मुझसे लडती प्यास |
मैं दोनों के बीच में ,झेल रहा संत्रास |
चमक रहे हो खुद यहाँ ,और सभी द्युतिहीन |
कैसे मानू मैं तुम्हें ,असली कला-प्रवीन ||
भावों की बरसात से ,भारी मन के पाँव |
सृजन- प्रसव की चाह में ,ढूढ़े सुन्दर छाँव ||
अखबारों की सुर्खियाँ ,समाचार का सार |
मानवता के रक्त से, सना पड़ा अखबार |
सिसक रहीं है हड्डियां ,पड़े गटर में बंद |
शोकाकुल परिवेश में, कौन सुनाये छंद |
गोदें सूनी हो रहीं ,सपने सारे ध्वस्त |
आज दरिंदे कर रहे, मानवता को पस्त ||
मानवता थर्रा गई ,देख क्रूर यह खेल |
क्या कभी मुर्झाएगी ,यह हिंसा की बेल ||
रक्षाबंधन पर्व पर ,सबको नमन हज़ार |
बहनों के रक्षार्थ हम ,सदा रहें तैयार ||
जाति-धर्म से श्रेष्ठ है ,बहनों का सद् प्यार |
अदभुत ,पावन पर्व है ,राखी का त्यौहार ||
सत्य ,ज्ञान, गुरु ,आत्म से ,जब बंधता इंसान |
बनकर रक्षा कवच ये ,देते जीवन दान ||
मनमोहक ,दिलकश अदा ,ठगने का हथियार |
है अनीति के शास्त्र पर ,टिका हुआ बाज़ार |
औरत ,इज्जत ,प्रेम हो ,या रिश्तों के बीज |
बाज़ारों के दौर में ,बिकती है हर चीज ||
किसको कैसे लूटना ,कुत्सित लिए विचार |
दुनिया में हमको सदा ,सिखलाते बाज़ार ||
टीवी के बाज़ार में ,औरत इक उत्पाद |
चटखारे ले बेचता ,नंगेपन की खाद |
अदभुत है बाज़ार का ,अर्थशास्त्र उद्योग |
स्वार्थपूर्ति बस ध्येय है ,लाभांशों का योग ||
कैसा तेरा न्याय है ,कैसा तू हमदर्द |
जुल्म ढा रहा संत पर ,कैसा है तू मर्द ||
सत्ता का अपराध से ,ये कैसा अनुबंध |
अपराधी खुला घूमें ,संतों पर प्रतिबन्ध ||
कान्हा जी के जन्म पर ,खुशियाँ मिलें अपार |
चहुँ दिशि सुख औ शान्ति हो ,घर-घर बरसे प्यार ||
प्रेम ,भक्ति सद्कर्म का ,देने को सन्देश |
कृष्ण लला तू आ जरा ,फिर से मेरे देश ||
संकट में है देश का ,धर्म ,न्याय औ संत |
हे कान्हा आकर करो ,फिर दुष्टों का अंत ||
एक कंस वध के लिए ,लिए कृष्ण अवतार |
आज हज़ारों कंस हैं ,कौन करे संहार ||
क्षमा करो हे निर्भया ,दिला सके ना न्याय |
तेरे संग कानून भी ,किया बहुत अन्याय ||
मेरे देश महान का ,ये कैसा क़ानून |
घोर क्रूर हैवान का ,माफ़ कर दिया खून ||
जिसको फाँसी चाहिए ,पाया कुछ दिन जेल |
फिर खेलेगा निकलकर ,बलात्कार का खेल ||
कानूनी ये फैसला ,दिला दिया अहसास |
अब रक्षा के नाम पर ,न्याय मात्र बकवास ||
इज्जत खो बिटिया मरी ,झेल-झेल संत्रास |
देख हश्र क़ानून का ,उठा आज विश्वास ||
मुल्ला ,बाबा ,पादरी ,को किसने दी छूट |
सदा धर्म की आड़ में ,सबकी इज्जत लूट ||
मिडिया ,राहुल ,सोनिया ,से लेकर के बैर |
बाबा आसाराम सुन ,नहीं तुम्हारी खैर ||
ज्ञान ,आचरण ,प्रेम के,सबसे बड़े फ़क़ीर |
भारत की तस्वीर में ,तुलसी सूर ,कबीर ||
पाक साफ यदि है हृदय ,तो जंगल क्या जेल |
संत कभी डरता नहीं ,नहीं रचाता खेल ||
संतों की पहचान है ,सहज ,सरल व्यवहार |
सदाचरण की जिंदगी ,जीव मात्र से प्यार ||
कुछ ढोंगी , बहुरुपिया ,कालनेमि के बाप |
पकड़ संत का रूप वे ,बाँट रहे हैं पाप ||
विश्वासों के मूल पर ,करते वहीँ प्रहार |
जिनको जीवन में कभी ,मिला नहीं है प्यार ||
लोभ,मोह ,ईर्ष्या घृणा ,अपनाकर अपमान |
दया ,प्रेम ,करुणा ,विनय ,भूल गया इंसान |
दुनिया में उस रूप की ,कैसे हो पहचान |
भीतर से तो भेड़िया ,ऊपर से इंसान ||
पत्थर का पूजन किया ,धर ईश्वर का ध्यान |
नहीं मिला जब जगत में ,पूज्यपाद इंसान ||
गुरु का आशीर्वाद हीं ,ईश्वर का वरदान |
बिनु गुरु के संभव नहीं ,ईश्वर की पहचान ||
गुरु शिष्य की परंपरा ,पावन औ प्राचीन |
लेकिन अर्वाचीन में बेबस और मलीन||
गुरु किरिपा देता हमें ,ज्ञान पुष्प का दान |
जब चरणों में शीश हो ,मन में हो सम्मान |
गुरु शिक्षक कुछ हीं बचे ,रहते सदा सहाय |
बाकी सब करने लगे ,शिक्षा का व्यवसाय ||
अथक परिश्रम सृजन से ,मिलता सुन्दर अर्थ |
गुरुओं के सद्प्रेम से, जीवन बने समर्थ ||
घोर तिमिर संसार में ,शिष्य जहां फँस जाय |
अज्ञानी गुमराह को ,गुरु हीं राह दिखाय ||
मनसा ,वाचा ,कर्मणा ,हो हिंदी उत्थान |
तभी एक होगा यहाँ ,पूरा हिन्दुस्तान ||
हिंदी मानस में बसे ,विविध रूप भगवान |
तुलसी ,सूर ,कबीर हों ,या रहीम ,रसखान |
इक भाषा ,इक राष्ट्र हित ,चलो करें संघर्ष |
हिंदी जनभाषा बने ,यहीं सही उत्कर्ष ||
मुख में हिन्दुस्तान है ,दिल में है इंग्लैण्ड |
हिन्दी के हर गीत पर ,अंग्रेजी का बैंड ||
दिल्ली मैंने देख ली ,तेरे मन की खोंट |
अंग्रेजी को ताज है ,औ हिंदी को चोट ||
हिंदी भारत की रही , जन जन की पहचान |
धड़कन अब भी राष्ट्र की ,आन, बान औ शान ||
धान पौध -सी बेटियाँ ,दो खेतों की योग |
इसको कहें वियोग या ,इक सुन्दर संयोग ||
बिछड़न,लिपटन अरु रुदन ,समझ पुराने ख्याल |
मुस्काती अब बेटियाँ ,जाती हैं ससुराल ||
बेटी दुःख की खान है ,बहू स्वर्ण की सेज |
ऐसी हीं कुछ सोच है ,लेकर विषय दहेज़ ||
बाप पढ़ाया भेज कर ,बेटे को परदेश |
अफसर बनकर बाप को ,देता अब निर्देश ||
रोगी ढूंढें वैद्य को ,विद्याभ्यासी ज्ञान |
ज्ञानी ढूंढें तत्त्व को ,वेश्या जस धनवान ||
बेशर्मी के दौर में, जीना हुआ मुहाल |
नाक कटाकर भी यहाँ ,रहते कुछ खुशहाल ||
जीवन की अनुभूति का ,सुन्दर सत्य प्रमाण |
है मकसद साहित्य का ,हो सबका कल्याण ||
स्वतः मुक्त होता हृदय ,मिटते सब अवसाद |
जब रचना करने लगे ,जीवन से संवाद ||
एक तरफ साहित्य में ,फैला ब्राह्मणवाद |
दलितवाद दूजै तरफ ,लेकर खड़ा विवाद ||
राजनीति में फँस गई कविता की पहचान |
जोड़ -तोड़ में कवि लगे ,कैसे बनें महान ||
पुरस्कार साहित्य का ,हुआ जुगाड़ी खेल |
अबुआ झबुआ पा रहे ,लगा ,लगा कर तेल ||
पढ़ा रहे हैं आज वो ,हमें प्रगति के पाठ |
जिसने जीवन भर पढ़ा ,सोलह दूनी आठ ||
शर्म ,हया, शालीनता , औरत के श्रृंगार |
लेकिन अर्वाचीन में ,हैं तीनों बेकार |
कामुकता ,अश्लीलता ,का लेकर हथियार |
औरत को अब बेचता ,मीडिया का बाज़ार |
घृणा ,द्वेष अन्याय का ,चलो करें संहार |
प्रेम ,त्याग ,श्रद्धा ,विनय ,का लेकर हथियार |
विश्व विजय करता वहीँ ,जिसके मन में प्यार |
इसके आगे सब यहाँ ,फींके हैं हथियार ||
गाँधी फिर आओ यहाँ ,तू अपने इस देश |
सत्य ,अहिंसा ,प्रेम का, लेकर नव सन्देश |
गाँधी तेरे नाम पर ,गाँधी हुए तमाम |
कुछ तो राजकुमार हैं ,कुछ घूरे के आम |
ये कैसा आदर्श है ,कैसा राष्ट्र -चरित्र |
रुपये में हम बेचते ,गाँधी जी के चित्र |
कर्म और ईमान का ,अद्भुत रहा मिसाल |
लाल बहादुर नाम था ,भारत माँ का लाल |
दो कौड़ी का आदमी ,होता जब मशहूर |
अहंकार ,मद में सदा ,रहता निश्चित चूर ||
राजनीति की ओट में ,किया मुल्क बदहाल |
गदहों की औलाद ने ,पहन शेर की खाल ||
कालेधन की माँग पर ,इक पर अत्याचार |
इक बाबा के ख्वाब पर ,झपट पड़ी सरकार ||
ये कैसा व्यवहार है ,हे शोभन सरकार |
क्यों भ्रष्टो को दे रहे, आज स्वर्ण उपहार ||
जिनके बल पर धर्म की , महिमा रही अनंत |
वहीँ आज इस देश में, शोषित हैं अब संत ||
संकट में यह देश है ,मान रहा हूँ आज |
सस्ता अब भी आदमी ,औ महँगा है प्याज ||
राजनीति जब -जब रही ,वंशवाद के हाथ |
शहजादों के देश में ,जनता हुई अनाथ ||
भूख, गरीबी, दर्द का ,आर्तनाद चहुँओर |
तुम कुर्सी पर बैठ कर ,होते रहे विभोर ||
पप्पा ने सत्ता दिया ,होके भाव विभोर |
पर चच्चा मिल कर रहे ,कुर्सी को कमजोर ||
बनी बनाई राह पर ,चलना है आसान |
राह बना कर जो चले ,वहीँ मर्द इंसान ||
सीधी -सादी जिंदगी ,जीता जो इंसान |
जीवन में होता नहीं ,उसका कुछ नुकसान ||
सही -गलत का आकलन, करता जो इंसान |
वहीँ बना पाता सदा ,अपनी इक पहचान
आज सभ्य इंसान में ,दिखता यहीं उसूल |
पत्थर के गुलदान में ,जस कागज के फूल |
इशरत को बेटी कहे ,मोदी को अवसाद?
बोधगया में कौन है ,बेटी या दामाद ??
आज सियासत खेलती ,खुला-खुला- सा खेल |
देश भक्त को जेल है ,आतंकी को बेल ||
तन कच्छप ,मन शशक सा , इक धीमा इक तेज |
फिर भी जीवन भर चलें ,औसत चाल सहेज ||
जिस बच्चे की पीठ पर ,हो बुजुर्ग के हाथ |
जीवन भर होता नहीं ,बच्चा कभी अनाथ |
बच्चों की मुस्कान में ,बसते जब भगवान |
तब क्यों है इस जगत में ,पत्थर-सा इंसान ||
शब्द-अर्थ दाम्पत्य -से ,जस धरती-आकाश |
दोनों के सहधर्म से ,उपजे भाव प्रकाश ||
आज प्रगति के नाम पर ,कितना हुआ विनाश |
हाँफ रही शोषित धरा ,कांप रहा आकाश ||
तथाकथित कुछ सेकुलर ,देते बस उपदेश |
जातिवाद के नाम पर ,बाँट रहे हैं देश |
जब कटुता की आँच से , ,जलते मन के खेत |
ठूंठा-ठूंठा जग लगे ,जीवन बंजर रेत ||
चोरी मेरा काम है ,चोरी हीं आधार |
जीवन भर करता रहा ,चोरी चुपके प्यार ||
देकर पाने की जहाँ ,मन में जगे विचार |
उसको कह सकते नहीं ,किसी तरह उपकार ||
अग्यानी ग्यानी बने ,औ ग्यानी विद्वान|
गुरुओं के उपकार से ,जीवन बने महान ||
पहले रोटी दान कर ,फिर करना तुम प्यार |
शोषित वंचित के लिए ,यहीं बड़ा उपकार ||
हे भारत के आम जन ,कर दो इक उपकार |
अबकी बार चुनाव में ,चुनो नई सरकार ||
क्या करना आकाश का ,जहाँ नहीं ठहराव |
उससे अच्छी ये धरा ,जहाँ टिके हैं पाँव |
राजनीति की सोच में ,कब किसकी परवाह |
जनता जाए भाड़ में ,बस कुर्सी की चाह ||
गाँधी जी के नाम पर ,गांधी हुए तमाम |
कुछ तो राज कुमार हैं ,कुछ घूरे के आम ||
वायु ,गगन, धरती मिले ,मिले अनल औ नीर |
पंचतत्त्व ब्रह्माण्ड से ,विरचित सकल शरीर |
नफरत ,कुंठा ह्रदय में ,होठों पे मुस्कान |
कालनेमि -से रूप का ,कैसे हो पहचान ||
नक़ल ,नक़ल में भेद है ,अकल ,अकल में भेद |
नक़ल अकल से जो करे ,पाये जीवन वेद|
ले उधार की रोशनी ,चाँद बना जब ख़ास |
सरेआम करने लगा ,जुगनू का उपहास |
क्रोध ,मोह ,मद लोभ में ,हम इतने मदहोश |
जीवन की लहरें हुईं ,बेवश औ खामोश |
भूख ,प्यास ने बनाया ,हमको महज गुलाम |
इनके अत्याचार ने ,जीना किया हराम |
तुम एसी में बैठकर ,लेते हो आनंद |
हम श्रम-साधक स्वेद से ,लिखते जीवन छंद ||
राजा के दरबार में ,वहीँ लोग स्वीकार |
हाँ में हाँ जो बोलते ,जी हजूर ,सरकार||
बिन तुक की बातें सदा ,देतीं दुख,अवसाद |
जैसे सूअर को कहें ,कुत्ते की औलाद ||
नीचे कुल का जनमिया ,करनी भी है नीच |
घृणा त्याग तू बन बड़ा ,प्रेम हृदय में सींच ||
बोलो वन्दे मातरम ,करो राष्ट्र का मान |
तभी शहीदों की धरा ,पाएगी सम्मान ||
लड़का -लड़की मित्रता ,नया चला है ट्रेंड |
बीच सड़क पे बज रहा ,संस्कार का बैंड ||
विश्वासों की नींव पर ,कर पीछे से वार |
कुत्तों ने फिर कर दिया ,शेरों का संहार |
भारत माँ के लाडलों ,तुमको नमन हजार |
फिर आना इस देश में ,करने नव संचार |
सत्ता औ इंसानियत ,कहाँ रहा है मेल |
लाशों पर भी खेलती ,राजनीति का खेल |
ईद ,तीज दोनों मने ,हों सारे खुशहाल |
गले मिलें दिल खोलकर ,निशदिन सालो साल ||
मत्स्य -न्याय में चल रहा ,अब भी शासन चक्र |
सत्ता की नज़रें दिखीं ,कमजोरों पर वक्र ||
जन- सेवा के नाम पर,घोटालों का कंत|
सौ-सौ चूहा हज़म कर , बना हुआ है संत ||
कर्तव्यों के सिर चढ़े ,जब-जब ये अधिकार |
अहंकार का रूप धर ,बने स्वार्थ के यार ||
देश -दहन में सोचना, कितना तेरा हाथ |
चुन चुनकर नेता गलत ,करते देश अनाथ ||
खतरे में हैं बेटियाँ ,फिर भी हम सब मौन |
हैवानों की हवस से ,बता ,बचाये कौन ?
पड़िया जब पैदा भई ,भैंस पुजाती द्वार |
पर बेटी के जन्म पर ,जननी को फटकार ||
लोकशक्ति हीं शक्ति है ,देशभक्ति हीं भक्ति |
संविधान हीं देश का ,धर्मग्रन्थ की सूक्ति ||
संकट में तुम कृष्ण हो ,औ चरित्र से राम |
हे सैनिक !इस देश के ,तुझको करूँ प्रणाम ||
गाय ,गीता ,गायत्री ,चलो बचाएं आज |
यहीं देश की अस्मिता ,गौरव,गरिमा ,लाज ||
तप,मर्यादा,तेज,यश,मिटते पाय कुसंग |
जीवन की संजीवनी ,संयम ,त्याग ,उमंग ||
पतझर तो इक चक्र है ,फरे,झरे ,फल-पात |
जन्म-मरण भी नियति है ,जीवन के सौगात ||
बिना कर्म जब फल मिले ,पंथी को भरपूर |
तब क्यों चाहेगा कभी ,फल लागे अति दूर ||
कला जिंदगी में हमें ,देती दृष्टि नवीन|
दिशाहीन को दे दिशा ,करती सदा प्रवीन||
दीवारों में खिड़कियाँ ,कला दृष्टि की देन |
घुटन भरे माहौल में ,देती है सुख -चैन ||
गुरु कृपा देता हमें ,ज्ञान पुष्प का दान |
जब चरणों में शीश हो, मन में हो सम्मान ||
गुरु का आशीर्वाद हीं ,ईश्वर का वरदान |
बिन गुरु के संभव नहीं ,ईश्वर की पहचान ||
अथक परिश्रम सृजन से, मिलता सुन्दर अर्थ |
गुरुओं के सद्प्रेम से ,जीवन बने समर्थ ||
घोर तिमिर संसार में ,शिष्य जहाँ फँस जाय|
अज्ञानी गुमराह को ,गुरु हीं रह दिखाय||
गुरु-शिष्य की परम्परा ,पावन औ प्राचीन |
लेकिन अर्वाचीन में, बेबस और मलीन ||
फूल -सी बच्ची गर्भ की ,कुचल रहे क्यों आज ?
क्यों बेटे की चाह में ,दानव बना समाज ?
बेटी हीं हैं देवियाँ ,दुर्गा की अवतार |
यहीं करेंगी फिर यहाँ ,दनुजों का संहार |
तु भी माँ की बेटी थी ,मिला तुझे सम्मान |
फिर अपनी हीं कोंख का ,क्यों करती अपमान
मंदिर में देवी पुजै, बगुला भगत समाज |
बेटी के दुश्मन बने ,घर वाले हीं आज |
दानव से मानव बनो , हरो मनुज की पीर |
भ्रूण हत्या को बंद कर ,बहा प्रेम का नीर |
स्वार्थ रहित अब जन कहाँ ,कहाँ रहा अब स्नेह |
जाति- घृणा ने कर दिया ,शुष्क हृदय का गेह |
नफरत ,कुंठा हृदय में ,कथनी केवल भव्य |
भेड़ रूप में भेड़िया, समझाए कर्त्तव्य ||
द्वेष ,घृणा के कूप में ,मन जिनके हैं बंद |
कौन सुनेगा जगत में,उनसे छल के छंद ||
जाति- धर्म के नाम पर ,बाँट रहे कुछ पीर |
हत्या करके प्रेम की ,खुद को कहे कबीर |340
दोहे मनोज के-भाग -2
दोहे मनोज के -(भाग -2)
जब जब आपस में भिड़े,स्वार्थ भरे दो यार।
दुश्मन पीछे से किए, तब तब सख्त प्रहार।
धर्म न पूजा पाठ है,धर्म न कोई कैद।
धर्म मुक्ति का मार्ग है,बाकी बात लबेद।
मर्म न जाने धर्म का,भ्रम पाले कुछ लोग।
पेट,देह तक हैं सीमित,करें स्वार्थ उद्योग।
दस लक्षण हैं धर्म के,सुंदर जीवन वेद।
नास्तिकता समझे नहीं,जीवन का यह भेद।
मजहब वाली बात को,कहिए कभी न धर्म।
इसका मतलब ये हुआ,समझ न पाए मर्म।
महज सियासत तक रही,जिसकी अपनी दृष्टि।
समझ न पायेगा कभी,धर्म,न्याय की सृष्टि।
मिले धर्म से देश को,तुलसी,सूर,कबीर।
मज़हब में जन्नत मिले, संग बहत्तर हूर।।😊
कुछ लोगों की नजर पर,चढ़ा स्वार्थ का फैट।
इवियम भी संघी लगे,हिन्दू वीवीपैट।।
नींद खराब करने के,तीन मुख्य किरदार।
मच्छर,मोबाइल तथा मोदी जिम्मेदार।।😊😊
खुशी प्राप्ति का सूत्र है, औ' जीवन आधार।
आवश्यकता पूर्ण कर,इच्छाओं को मार।।
भारत की संस्कृति के,करम गए ज्यों फूट।
छूट न देकर टैक्स पर,दिया सेक्स पर छूट।।
सुप्रिमकोर्ट ने दे दिया, ऐसा आज दलील।
छिनरा,छिनरी शब्द अब,रहे नहीं अश्लील।
छिनरों को अब मिल गया,लड्डू दोनों हाथ।
छिनरी भी स्वच्छन्द हैं,रहना किसके साथ।।
व्यभिचारी किसको कहें,किसको कहें अधर्म।
समलैंगिक,एडलटरी,न्यायिक नैतिक कर्म।।
मकड़ी से कारीगरी,बगुले से तरकीब।
चींटी से सीख परिश्रम,होगे नहीं गरीब।।
क्षण में जो संशय करे,क्षण में ही विश्वास।
ऐसा व्यक्ति बना नहीं,कभी किसी का खास।।
दिल में तेरे रोम क्यों,मन में पाकिस्तान।
रोम रोम में बसा ले,अब तो हिन्दुस्तान।।
मन-माखन-मिसरी करो,तन को गोकुल धाम।
बिन बुलाए आएँगे,हृदय-गेह में श्याम।।
देकर या तो छोड़कर,जाता है इंसान।
ले जाने का जगत से,होता नहीं विधान।।
भक्त खड़ा है इक तरफ,दूजे तरफ गुलाम।
इक भारत भारत जपे,इक इटली का नाम।।
रचना मेरी हो सके,अर्थवान साकार।
लाइक के संग दीजिए,अपना शुभ्र विचार।।
सर्वोत्तम उपहार में,प्रोत्साहन है खास।
जीवन में जिसको मिले,बढ़े आत्मविश्वास।।
मोह तमस मिटता रहा,ज्योतित हुआ भविष्य।।
आत्मदान जब गुरु किया,आत्म समर्पण शिष्य।।
बूढ़े करुणानिधि मरे,मिलने गए हजार।
सैनिक सीमा पर मरे, किसने किया पुछार?
तन के हित आसन तथा,प्राणायाम निदान।
करो परम हित समर्पण,आत्म-प्रेम हित ध्यान।।
नए बिंब,प्रतीक नए,उगा पंख उपमान।
छंदों के नित व्योम में,भरते रहो उड़ान।।
अब भी दुनिया के वही,देश बने सरदार।
जिसके हिस्से में बड़े,संहारक हथियार।।
दादा जी की सल्तनत,क्यों नाना के नाम?
तुम फिरोज के खून हो,नेहरू का क्या काम?
जिनके भ्रष्टाचार ने,किया मुल्क बदहाल।।
ये नेता,साहब दिखे,मगर यहाँ खुशहाल।।
जनवाद के कवियों का,देखा भोग विलास।
पाँच सितारा होटलों,में जिनका नित वास।।
कवि जनवादी कर रहे,जन-मन का उपहास।
खुद महलों में रह रचे,झूठे दुख-संत्रास।।
जन कवियों का आचरण,देख हुआ आश्चर्य।
दुख-पीड़ा को बेचकर,भोग रहे ऐश्वर्य।।
जिस दिल में बस घृणा के,फैले पेड़ बबूल।
वहाँ उगेंगे किस तरह,सहज स्नेह के फूल।।
बन जाएंगे काम सब,सूत्र बड़े अनमोल।
साहब की बीवी पटा, नित्य नमस्ते बोल।।
संयम और लिहाज को,कमजोरी नहि मान।
कर सकता है पलटकर, दूजा भी अपमान।।
अलमारी नहि कब्र में,नहीं कफ़न में जेब।
कहाँ रखोगे संपदा,जीवन एक फरेब।।
श्रमजीवी होता नहीं, पिछड़ा,दलित अनाथ।
महज़ सियासी सोच है,कुर्सी आये हाथ।।
दलित,पिछड़ा बनने का,अपना ही आनंद।
बिना कर्म जब फल मिले,क्यों करें दंद फंद।।
जाते थे जो कब्र पर,रोजा रखकर रोज।
मंदिर मंदिर घूमकर,वोट रहे अब खोज।।
अंकित,चंदन और मधु या डॉक्टर नारंग।
हुआ नहीं क्या मॉब का,लिंचिंग इनके संग।
औषधि-सी होती सदा,दोहे की तासीर।
शब्द,अर्थ अरु भाव से,मिटती मन की पीर।।
सच्चर खच्चर-सा लिखा,कुंठा में फरमान।
सिर्फ धर्म के नाम पर,बाँटा हिंदुस्तान।।
बेईमान से न करें,आप कभी उम्मीद।
कर देते विश्वास की,मिट्टी सदा पलीद।।
कालनेमि कुछ हैं यहाँ,विविध रुप धरि लेऊ।
दिल में तो जिन्ना रखे,कंधे पर जनेऊ।।
कानों के कच्चे दिखे,मुझको लोग तमाम।
सत्य बिना जाँचे करें,अंधों जैसे काम।।
उसे चाहिए मुफ्त में,जीवन में उत्कर्ष।
पर अच्छे दिन कब मिले,बिना किये संघर्ष।।
चाँद सितारे छू लिए,छुए न माँ के पैर।
उसका तो भगवान भी,नहीं करेगा खैर।।
मंगल ग्रह तक पहुँचकर,करता रहा गुमान।
पहुँच न पाया हृदय तक,मगर अभी इंसान।।
उसकी खातिर हो गए,रिश्ते सब अनजान।
पैसा जिसका लक्ष्य है,पैसा ही भगवान।।
जिसकी ओछी सोच है,मेढक जैसी कूद।
निश्चित ऐसे शख्स का,होता तुच्छ वजूद।।
इंसानों के रूप में,घूमते मिले करैत।
मजबूरी में फिर हमें,बनना पड़ा लठैत।।
सिखा रहे इंसान को,वे हीं आज शऊर।
जिसमें नहीं तमीज़ खुद,पद मद में बस चूर।।
गर तेरे जिस मित्र से,मिलते नहीं विचार।
फिर भी मत करिए कभी,उससे दुर्व्यवहार।।
भिक्षा में भी गर मिले, शिक्षा का उपहार।
आत्मज्ञान हित कीजिए,मन से उसे स्वीकार।।
समता के रिश्ते बनें,ऐसे सहज प्रगाढ़।
सूखती नदियाँ न सुखें,भरीं में न हो बाढ़।।
मन क्रोधी,दिल संयमी,सदा भिन्न व्यवहार।
मगर प्रेम के योग से,रहते एकाकार।।
मिठबोलवा बस मुँह से,भरल छहँत्तर देह।
रिश्तन के भी नित ठगे,देके झूठ सनेह।।
राष्ट्र बने मजबूत अरु,दुश्मन बनें अनाथ।
दुष्टदलन में दीजिए,सेना का अब साथ।।
पहले दुनिया-बैंक में,जमा करो सहयोग।
ब्याज सहित पाओ पुनः,प्यार भरा रसभोग।।
रक्षक बन रक्षा करे,रखता सदा पवित्र।
शिक्षा से भी है बड़ा,मानव सहज चरित्र।
कठिन,कष्टकारक रही,लक्ष्य प्राप्ति की प्यास।
मगर नहीं निष्फल रहा,सच का सतत् प्रयास।।
बहुत पुरानी रीति है,नहीं चली ये आज।
सच बोलो तो बोलता,पागल हमें समाज।।
सुख-दुख चिंता से उपर,उठता जब इंसान।
आसमान भी झूककर,देता है सम्मान।।
मूल्यहीन सिद्धांत को,बना कभी मत मित्र।
बिना सफलता ही जियो,लेकर शुद्ध चरित्र।।
शिक्षा से शिक्षित बना,और बना विद्वान।
लेकिन बिना चरित्र के,मानव नहीं महान।।
प्रतिभा से भी उच्च जो,पावन और पवित्र।
जीवन पर शासन करे,कहते जिसे चरित्र।
पद प्रभुता-मद प्लेग सा,अंत समय दे कष्ट।
जिसको छू देता उसे,कर देता है भ्रष्ट।।
लोकतंत्र का हो गया,उसी समय प्राणांत।
राजनीति के जब हुए,मूल्यहीन सिद्धांत।
पाकिस्तान के झंडे,लहराएँ गर दुष्ट।
दौड़ाकर ठोको उन्हें,बंदूकों से पुष्ट।।
😊हम लेते मट्ठा सदा,तुम बीयर का पैग।
फिर भी हम दोनों रहे ,इक दूजे से टैग।।😊
ज्ञान,बुद्धि, साहस तथा,ईश्वर में विश्वास।
असमय के ये मित्र हैं,रखिए दिल के पास।।
पढ़ा रहे हैं आज वे,हमें कर्म के पाठ।
जिसने जीवन भर पढ़ा,सोलह दूनी आठ।।
लिखने भी आता नहीं, सही सही दो शब्द।
वही लिखने बैठे हैं,आज मेरा प्रारब्ध।।
ऊँचे चढ़ कर सीख लो,कुछ तो करना प्यार।
वरना नीचे उतरना,पड़ता इकदिन यार।।
सृजन कभी रखता नहीं,विध्वंसों को याद।
यही सृष्टि का सत्य है,फल ही बनता खाद।।
खिलकर झड़ने का कभी,रखता नहीं हिसाब।
सतत् पौध रचता नवल,सुरभित एक गुलाब।।
राजनीति व्यापार की,हुई आज पर्याय।
सत्ता पाकर चाहती,पूर्ण सुरक्षित आय।।
आग सरीखा जेठ जब, जग झुलसाता खूब |
तब भी पत्थर फोड़कर, उग आती है दूब।
मेरे अपने न करें,गर पीछे से वार।
मेरे मरने के लिए,बना नहीं हथियार।।
मैं अपनों के सामने,हार गया हर बार।
यही एक विश्वास रख,देंगे एकदिन प्यार।।
आज सियासी दौड़ ने,दिया यहीं संदेश।
भक्त बन गई भाजपा,अंधभक्त कांग्रेस।।
लोभ,घृणा इंसान को,कर देते कमजोर।
पर संयम एक मंत्र है,रखता सदा बटोर।।
कपड़े कटते है महज़,करके देख विचार।
देह कभी कटते नहीं,कपड़ों के अनुसार।।
मूल्यवान हर चीज का,होता बड़ा महत्त्व।
इसीलिए विश्वास से,रखते सब अपनत्व।।
अंगरेजों के बाद जब,आये ये कंगरेज।
सत्ता को समझे सदा,केवल माल दहेज।।
ऐसा कुछ अभियान कर,उड़े पाक की नींद।
नहीं हमें मंजूर अब, होना नित्य शहीद।।
पत्थरबाजी से करें, बंदूकें ही बात।
तभी मिटेगी दहशती,काली वाली रात।।
बिल्कुल अच्छा है नहीं,उनका ये अंदाज़।
जाने क्यों अपने लगे,उनको पत्थरबाज।।
तोड़ फोड़ गठजोड़ की,दिखती ऐसी होड़।
राजनीति में पुत्र ने,दिया पिता को छोड़।।
नहीं किसी के बाप का,नौकर रहा किसान।
दाता बन देता रहा,सबको जीवन दान।।
कुर्सी हित जारी सतत् ,कोशिश यहाँ तमाम।
कुछ दंगे करवा रहे,ले किसान का नाम।।
सदा किसानों ने किया,धरती का शृंगार।
दाता बन सबको दिया,जीवन का उपहार।।
रहे श्रेष्ठ भारत सदा,करें मंत्र ये सिद्ध।
हर सत्ता का लक्ष्य हो,बने किसान समृद्ध।।
श्रमजीवी इस देश के,देते सबको सीख।
भूखे पेट सो जाते,नहीं माँगते भीख।।
स्वाभिमान की मूर्ति हैं,दाता आज किसान।
उनको भिखमंगा यहाँ,दिखा रहे शैतान।।
जिसको भारत ने कहा,धरती का भगवान।
उस किसान का कर रही,राजनीति नुकसान।।
रहे श्रेष्ठ भारत सदा,करें मंत्र ये सिद्ध।
हर सत्ता का लक्ष्य हो,बने किसान समृद्ध।।
मातृभूमि लगने लगी,जिनको अब अपमान।
मरने जाना चाहते,वे अब पाकिस्तान।।
दुष्टमना करते यहाँ,सदा घोर नुकसान।
मगर बिना विचलित हुए,करो लक्ष्य संधान।।
वक्त देखकर चुप रहो,धैर्य धरो दिनरात।
आशा रख कि आएगा,निश्चित नवल प्रभात।।
काँटो को दूँगा कभी,निश्चित सही जवाब।
पहले दिल में रोप लूँ,सुरभित एक गुलाब।।
तमल थिलेगा बोलते,तुतलाते हर बात।
फिर खाते में माँगते, पहले पंदलह लात।।😊😊😊
कटु,कटुता में भेद है,रखिये मत संदेह।
कटुता में ईर्ष्या भरी,कटु में सत्य सनेह।।
राष्ट्र भक्त को गालियाँ,चमचों का सम्मान।
बता ज़रा कैसे सहे,अब ये हिंदुस्तान।।
बाजारों के दौर में,रहे असत् फल फूल।
स्वार्थ साधना ही रहा,जिनका मूल उसूल।।
विपदा में धन बुद्धि है,धर्म है धन परलोक।
सद्चरित्र धन सदा का,हर लेता है शोक।।
जातिवाद,परिवार के,रक्षक सभी दलाल।
भ्रष्टाचार के पक्ष में,ठोक रहे अब ताल।।
फिर से सत्ता चाहते,भ्रष्ट विषैले नाग।।
चारा,टूजी, चिटफंड,का जिनके सिर दाग।
जिनके भ्रष्टाचार से,देश रहा बदहाल।
नोटबंदी ने छिल दी,उनकी मोटी खाल।।
बिन लाठी संभव नहीं,बंद श्वान की भौंक।
विनय न मानत दुष्टमना, मिले जहाँ भी ठोक।😊😊
अवसरवादी योग का,कुर्सी वाला मंत्र।
राजनीति के मायने,सांठगांठ, षड़यंत्र।।
लोकतंत्र चुनता नहीं,जब सीधे परधान।
मनमर्जी करते सदा,आपस में शैतान।।
संविधान में हो यहाँ,निश्चित एक विधान।
जनता सीधे चुन सके,अपना राष्ट्र प्रधान।।
राजनीति में हैं घुसे,जब तक खल,शैतान।
तब तक पूरा व्यर्थ है,लोकशक्ति मतदान।।
अपराधी नेता यहाँ,करते देश अनाथ।
बलात्कार करते सदा,लोकतंत्र के साथ।।
राजनीति के खेल में,चलता सदा लबेद।
नंगा बोले दूजै से,पाजामे में छेद।।
रहती थीं निश्चित कभी,गाय,भैंस हर द्वार।
वहाँ अधिकतर अब दिखे,खड़ी चमकती कार।।
एक तरफ तो चाहिए,सस्ते चावल दाल।
फिर झूठे क्यों रो रहे,हैं किसान बदहाल?
छाया,फल लेकर करे,सदा पेड़ से घात।
छेद तना खोखर करे,कठफोड़े की जात।।
जाति स्वभाव मिटे नहीं, हो चाहे विद्वान।
करवा देता आचरण,से अपनी पहचान।।
कैसा बनता जा रहा,अपना हिंदुस्तान।
देश भक्त को गालियाँ, जिन्ना का गुणगान।।
वाणी है अभिव्यक्ति का ,इक शाश्वत सृंगार।
शब्द-कमल करते जिसे,सुरभित अरु साकार।।
कुचिन्तन पर कीजिए,निशदिन सहज प्रहार।
शब्द परिष्कृत बोलिए,ले मन मे मनुहार।।
शस्त्र मुक्ति का बन सदा,करते व्याधि विनष्ट।
शब्द परिष्कृत मंत्र हैं,हर लेते हर कष्ट।।
अविवेकपूर्ण शब्द का,पड़ता गलत प्रभाव।
दुविधा,दुश्चिंता बढ़े,बढ़ते सदा तनाव।।
शब्द चयन में कीजिये,सही गलत का ध्यान।
परिणामों को सोचकर,हो वाणी संधान।।
अगर सुमंगल भाव से,रहें सुचिंतित बोल।
उपदेशों के रूप में,बन जाते अनमोल।।
दिखता नहीं विपक्ष में, नीती,नीयत,नेतृत्व।।
खत्म न हो जाये कहीं,काँगरेस का अस्तित्व।।
आत्म स्वार्थ संकीर्णता,कुंठा जिनमें आज।
कमरों से बाहर नहीं,उनका देश ,समाज।।
फटना तो तय है हृदय,चाहे जितना जोड़।
रिश्तों के जब दूध में,नींबू रहे निचोड़।।
नित विष की खेती करे,खुद ही जब इंसान।
अमृत फल की क्यों भला,सुने बात भगवान।।
2018 में-
💐प्यार और सहकार में,लेकर मन में हर्ष।💐
💐इक दूजे को दे दिए,अब तक चौंतिस वर्ष।।💐
दानवता के पक्ष में,जबसे बढ़े कुकृत्य।
मानवता लगने लगी,अकिंचित्कर इक भृत्य।।
मैं जीवन के जंग की,लिखता हूँ ललकार।
रखता नहीं स्वभाव में,नकली जय जयकार।।
बिना सतत् संघर्ष के,जीवन बनता रोग।
फिर भी कुछ को चाहिए,बिना कर्म सुख भोग।।
छिछोरेपन का जिसको,लगा हुआ है रोग।
सही बुरा समझे नहीं,कितना कर उतजोग।।
मिडिया की टट्टूगिरी,देखा हिंदुस्तान।
अपराधी के पक्ष में,बेच दिया ईमान।।
कभी उसे मत दीजिए,सद् शिक्षा का दान।
जिसके घुटनों में बसा,समझ-बूझ औ ज्ञान।।
जो विचार से शून्य है,होता वृषभ समान।
नहीं ठिकाना कब कहाँ,कर देगा अपमान।।
नैतिकता,आदर्श की,रही नहीं वो बात।
राजनीति के मायने,कल,बल,छल अरु घात।।
धीरे से ज्यों आ गए,देखा आज नरेश!
तुम भी आ जाओ भई, माया अरु अखिलेश।।
क्यों कुर्सी के खेल में,हो जाते बलिदान?
राजनीति का मोहरा,बनकर सदा किसान।।
तू ही कह मक्खन,दही,कैसे कोई पाय।
रंग देख बस दूध सा,चूना मथता जाय।।
लोकतंत्र की शक्ति ने,किया वाम को पस्त।
लाल किला अब हो गया,पूर्वोत्तर में ध्वस्त।।
लेफ्ट से राईट हुआ,त्रिपुरा का अंदाज।
लाल हटा कर दे दिया,केसरिया को ताज।।
जला होलिका घृणा की,खिला प्रेम का रंग।
गीत मिलन का मिल गले,आओ गाएँ संग।।
पूँछ हिलाना धर्म है,पैर चाटना पर्व।
कुत्तागीरी पर सदा,करते हैं कुछ गर्व।।
कर्म चिकीर्ण व्यक्तित्व जब,करता है सत्संग।
गोतीत हो तब गोचर का,रचता सत्य प्रसंग।।
जाति नाम पर कुछ लड़ें,निश्चित कुछ धर्मार्थ।
लेकिन पति पत्नी लड़ें, बिना वजह निस्वार्थ।।😊😊😊
बिना सतत् संघर्ष के,दूजा नहीं उपाय।
सूकर बनना है सुकर,दुष्कर बनना गाय।।
सख्त कदम से ही बने,बिगड़े सारे काज।
कैंसर का कीमो बिना,होता नहीं इलाज।।
नहीं बचेंगे भेड़िए,चूषक,शोषक जंतु।
नित उनके अब खुल रहे,घोटालों के तंतु।।
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मातृभाषा दिवस पर सगरी भासा भासी लोगन के अउलाह बधाई!हमार कुछ दोहा फेर से हमरा मातृभाषा में।
सुन्नर,मधुरी बोल आ, लेके सहज सनेस।
भोजपुरी के बेल इ,फइलल देस बिदेस।
बीस करोड़न लोग के,जीवन के रस धार।
भोजपुरी माँगत बिया,अब आपन अधिकार।।
भोजपुरियन के देखि लीं,मन के मधुर सुभाव।
रहल कबो ना आजु ले,हिन्दी से टकराव।।
भोजपुरियन से बा भरल,यूपी अउर बिहार।
उहे बनावेला सदा,दिल्ली के सरकार।।
अक्खड़पन भरपूर आ,दिल से सहज पवित्र।
स्वाभिमान भोजपुरिया,होला शुद्ध चरित्र।।
माई भासा ही असल,मनई के पहचान।
दोसर भासा ले सकी, ना ओकर स्थान।।
संस्कृति के पहचान के,सबसे सुन्नर नेग।
भासा जब साहित्य के,ओर बढ़ावे डेग।।
अपना भासा के अलग,होला कुछ जज्बात।
बड़ी आसानी से कहे,दिल के सगरी बात।।
भोजपुरी पहुँचल कबो,ना राजा दरबार।
सदा उपेक्षा ही मिलल,राजतंत्र के द्वार।।
भोजपुरी के नाम पर,झंडा आज तमाम।
खुद के जिंदाबाद बा,औरन के बदनाम।।
भोजपुर में भोजपुरी,नया कवन बा बात।
अब त एहके बोलताs,कलकत्ता-गुजरात।।
भजन भजेलें उ भले,भोजपुरी के रोज।
लउके भासा से अधिक,उनकर आपन पोज।।
भोजपुरी फुहड़ता पर,करिके कड़क प्रहार।
सुघर सही हर बात के,निसदिन करीं प्रचार।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
.......…...........................................
करुणा परदुख आग है,प्रेम सुखद अहसास।
एक नयन का नीर है,एक हृदय की प्यास।।
दया,अहिंसा,दान संग, सतत् अनाविल धैर्य।
आत्म विजय से ही मिले, करुणा का ऐश्वर्य।।
माना तन,मन के लिए,पीड़ा है इक दंड।
पर करुणा बिन है सदा,जीवन इक पाखंड।।
जीवन के संसार का,अद्भुत है यह नेम।
करुणा में पीड़ा पले,सुख को पाले प्रेम।।
करुणा काँटों की चुभन,प्रेम प्रफुल्लित फूल।
दोनों के अपने अलग,होते रूप, उसूल।।
स्वागत है तब वाल पर,सही कीजिए तर्क।
नहीं व्यक्तिगत कीजिए,कोई कभी कुतर्क।।
नित्य करूँगा स्वार्थ पर, चोट सदा भरपूर।
तुझको गर लगता बुरा,रहो यहाँ से दूर।।
जिसके पास न शब्द हैं,उचित न कोई तर्क।
कुंठाओं से ग्रस्त हो,करते सदा कुतर्क।।
भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
दोहे मेरे बोलते ,खरी खरी सी बात।।
नहीं समझता हूँ सुनो,कभी किसी को नीच।
और मित्र पर फेकता,नहीं कभी भी कीच।।
सुन 'मनोज' होता नहीं,इतना बड़ा नवाब।
गर अपने देते नहीं,सुरभित प्रेम गुलाब।।
नफ़रत पाले मर गया,भरी जवानी ख़्वाब।
इक बुड्ढा जीता रहा,पाकर प्रेम गुलाब।।
सीखा सदा गुलाब से,अद्भुत एक उसूल।
खुद रख लेता शूल है, दूजों को दे फूल।।
जीवन में विश्वास औ',स्थिर होने की शक्ति।
साथ शांति प्रस्थापना,का साधन है भक्ति।।
सरल नीति अपनाइए,नहीं कुटिल के साथ।
कर देगा असहज निरा,निर्बल और अनाथ।।
जाति एक यथार्थ है,जातिवाद है व्यर्थ।
दुनिया के इस सत्य को,समझे वहीं समर्थ।।
कुंठाओं की ठोक कर,दिल में अपने कील।
मानव करता आ रहा,खुद को सदा ज़लील।।
सैन्य दिवस पर है तुम्हें, नमन हिन्द के शेर!
बारह कुत्तों को किया,पल में तुमने ढेर।।
सुसिद्धिर्भवति कर्मजा,का करिए नित पाठ।
हट जाएंगे देखना,स्वयं राह के काठ।।
जब भी चाहे मार दे,विश्वासों को लात।
यहीं आज का सत्य है,स्वार्थपूर्ति औ घात।।
पैसे में दम बहुत है,फिर भी है बेकार।
आज जोड़ने की जगह,तोड़ रहा परिवार।।
अच्छा क्या है क्या बुरा,नहीं जिसे पहचान।
वहीं कुसंगति में फँसा, जीवन में इंसान।।
गर्वीले इतिहास पर,भले लग रही चोट।
भंसाली को चाहिए,पद्मावत से नोट।।
व्यापारिक हर सोच का,होता यही चरित्र।
पैसा ही माँ बाप है,पैसा ही है मित्र।।
धीरे धीरे हो गया,जीवन इक उपहास।
लालू जी को है मिला,फिर से कारावास।।
न्यायालय ने कर दिया,फिर से आज अनाथ।
जगन्नाथ भी जुड़ गए,लालू जी के साथ।।
बहुत दोगला मीडिया,दिखे आचरण हीन।
चंदन पर करता नहीं,अब काली स्क्रीन।।
संसद में जब तब दिखे,चैनल में नित यार।
कुत्तों-सी भौं भौं लिए,शब्दों की बौछार।।
टीवी एंकर में दिखे,कितना भरा गुबार।
समाचार पढ़ता सदा,चिल्लाकर हर बार।।
समाचार बनते सदा,लेकर षष्ठ ककार।
क्या,कब,कहाँ,कौन और,क्यों,कैसे आधार।।
समाचार है सूचना,बिन कोई लाग लपेट।
मिर्च मसाला डालकर,करते मटियामेट।।
नहीं रही निष्पक्षता,दिखे महज़ हथियार।
विचारधारा के बने,ये चैनल सरदार।।
लोकतंत्र में हम जिसे,समझे चौथा स्तंभ।
बाँट रहा वो देश में,जाति,मज़हबी दंभ।।
मार डालते सत्य का,रूप हमेशा शिष्ट।
समाचार में डालकर,संदेहों का ट्विस्ट।।
पत्रकारिता बन चुकी,बाजारु अब माल।
पैसे खातिर कर रही,निशदिन सत्य हलाल।।
जब नक्सली चरित्र पर,किया गया इक शोध।
पूँजीवादी बन चुके,कर पूँजी प्रतिरोध।।
सूचनाओं में सनसनी,धोखे का व्यापार।
बीच हमारे बाँटकर,करते अत्याचार।।
सत्य सूचना की जगह,विज्ञापन अश्लील।
जिसे देख दर्शक सदा,होते यहाँ जलील।।
चौथा खंभा हो चुका,सड़ियल आज अँचार।
जिसका नहीं समाज से,सरोकार या प्यार।।
सौ में नब्बे सूचना,राजनीति से आज।
देता है ये मीडिया,ले घटिया अंदाज।।
कुतर्कों से मत करो,रिश्ते कभी खराब।
नहीं जरूरी क्रोध में,दो तुम शीघ्र जवाब।।
गाँव,गरीब,किसान का,दिया बजट में ध्यान।
निश्चित हिन्दुस्तान का,होगा अब उत्थान।।
उनको भी मिलता कहाँ,जीवन में सम्मान।
पद-मद में जो मातहत,का करते अपमान।।
वक्त बनाया है मुझे,गूंगा,बहरा,मौन।
ताड़ रहा हूँ जिंदगी,आखिर हूँ मैं कौन।।
लोकसभा में देखिए,कुत्तों -सी भौंकाल।
एक अकेला शेर ही,छीले उनकी खाल।।
अस्सी प्लस एनपीए,बतलाए बस तीस।
इटलीवादी हैं किते,बड़े चार सौ बीस।।
सुर्पनखा हँसती दिखी,लेकर अट्टाहास।
राज्यसभा में देश का ,उड़ा,उड़ा उपहास।।
अनपढ़ अपने लोक का,करे अधिक सम्मान।
जिसके बल पर ही बचा,स्वभाषा का ज्ञान।।
सहज,सरल,स्वभाव का,लिए मधुर मकरंद।
लोक चेतना में घुमे,स्वभाषा स्वच्छंद।।
वेलेंटाइन बन चुका, बाजारू व्यापार।
जिसको बच्चे समझते,नासमझी में प्यार।।
केवल कुर्सी के लिए,गड़े सियासी टेंट।
जाति-धर्म पर मौत भी,इवेंट मैनेजमेंट।।
भोला व वेलेंटाइन, का अद्भुत संयोग।
एक हृदय की है दवा,एक बाजारु रोग।।
कौन आँख करती बता,बहुत अधिक बेचैन।
चंचल चितवन मद भरे,या दर्दीले नैन।।
'न'अकेला रहकर होता,निश्चित सदा नकार।
मन से मिलकर हो गया,मनन,नमन साकार।।
नोटबंदी का दिखता,चोरों पर तासीर।
बवासीर से कुछ दुखी,कुछ को है नकसीर।।
जब जब आपस में भिड़े,स्वार्थ भरे दो यार।
दुश्मन पीछे से किए, तब तब सख्त प्रहार।
धर्म न पूजा पाठ है,धर्म न कोई कैद।
धर्म मुक्ति का मार्ग है,बाकी बात लबेद।
मर्म न जाने धर्म का,भ्रम पाले कुछ लोग।
पेट,देह तक हैं सीमित,करें स्वार्थ उद्योग।
दस लक्षण हैं धर्म के,सुंदर जीवन वेद।
नास्तिकता समझे नहीं,जीवन का यह भेद।
मजहब वाली बात को,कहिए कभी न धर्म।
इसका मतलब ये हुआ,समझ न पाए मर्म।
महज सियासत तक रही,जिसकी अपनी दृष्टि।
समझ न पायेगा कभी,धर्म,न्याय की सृष्टि।
मिले धर्म से देश को,तुलसी,सूर,कबीर।
मज़हब में जन्नत मिले, संग बहत्तर हूर।।😊
कुछ लोगों की नजर पर,चढ़ा स्वार्थ का फैट।
इवियम भी संघी लगे,हिन्दू वीवीपैट।।
नींद खराब करने के,तीन मुख्य किरदार।
मच्छर,मोबाइल तथा मोदी जिम्मेदार।।😊😊
खुशी प्राप्ति का सूत्र है, औ' जीवन आधार।
आवश्यकता पूर्ण कर,इच्छाओं को मार।।
भारत की संस्कृति के,करम गए ज्यों फूट।
छूट न देकर टैक्स पर,दिया सेक्स पर छूट।।
सुप्रिमकोर्ट ने दे दिया, ऐसा आज दलील।
छिनरा,छिनरी शब्द अब,रहे नहीं अश्लील।
छिनरों को अब मिल गया,लड्डू दोनों हाथ।
छिनरी भी स्वच्छन्द हैं,रहना किसके साथ।।
व्यभिचारी किसको कहें,किसको कहें अधर्म।
समलैंगिक,एडलटरी,न्यायिक नैतिक कर्म।।
मकड़ी से कारीगरी,बगुले से तरकीब।
चींटी से सीख परिश्रम,होगे नहीं गरीब।।
क्षण में जो संशय करे,क्षण में ही विश्वास।
ऐसा व्यक्ति बना नहीं,कभी किसी का खास।।
दिल में तेरे रोम क्यों,मन में पाकिस्तान।
रोम रोम में बसा ले,अब तो हिन्दुस्तान।।
मन-माखन-मिसरी करो,तन को गोकुल धाम।
बिन बुलाए आएँगे,हृदय-गेह में श्याम।।
देकर या तो छोड़कर,जाता है इंसान।
ले जाने का जगत से,होता नहीं विधान।।
भक्त खड़ा है इक तरफ,दूजे तरफ गुलाम।
इक भारत भारत जपे,इक इटली का नाम।।
रचना मेरी हो सके,अर्थवान साकार।
लाइक के संग दीजिए,अपना शुभ्र विचार।।
सर्वोत्तम उपहार में,प्रोत्साहन है खास।
जीवन में जिसको मिले,बढ़े आत्मविश्वास।।
मोह तमस मिटता रहा,ज्योतित हुआ भविष्य।।
आत्मदान जब गुरु किया,आत्म समर्पण शिष्य।।
बूढ़े करुणानिधि मरे,मिलने गए हजार।
सैनिक सीमा पर मरे, किसने किया पुछार?
तन के हित आसन तथा,प्राणायाम निदान।
करो परम हित समर्पण,आत्म-प्रेम हित ध्यान।।
नए बिंब,प्रतीक नए,उगा पंख उपमान।
छंदों के नित व्योम में,भरते रहो उड़ान।।
अब भी दुनिया के वही,देश बने सरदार।
जिसके हिस्से में बड़े,संहारक हथियार।।
दादा जी की सल्तनत,क्यों नाना के नाम?
तुम फिरोज के खून हो,नेहरू का क्या काम?
जिनके भ्रष्टाचार ने,किया मुल्क बदहाल।।
ये नेता,साहब दिखे,मगर यहाँ खुशहाल।।
जनवाद के कवियों का,देखा भोग विलास।
पाँच सितारा होटलों,में जिनका नित वास।।
कवि जनवादी कर रहे,जन-मन का उपहास।
खुद महलों में रह रचे,झूठे दुख-संत्रास।।
जन कवियों का आचरण,देख हुआ आश्चर्य।
दुख-पीड़ा को बेचकर,भोग रहे ऐश्वर्य।।
जिस दिल में बस घृणा के,फैले पेड़ बबूल।
वहाँ उगेंगे किस तरह,सहज स्नेह के फूल।।
बन जाएंगे काम सब,सूत्र बड़े अनमोल।
साहब की बीवी पटा, नित्य नमस्ते बोल।।
संयम और लिहाज को,कमजोरी नहि मान।
कर सकता है पलटकर, दूजा भी अपमान।।
अलमारी नहि कब्र में,नहीं कफ़न में जेब।
कहाँ रखोगे संपदा,जीवन एक फरेब।।
श्रमजीवी होता नहीं, पिछड़ा,दलित अनाथ।
महज़ सियासी सोच है,कुर्सी आये हाथ।।
दलित,पिछड़ा बनने का,अपना ही आनंद।
बिना कर्म जब फल मिले,क्यों करें दंद फंद।।
जाते थे जो कब्र पर,रोजा रखकर रोज।
मंदिर मंदिर घूमकर,वोट रहे अब खोज।।
अंकित,चंदन और मधु या डॉक्टर नारंग।
हुआ नहीं क्या मॉब का,लिंचिंग इनके संग।
औषधि-सी होती सदा,दोहे की तासीर।
शब्द,अर्थ अरु भाव से,मिटती मन की पीर।।
सच्चर खच्चर-सा लिखा,कुंठा में फरमान।
सिर्फ धर्म के नाम पर,बाँटा हिंदुस्तान।।
बेईमान से न करें,आप कभी उम्मीद।
कर देते विश्वास की,मिट्टी सदा पलीद।।
कालनेमि कुछ हैं यहाँ,विविध रुप धरि लेऊ।
दिल में तो जिन्ना रखे,कंधे पर जनेऊ।।
कानों के कच्चे दिखे,मुझको लोग तमाम।
सत्य बिना जाँचे करें,अंधों जैसे काम।।
उसे चाहिए मुफ्त में,जीवन में उत्कर्ष।
पर अच्छे दिन कब मिले,बिना किये संघर्ष।।
चाँद सितारे छू लिए,छुए न माँ के पैर।
उसका तो भगवान भी,नहीं करेगा खैर।।
मंगल ग्रह तक पहुँचकर,करता रहा गुमान।
पहुँच न पाया हृदय तक,मगर अभी इंसान।।
उसकी खातिर हो गए,रिश्ते सब अनजान।
पैसा जिसका लक्ष्य है,पैसा ही भगवान।।
जिसकी ओछी सोच है,मेढक जैसी कूद।
निश्चित ऐसे शख्स का,होता तुच्छ वजूद।।
इंसानों के रूप में,घूमते मिले करैत।
मजबूरी में फिर हमें,बनना पड़ा लठैत।।
सिखा रहे इंसान को,वे हीं आज शऊर।
जिसमें नहीं तमीज़ खुद,पद मद में बस चूर।।
गर तेरे जिस मित्र से,मिलते नहीं विचार।
फिर भी मत करिए कभी,उससे दुर्व्यवहार।।
भिक्षा में भी गर मिले, शिक्षा का उपहार।
आत्मज्ञान हित कीजिए,मन से उसे स्वीकार।।
समता के रिश्ते बनें,ऐसे सहज प्रगाढ़।
सूखती नदियाँ न सुखें,भरीं में न हो बाढ़।।
मन क्रोधी,दिल संयमी,सदा भिन्न व्यवहार।
मगर प्रेम के योग से,रहते एकाकार।।
मिठबोलवा बस मुँह से,भरल छहँत्तर देह।
रिश्तन के भी नित ठगे,देके झूठ सनेह।।
राष्ट्र बने मजबूत अरु,दुश्मन बनें अनाथ।
दुष्टदलन में दीजिए,सेना का अब साथ।।
पहले दुनिया-बैंक में,जमा करो सहयोग।
ब्याज सहित पाओ पुनः,प्यार भरा रसभोग।।
रक्षक बन रक्षा करे,रखता सदा पवित्र।
शिक्षा से भी है बड़ा,मानव सहज चरित्र।
कठिन,कष्टकारक रही,लक्ष्य प्राप्ति की प्यास।
मगर नहीं निष्फल रहा,सच का सतत् प्रयास।।
बहुत पुरानी रीति है,नहीं चली ये आज।
सच बोलो तो बोलता,पागल हमें समाज।।
सुख-दुख चिंता से उपर,उठता जब इंसान।
आसमान भी झूककर,देता है सम्मान।।
मूल्यहीन सिद्धांत को,बना कभी मत मित्र।
बिना सफलता ही जियो,लेकर शुद्ध चरित्र।।
शिक्षा से शिक्षित बना,और बना विद्वान।
लेकिन बिना चरित्र के,मानव नहीं महान।।
प्रतिभा से भी उच्च जो,पावन और पवित्र।
जीवन पर शासन करे,कहते जिसे चरित्र।
पद प्रभुता-मद प्लेग सा,अंत समय दे कष्ट।
जिसको छू देता उसे,कर देता है भ्रष्ट।।
लोकतंत्र का हो गया,उसी समय प्राणांत।
राजनीति के जब हुए,मूल्यहीन सिद्धांत।
पाकिस्तान के झंडे,लहराएँ गर दुष्ट।
दौड़ाकर ठोको उन्हें,बंदूकों से पुष्ट।।
😊हम लेते मट्ठा सदा,तुम बीयर का पैग।
फिर भी हम दोनों रहे ,इक दूजे से टैग।।😊
ज्ञान,बुद्धि, साहस तथा,ईश्वर में विश्वास।
असमय के ये मित्र हैं,रखिए दिल के पास।।
पढ़ा रहे हैं आज वे,हमें कर्म के पाठ।
जिसने जीवन भर पढ़ा,सोलह दूनी आठ।।
लिखने भी आता नहीं, सही सही दो शब्द।
वही लिखने बैठे हैं,आज मेरा प्रारब्ध।।
ऊँचे चढ़ कर सीख लो,कुछ तो करना प्यार।
वरना नीचे उतरना,पड़ता इकदिन यार।।
सृजन कभी रखता नहीं,विध्वंसों को याद।
यही सृष्टि का सत्य है,फल ही बनता खाद।।
खिलकर झड़ने का कभी,रखता नहीं हिसाब।
सतत् पौध रचता नवल,सुरभित एक गुलाब।।
राजनीति व्यापार की,हुई आज पर्याय।
सत्ता पाकर चाहती,पूर्ण सुरक्षित आय।।
आग सरीखा जेठ जब, जग झुलसाता खूब |
तब भी पत्थर फोड़कर, उग आती है दूब।
मेरे अपने न करें,गर पीछे से वार।
मेरे मरने के लिए,बना नहीं हथियार।।
मैं अपनों के सामने,हार गया हर बार।
यही एक विश्वास रख,देंगे एकदिन प्यार।।
आज सियासी दौड़ ने,दिया यहीं संदेश।
भक्त बन गई भाजपा,अंधभक्त कांग्रेस।।
लोभ,घृणा इंसान को,कर देते कमजोर।
पर संयम एक मंत्र है,रखता सदा बटोर।।
कपड़े कटते है महज़,करके देख विचार।
देह कभी कटते नहीं,कपड़ों के अनुसार।।
मूल्यवान हर चीज का,होता बड़ा महत्त्व।
इसीलिए विश्वास से,रखते सब अपनत्व।।
अंगरेजों के बाद जब,आये ये कंगरेज।
सत्ता को समझे सदा,केवल माल दहेज।।
ऐसा कुछ अभियान कर,उड़े पाक की नींद।
नहीं हमें मंजूर अब, होना नित्य शहीद।।
पत्थरबाजी से करें, बंदूकें ही बात।
तभी मिटेगी दहशती,काली वाली रात।।
बिल्कुल अच्छा है नहीं,उनका ये अंदाज़।
जाने क्यों अपने लगे,उनको पत्थरबाज।।
तोड़ फोड़ गठजोड़ की,दिखती ऐसी होड़।
राजनीति में पुत्र ने,दिया पिता को छोड़।।
नहीं किसी के बाप का,नौकर रहा किसान।
दाता बन देता रहा,सबको जीवन दान।।
कुर्सी हित जारी सतत् ,कोशिश यहाँ तमाम।
कुछ दंगे करवा रहे,ले किसान का नाम।।
सदा किसानों ने किया,धरती का शृंगार।
दाता बन सबको दिया,जीवन का उपहार।।
रहे श्रेष्ठ भारत सदा,करें मंत्र ये सिद्ध।
हर सत्ता का लक्ष्य हो,बने किसान समृद्ध।।
श्रमजीवी इस देश के,देते सबको सीख।
भूखे पेट सो जाते,नहीं माँगते भीख।।
स्वाभिमान की मूर्ति हैं,दाता आज किसान।
उनको भिखमंगा यहाँ,दिखा रहे शैतान।।
जिसको भारत ने कहा,धरती का भगवान।
उस किसान का कर रही,राजनीति नुकसान।।
रहे श्रेष्ठ भारत सदा,करें मंत्र ये सिद्ध।
हर सत्ता का लक्ष्य हो,बने किसान समृद्ध।।
मातृभूमि लगने लगी,जिनको अब अपमान।
मरने जाना चाहते,वे अब पाकिस्तान।।
दुष्टमना करते यहाँ,सदा घोर नुकसान।
मगर बिना विचलित हुए,करो लक्ष्य संधान।।
वक्त देखकर चुप रहो,धैर्य धरो दिनरात।
आशा रख कि आएगा,निश्चित नवल प्रभात।।
काँटो को दूँगा कभी,निश्चित सही जवाब।
पहले दिल में रोप लूँ,सुरभित एक गुलाब।।
तमल थिलेगा बोलते,तुतलाते हर बात।
फिर खाते में माँगते, पहले पंदलह लात।।😊😊😊
कटु,कटुता में भेद है,रखिये मत संदेह।
कटुता में ईर्ष्या भरी,कटु में सत्य सनेह।।
राष्ट्र भक्त को गालियाँ,चमचों का सम्मान।
बता ज़रा कैसे सहे,अब ये हिंदुस्तान।।
बाजारों के दौर में,रहे असत् फल फूल।
स्वार्थ साधना ही रहा,जिनका मूल उसूल।।
विपदा में धन बुद्धि है,धर्म है धन परलोक।
सद्चरित्र धन सदा का,हर लेता है शोक।।
जातिवाद,परिवार के,रक्षक सभी दलाल।
भ्रष्टाचार के पक्ष में,ठोक रहे अब ताल।।
फिर से सत्ता चाहते,भ्रष्ट विषैले नाग।।
चारा,टूजी, चिटफंड,का जिनके सिर दाग।
जिनके भ्रष्टाचार से,देश रहा बदहाल।
नोटबंदी ने छिल दी,उनकी मोटी खाल।।
बिन लाठी संभव नहीं,बंद श्वान की भौंक।
विनय न मानत दुष्टमना, मिले जहाँ भी ठोक।😊😊
अवसरवादी योग का,कुर्सी वाला मंत्र।
राजनीति के मायने,सांठगांठ, षड़यंत्र।।
लोकतंत्र चुनता नहीं,जब सीधे परधान।
मनमर्जी करते सदा,आपस में शैतान।।
संविधान में हो यहाँ,निश्चित एक विधान।
जनता सीधे चुन सके,अपना राष्ट्र प्रधान।।
राजनीति में हैं घुसे,जब तक खल,शैतान।
तब तक पूरा व्यर्थ है,लोकशक्ति मतदान।।
अपराधी नेता यहाँ,करते देश अनाथ।
बलात्कार करते सदा,लोकतंत्र के साथ।।
राजनीति के खेल में,चलता सदा लबेद।
नंगा बोले दूजै से,पाजामे में छेद।।
रहती थीं निश्चित कभी,गाय,भैंस हर द्वार।
वहाँ अधिकतर अब दिखे,खड़ी चमकती कार।।
एक तरफ तो चाहिए,सस्ते चावल दाल।
फिर झूठे क्यों रो रहे,हैं किसान बदहाल?
छाया,फल लेकर करे,सदा पेड़ से घात।
छेद तना खोखर करे,कठफोड़े की जात।।
जाति स्वभाव मिटे नहीं, हो चाहे विद्वान।
करवा देता आचरण,से अपनी पहचान।।
कैसा बनता जा रहा,अपना हिंदुस्तान।
देश भक्त को गालियाँ, जिन्ना का गुणगान।।
वाणी है अभिव्यक्ति का ,इक शाश्वत सृंगार।
शब्द-कमल करते जिसे,सुरभित अरु साकार।।
कुचिन्तन पर कीजिए,निशदिन सहज प्रहार।
शब्द परिष्कृत बोलिए,ले मन मे मनुहार।।
शस्त्र मुक्ति का बन सदा,करते व्याधि विनष्ट।
शब्द परिष्कृत मंत्र हैं,हर लेते हर कष्ट।।
अविवेकपूर्ण शब्द का,पड़ता गलत प्रभाव।
दुविधा,दुश्चिंता बढ़े,बढ़ते सदा तनाव।।
शब्द चयन में कीजिये,सही गलत का ध्यान।
परिणामों को सोचकर,हो वाणी संधान।।
अगर सुमंगल भाव से,रहें सुचिंतित बोल।
उपदेशों के रूप में,बन जाते अनमोल।।
दिखता नहीं विपक्ष में, नीती,नीयत,नेतृत्व।।
खत्म न हो जाये कहीं,काँगरेस का अस्तित्व।।
आत्म स्वार्थ संकीर्णता,कुंठा जिनमें आज।
कमरों से बाहर नहीं,उनका देश ,समाज।।
फटना तो तय है हृदय,चाहे जितना जोड़।
रिश्तों के जब दूध में,नींबू रहे निचोड़।।
नित विष की खेती करे,खुद ही जब इंसान।
अमृत फल की क्यों भला,सुने बात भगवान।।
2018 में-
💐प्यार और सहकार में,लेकर मन में हर्ष।💐
💐इक दूजे को दे दिए,अब तक चौंतिस वर्ष।।💐
दानवता के पक्ष में,जबसे बढ़े कुकृत्य।
मानवता लगने लगी,अकिंचित्कर इक भृत्य।।
मैं जीवन के जंग की,लिखता हूँ ललकार।
रखता नहीं स्वभाव में,नकली जय जयकार।।
बिना सतत् संघर्ष के,जीवन बनता रोग।
फिर भी कुछ को चाहिए,बिना कर्म सुख भोग।।
छिछोरेपन का जिसको,लगा हुआ है रोग।
सही बुरा समझे नहीं,कितना कर उतजोग।।
मिडिया की टट्टूगिरी,देखा हिंदुस्तान।
अपराधी के पक्ष में,बेच दिया ईमान।।
कभी उसे मत दीजिए,सद् शिक्षा का दान।
जिसके घुटनों में बसा,समझ-बूझ औ ज्ञान।।
जो विचार से शून्य है,होता वृषभ समान।
नहीं ठिकाना कब कहाँ,कर देगा अपमान।।
नैतिकता,आदर्श की,रही नहीं वो बात।
राजनीति के मायने,कल,बल,छल अरु घात।।
धीरे से ज्यों आ गए,देखा आज नरेश!
तुम भी आ जाओ भई, माया अरु अखिलेश।।
क्यों कुर्सी के खेल में,हो जाते बलिदान?
राजनीति का मोहरा,बनकर सदा किसान।।
तू ही कह मक्खन,दही,कैसे कोई पाय।
रंग देख बस दूध सा,चूना मथता जाय।।
लोकतंत्र की शक्ति ने,किया वाम को पस्त।
लाल किला अब हो गया,पूर्वोत्तर में ध्वस्त।।
लेफ्ट से राईट हुआ,त्रिपुरा का अंदाज।
लाल हटा कर दे दिया,केसरिया को ताज।।
जला होलिका घृणा की,खिला प्रेम का रंग।
गीत मिलन का मिल गले,आओ गाएँ संग।।
पूँछ हिलाना धर्म है,पैर चाटना पर्व।
कुत्तागीरी पर सदा,करते हैं कुछ गर्व।।
कर्म चिकीर्ण व्यक्तित्व जब,करता है सत्संग।
गोतीत हो तब गोचर का,रचता सत्य प्रसंग।।
जाति नाम पर कुछ लड़ें,निश्चित कुछ धर्मार्थ।
लेकिन पति पत्नी लड़ें, बिना वजह निस्वार्थ।।😊😊😊
बिना सतत् संघर्ष के,दूजा नहीं उपाय।
सूकर बनना है सुकर,दुष्कर बनना गाय।।
सख्त कदम से ही बने,बिगड़े सारे काज।
कैंसर का कीमो बिना,होता नहीं इलाज।।
नहीं बचेंगे भेड़िए,चूषक,शोषक जंतु।
नित उनके अब खुल रहे,घोटालों के तंतु।।
............................................................
मातृभाषा दिवस पर सगरी भासा भासी लोगन के अउलाह बधाई!हमार कुछ दोहा फेर से हमरा मातृभाषा में।
सुन्नर,मधुरी बोल आ, लेके सहज सनेस।
भोजपुरी के बेल इ,फइलल देस बिदेस।
बीस करोड़न लोग के,जीवन के रस धार।
भोजपुरी माँगत बिया,अब आपन अधिकार।।
भोजपुरियन के देखि लीं,मन के मधुर सुभाव।
रहल कबो ना आजु ले,हिन्दी से टकराव।।
भोजपुरियन से बा भरल,यूपी अउर बिहार।
उहे बनावेला सदा,दिल्ली के सरकार।।
अक्खड़पन भरपूर आ,दिल से सहज पवित्र।
स्वाभिमान भोजपुरिया,होला शुद्ध चरित्र।।
माई भासा ही असल,मनई के पहचान।
दोसर भासा ले सकी, ना ओकर स्थान।।
संस्कृति के पहचान के,सबसे सुन्नर नेग।
भासा जब साहित्य के,ओर बढ़ावे डेग।।
अपना भासा के अलग,होला कुछ जज्बात।
बड़ी आसानी से कहे,दिल के सगरी बात।।
भोजपुरी पहुँचल कबो,ना राजा दरबार।
सदा उपेक्षा ही मिलल,राजतंत्र के द्वार।।
भोजपुरी के नाम पर,झंडा आज तमाम।
खुद के जिंदाबाद बा,औरन के बदनाम।।
भोजपुर में भोजपुरी,नया कवन बा बात।
अब त एहके बोलताs,कलकत्ता-गुजरात।।
भजन भजेलें उ भले,भोजपुरी के रोज।
लउके भासा से अधिक,उनकर आपन पोज।।
भोजपुरी फुहड़ता पर,करिके कड़क प्रहार।
सुघर सही हर बात के,निसदिन करीं प्रचार।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
.......…...........................................
करुणा परदुख आग है,प्रेम सुखद अहसास।
एक नयन का नीर है,एक हृदय की प्यास।।
दया,अहिंसा,दान संग, सतत् अनाविल धैर्य।
आत्म विजय से ही मिले, करुणा का ऐश्वर्य।।
माना तन,मन के लिए,पीड़ा है इक दंड।
पर करुणा बिन है सदा,जीवन इक पाखंड।।
जीवन के संसार का,अद्भुत है यह नेम।
करुणा में पीड़ा पले,सुख को पाले प्रेम।।
करुणा काँटों की चुभन,प्रेम प्रफुल्लित फूल।
दोनों के अपने अलग,होते रूप, उसूल।।
स्वागत है तब वाल पर,सही कीजिए तर्क।
नहीं व्यक्तिगत कीजिए,कोई कभी कुतर्क।।
नित्य करूँगा स्वार्थ पर, चोट सदा भरपूर।
तुझको गर लगता बुरा,रहो यहाँ से दूर।।
जिसके पास न शब्द हैं,उचित न कोई तर्क।
कुंठाओं से ग्रस्त हो,करते सदा कुतर्क।।
भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
दोहे मेरे बोलते ,खरी खरी सी बात।।
नहीं समझता हूँ सुनो,कभी किसी को नीच।
और मित्र पर फेकता,नहीं कभी भी कीच।।
सुन 'मनोज' होता नहीं,इतना बड़ा नवाब।
गर अपने देते नहीं,सुरभित प्रेम गुलाब।।
नफ़रत पाले मर गया,भरी जवानी ख़्वाब।
इक बुड्ढा जीता रहा,पाकर प्रेम गुलाब।।
सीखा सदा गुलाब से,अद्भुत एक उसूल।
खुद रख लेता शूल है, दूजों को दे फूल।।
जीवन में विश्वास औ',स्थिर होने की शक्ति।
साथ शांति प्रस्थापना,का साधन है भक्ति।।
सरल नीति अपनाइए,नहीं कुटिल के साथ।
कर देगा असहज निरा,निर्बल और अनाथ।।
जाति एक यथार्थ है,जातिवाद है व्यर्थ।
दुनिया के इस सत्य को,समझे वहीं समर्थ।।
कुंठाओं की ठोक कर,दिल में अपने कील।
मानव करता आ रहा,खुद को सदा ज़लील।।
सैन्य दिवस पर है तुम्हें, नमन हिन्द के शेर!
बारह कुत्तों को किया,पल में तुमने ढेर।।
सुसिद्धिर्भवति कर्मजा,का करिए नित पाठ।
हट जाएंगे देखना,स्वयं राह के काठ।।
जब भी चाहे मार दे,विश्वासों को लात।
यहीं आज का सत्य है,स्वार्थपूर्ति औ घात।।
पैसे में दम बहुत है,फिर भी है बेकार।
आज जोड़ने की जगह,तोड़ रहा परिवार।।
अच्छा क्या है क्या बुरा,नहीं जिसे पहचान।
वहीं कुसंगति में फँसा, जीवन में इंसान।।
गर्वीले इतिहास पर,भले लग रही चोट।
भंसाली को चाहिए,पद्मावत से नोट।।
व्यापारिक हर सोच का,होता यही चरित्र।
पैसा ही माँ बाप है,पैसा ही है मित्र।।
धीरे धीरे हो गया,जीवन इक उपहास।
लालू जी को है मिला,फिर से कारावास।।
न्यायालय ने कर दिया,फिर से आज अनाथ।
जगन्नाथ भी जुड़ गए,लालू जी के साथ।।
बहुत दोगला मीडिया,दिखे आचरण हीन।
चंदन पर करता नहीं,अब काली स्क्रीन।।
संसद में जब तब दिखे,चैनल में नित यार।
कुत्तों-सी भौं भौं लिए,शब्दों की बौछार।।
टीवी एंकर में दिखे,कितना भरा गुबार।
समाचार पढ़ता सदा,चिल्लाकर हर बार।।
समाचार बनते सदा,लेकर षष्ठ ककार।
क्या,कब,कहाँ,कौन और,क्यों,कैसे आधार।।
समाचार है सूचना,बिन कोई लाग लपेट।
मिर्च मसाला डालकर,करते मटियामेट।।
नहीं रही निष्पक्षता,दिखे महज़ हथियार।
विचारधारा के बने,ये चैनल सरदार।।
लोकतंत्र में हम जिसे,समझे चौथा स्तंभ।
बाँट रहा वो देश में,जाति,मज़हबी दंभ।।
मार डालते सत्य का,रूप हमेशा शिष्ट।
समाचार में डालकर,संदेहों का ट्विस्ट।।
पत्रकारिता बन चुकी,बाजारु अब माल।
पैसे खातिर कर रही,निशदिन सत्य हलाल।।
जब नक्सली चरित्र पर,किया गया इक शोध।
पूँजीवादी बन चुके,कर पूँजी प्रतिरोध।।
सूचनाओं में सनसनी,धोखे का व्यापार।
बीच हमारे बाँटकर,करते अत्याचार।।
सत्य सूचना की जगह,विज्ञापन अश्लील।
जिसे देख दर्शक सदा,होते यहाँ जलील।।
चौथा खंभा हो चुका,सड़ियल आज अँचार।
जिसका नहीं समाज से,सरोकार या प्यार।।
सौ में नब्बे सूचना,राजनीति से आज।
देता है ये मीडिया,ले घटिया अंदाज।।
कुतर्कों से मत करो,रिश्ते कभी खराब।
नहीं जरूरी क्रोध में,दो तुम शीघ्र जवाब।।
गाँव,गरीब,किसान का,दिया बजट में ध्यान।
निश्चित हिन्दुस्तान का,होगा अब उत्थान।।
उनको भी मिलता कहाँ,जीवन में सम्मान।
पद-मद में जो मातहत,का करते अपमान।।
वक्त बनाया है मुझे,गूंगा,बहरा,मौन।
ताड़ रहा हूँ जिंदगी,आखिर हूँ मैं कौन।।
लोकसभा में देखिए,कुत्तों -सी भौंकाल।
एक अकेला शेर ही,छीले उनकी खाल।।
अस्सी प्लस एनपीए,बतलाए बस तीस।
इटलीवादी हैं किते,बड़े चार सौ बीस।।
सुर्पनखा हँसती दिखी,लेकर अट्टाहास।
राज्यसभा में देश का ,उड़ा,उड़ा उपहास।।
अनपढ़ अपने लोक का,करे अधिक सम्मान।
जिसके बल पर ही बचा,स्वभाषा का ज्ञान।।
सहज,सरल,स्वभाव का,लिए मधुर मकरंद।
लोक चेतना में घुमे,स्वभाषा स्वच्छंद।।
वेलेंटाइन बन चुका, बाजारू व्यापार।
जिसको बच्चे समझते,नासमझी में प्यार।।
केवल कुर्सी के लिए,गड़े सियासी टेंट।
जाति-धर्म पर मौत भी,इवेंट मैनेजमेंट।।
भोला व वेलेंटाइन, का अद्भुत संयोग।
एक हृदय की है दवा,एक बाजारु रोग।।
कौन आँख करती बता,बहुत अधिक बेचैन।
चंचल चितवन मद भरे,या दर्दीले नैन।।
'न'अकेला रहकर होता,निश्चित सदा नकार।
मन से मिलकर हो गया,मनन,नमन साकार।।
नोटबंदी का दिखता,चोरों पर तासीर।
बवासीर से कुछ दुखी,कुछ को है नकसीर।।
गीत मनोज के..
गीत मनोज के..
1
तुमने किसकी सुनी आजतक,तेरी कौन सुनेगा?
खोदी है खाई जो तुमने, बोलो कौन भरेगा?
जैसी करनी वैसी भरनी,
किया कभी एहसास नहीं।
परिवर्तन के अटल सत्य में,
है तेरा विश्वास नहीं।
सूखा,बाढ़ का चक्र सदा ही,
धरती पर चलता रहता।
फिर भी मानव सृजन शक्ति से,
जीवन को गढ़ता रहता।
लेकिन जो अपकर्म करे,कुत्ते की मौत मरेगा।
खोदी है खाई जो तुमने, बोलो कौन भरेगा?
सूरज चाँद सितारे तम में,
तुमको राह दिखाये।
फिर भी तेरी आँखों में,
तम ही तम क्यों हैं छाये।
तुम गुलाल की जगह सदा ही,
कीचड़ रोज उछाले।
पूज्य प्रेम की जगह हृदय में,
घृणा नित्य ही पाले।
बोया विष की बेल अगर खुद,बोलो कौन चरेगा?
खोदी है खाई जो तुमने,बोलो कौन भरेगा?
स्वार्थपूर्ति की बलिवेदी पर,
किसको नहीं चढ़ाये।
तुमने अपने रिश्तों को भी,
नोच नोच कर खाये।
तेरी खातिर मात्र खेल है,
जीवन की सब बातें,
जज्बातों से खेल खेलकर,
अपना मन बहलाते।
दर्द के बदले दर्द मिला तो,बोलो कौन हरेगा?
खोदी है खाई जो तुमने,बोलो कौन भरेगा?
डॉ मनोज कुमार सिंह
2
गजब की जवानी,गजब के दीवाने!
चले हैं बिना मूल्य गर्दन चढ़ाने।।
1
सतत् राष्ट्र आराधना में समर्पित।
सदा मातृभूमि की गरिमा से गर्वित।
सहज चेतना के सरलतम सिपाही,
सदा सरहदों को करें जो सुरक्षित।
करो मान सम्मान उनका हमेशा,
खड़े, दुश्मनों से, हमें जो बचाने।।
गजब की जवानी,गजब के दीवाने!
चले हैं बिना मूल्य गर्दन चढ़ाने।
2
पिला सबको अमृत,गरल खुद पिये जो।
सदा शिव बनकर,मनुज हित जिये जो।
खड़े बर्फ में ,घाटियों,जंगलों में,
हमारे लिए अपना जीवन दिये जो।
नमन हम करें उन शहीदों को निशदिन,
दिये जान अपनी किये बिन बहाने।।
गजब की जवानी,गजब के दीवाने!
चले हैं बिना मूल्य गर्दन चढ़ाने।।
3
तिरंगा की गंगा में निशदिन नहाए।
सदा क्रांति का गीत सबको सुनाए।
लिए भावना सद् लड़े आँधियों से,
वतन की जमीं प्राण देकर बचाए।
उसी भक्ति की शक्ति से आज हम भी,
पाए है जीवन के लमहे सुहाने।।
गजब की जवानी,गजब के दीवाने!
चले हैं बिना मूल्य गर्दन चढ़ाने।
डॉ मनोज कुमार सिंह
3
नित्य जड़ विचार पर,प्रबल प्रखर प्रहार कर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
1
विचर विचार व्योम में,
प्रचंड वेग तुल्य तू।
सिद्ध कर अनंत के,
अनादि सर्व मूल्य तू।
अखंड दिव्य ज्योति से,
मन मणि धवल करो।
धरा तमस से मुक्त हो,
नित नवल पहल करो।
पतझरों की शुष्कता में,स्नेह भर बहार कर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
2
घर नगर प्रदेश में ,
या कहीं भी देश में।
मनुष्यता मिटे नहीं,
रहो किसी भी वेश में।
ब्रह्माण्ड सा बनो कि तुममें,
हों अनेक भूमियाँ।
विराट भव्य भाव से,
रचो नवीन सृष्टियाँ।
प्रणय पुनीत नींव में,घृणा की मत दीवार भर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
3
फैलो सुरभि-से इस तरह,
महक उठे दिशा दिशा।
बरस कि शुष्क पुष्प की,
हरी हो उसकी हर शिरा।
मधुर सरस गुंजार से,
खिला चमन की हर कली।
पलक पर स्वप्न पालकर,
चखो तू प्रेम की डली।
सदा हृदय आकाश में,तू मेघ बन विहार कर।
कठोर कर्म-यज्ञ से,स्वयं में नित सुधार कर।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
4
थके -थके पाँव
.......................
लौटा हूँ अभी अभी,
मैं अपने गाँव-
थके-थके पाँव ||
रिश्तो की रुसवाई ,
फेंक रही झाग |
आसमान धधक रहा,
उगल रहा आग |
कागज की छतरी है,
कैसे मिले छाँव |
शहराती मोर मिले ,
मोरों के शोर मिले |
सजे -धजे अजनबी से,
चेहरे हर ओर मिले |
याद आई आँगन के,
कौओं की काँव|
शब्द -पुष्प सूख गए ,
भाव- गंध रूठ गए ,
मस्ती की वीणा के ,
काव्य- तार टूट गए ,
किस्मत भी खेल रही
कैसे -कैसे दांव |
डॉ मनोज कुमार सिंह
5
आह्वान गीत
........................
राष्ट्रचेतना की जागृति का,
नारा अनुपम श्रेष्ठतम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।।
शस्य श्यामला मातृभूमि का
निशदिन अभिनव गान करें।
मृदूनि कुसुमादपि भावों से,
नित्य नवल अभिधान करें।
हृदय-कुंज के भाव-सेज पर,
रखकर अक्षत चंदनम।
भारत माता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।
विभवशालिनी,शरणदायिनी,
मातृभूमि है दयामयी।
अमृत से भरपूर हृदय से,
क्षमामयी,वात्सल्यमयी।
प्राण समर्पित करें सदा हम,
यहीं रहे कर्तव्य परम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।
पावन ध्वज ये सदा तिरंगा,
गगन श्रृंग लहराए।
संस्कृति की गौरव गाथा का,
शौर्यगान दुहराए।
नई ऊँचाई छूने खातिर,
आगे बढ़ते रहें कदम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।
देशद्रोहियों के जीवन में,
मचा सकें हम घोर प्रलय।
देश छोड़कर भागें या फिर,
बोलें भारत माँ की जय।
एक राष्ट्र ,एक ध्वज,एक भाषा,
हो पहचान यहीं अनुपम।
भारतमाता की जय बोलें,
बोलें वन्दे मातरम्।
डॉ मनोज कुमार सिंह
6
आओ मिलकर करें सृजन!
...........................................
डरे नहीं हम , घबरायें ना , संघर्षों से करें मिलन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !
नित अभिनव सद् सोंच गढ़े ,
कण – कण की हर बात पढ़ें !
जीवन की हर राह सुगम हो ,
श्रम की उंगली पकड़ बढ़ें !
जीवन की सूखी बगिया में , चलो खिलाएं नया सुमन !
विध्वंसो की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
रचना के हर नवल भूमि पर
रचनाकार अमर होता है !
कार्य कठिन है प्रसवित करना,
जीवन एक समर होता है !
चलो उगाएँ मरूभूमि में शब्दों का सुरभित उपवन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
स्वाद , दृश्य , स्पर्श , घ्राण हो !
श्रवण साधना काव्य प्राण हो !!
विविध रंग के भाव भरे हम !
मन के सारे कष्ट त्राण हो !!
चलो बनायें ऐसी कविता , मन का हर ले सभी चुभन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
जिसने पत्थर तोड़ – तोड़कर
औ तराशकर मूर्ति बनाई,
जड़ता के अंधियारे में जो
ज्ञान – दीप की ज्योति जलाई !
उसे हृदय की दीप – शिखा से, आओ करते चले नमन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ आओ मिलकर करें सृजन !!
डॉ मनोज कुमार सिंह
7
हम चुपके चुपके रोते हैं!
...........................
सुन प्यार भरे बचपन तुझसे ,
जब दूर कभी हम होते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
1
वो खेल खिलौने आज कहाँ ?
मन की मस्ती के साज कहाँ ?
है लाखों की अब भीड़ यहाँ ,
पर अपनों की आवाज कहाँ ?
जीवन की आपाधापी में ,
रिश्तों को बस हम ढोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
2
माँ के आँचल की छाँव कहाँ ?
अब पंख लगे वो पाँव कहाँ ?
अलगू से जुम्मन की यारी ,
वो अद्भुत् मेरा गाँव कहाँ ?
टूटे वीणा के तारों-सा ,
बचपन तुझको अब खोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
3
वो बाग़-बगीचों की रौनक |
वो रिश्तों की असली थाती |
जीवन की उर्जा कहाँ गई ,
गुल्ली- डंडा ,ओल्हा -पाती ,
वो ख्वाब सभी लगते जैसे ,
हाथों से उड़ते तोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
4
वो होली का हुडदंग कहाँ ?
मन को रंग दे वो रंग कहाँ ?
था प्यार, मुहब्बत घर जैसा ,
ऐसे अपनों का संग कहाँ ?
अब तो घातों-प्रतिघातों से ,
पाए जख्मों को धोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
डॉ मनोज कुमार सिंह
8
व्यंग्य गीत
............................................
सपने मेरे जीवन के,साकार कराना हे ईश्वर !
अफसर मुझको शीघ्र बनाना ,शीघ्र बनाना ,हे ईश्वर !
भ्रमण हेतु सरकारी गाड़ी ,
बीबी के तन महँगी साड़ी,
कुर्सी का हत्था ना छोडू ,नहीं छुड़ाना हे ईश्वर !
अफसर मुझको शीघ्र बनाना ,शीघ्र बनाना ,हे ईश्वर !
इन्टरनेट पर चोंच लड़ाऊँ ,
मैक्ड्वेल का पैग चढ़ाऊँ ,
राग-रंग अभिसार नदी में ,मुझे डुबाना हे ईश्वर !
अफसर मुझको शीघ्र बनाना ,शीघ्र बनाना ,हे ईश्वर !
बिल्ली पालूं ,कुत्ता पालूं ,
उंगुली पाँचों घी में डालूं ,
छुट्टा चारा चरुं रोज मैं ,मुझे चराना हे ईश्वर !
अफसर मुझको शीघ्र बनाना ,शीघ्र बनाना ,हे ईश्वर !
पेट बढ़ेगा ,भूख बढ़ेगी ,
सही कार्य में चूक बढ़ेगी,
उल्टी चाल चलूँ तो मेरी, मदद कराना हे ईश्वर !
अफसर मुझको शीघ्र बनाना ,शीघ्र बनाना ,हे ईश्वर !
दूसरों की मैं कमी गिनाऊँ ,
कमी दिखाकर रौब जमाऊँ ,
झुकें रहे सब सम्मुख मेरे, उन्हें झुकाना हे ईश्वर !
अफसर मुझको शीघ्र बनाना ,शीघ्र बनाना ,हे ईश्वर !
डॉ मनोज कुमार सिंह
9
हैं दिखने में कितने अच्छे
...............................
हैं दिखने में कितने अच्छे ,लगते देखो लोग यहाँ ।
कब डँस लेंगे नहीं पता , जहर भरे कुछ लोग यहाँ
स्वार्थ सिद्धि की गलियारों में
शतरंजी चालें चलते,
रंग बदलते गिरगिट -से वे
बातों में चलते चलते।
काले दिल पर चुना करके , रहते हैं कुछ लोग यहाँ ।।
कब डँस...............................
कौवे की भाषा है उनकी
पर कोयल सा बोल रहे ,
तोड़-फोड़ की राजनीती से ,
संशय का विष घोल रहे ,
ऊँच-नीच का भाव दिखाकर ,ठगते हैं कुछ लोग यहाँ ।।
कब डँस...........
अपनेपन की बातें करते
झूठे सपने दिखलाते,
चाटुकारिता के पोषक वे
झूठ बड़प्पन दर्शाते ,
काली करतूतों से जिनके,त्रस्त सभी हैं लोग यहाँ ।।
कब डँस ...........................
कीचड़ के कीड़े समझाते ,
संस्कार की बातें ,
गंदे मन की गलियारों में ,
बिताती जिनकी रातें,
विश्वासों पर घात लगाए, रहते हैं कुछ लोग यहाँ ।।
कब डँस ..............................
बड़े आदमी सा वे लगते
चिकने बड़े घड़े हैं
बैशाखी पर चलने वाले
सीधे तने खड़े हैं ,
आदमखोर , मसीहा बनकर , रहते हैं कुछ लोग यहाँ ।।
कब डँस ...........................
सावधान ,ईमान के पुतलों ,
झुकना मत उनके आगे ,
जागो औ प्रतिकार करो अब ,
मत बैठो चुप्पी साधे ,
निष्ठा और ईमान की ह्त्या, करते हैं कुछ लोग यहाँ ।।
कब डँस लेंगे ..........................
डॉ मनोज कुमार सिंह
10
गीत
...............................
दर्द हमारे दिल से उठकर,
जब अधरों तक आते हैं।
शब्द मिले तो अनुभव अपना,
गाकर सदा सुनाते हैं।।टेक।।
धुआँ धुआँ कुछ फैला हो,
जब अंतर्मन की घाटी में,
बीज तड़पते हैं भावों के,
शुष्क हृदय की माटी में,
बरसाकर नयनों से बादल,
हम जीवन सरसाते हैं।
शब्द मिलें तो.............
जीवन सागर में सुख दुःख की,
लहरें निशदिन लहराएँ।
चंचल मन के पंछी उनमें,
कभी डूबे औ उतराएँ।
संघर्षों की नाव चढ़े जो,
वहीं मुक्तिपथ पाते हैं।
शब्द मिलें तो.........
सजा कल्पना के पृष्ठों को,
इंद्रधनुष के रंगों में।
बहा सदा सपनों की नदियाँ,
मधुरिम भाव तरंगों में।
चलो तमस की बस्ती में इक,
अरुणिम सुबह उगाते हैं।
शब्द मिलें तो..........
डॉ मनोज कुमार सिंह
11
#चलो राष्ट्र उत्थान करें#
............................
हम सुभाष के पथ पर चलकर,
चलो राष्ट्र उत्थान करें।
संकल्पित कर्मों के बल पर,
नित्य लक्ष्य संधान करें।।
1
आशा औ विश्वास जगाकर,
त्याग ,प्रेम का दीप जलाकर,
वैचारिक गंगा में निशदिन,
पुनीत दिव्य स्नान करें।
हम सुभाष के पथ पर.....
2
शोषित,वंचित की सेवा कर,
बाल वृद्ध सबकी रक्षा कर,
जन-सीता की मुक्ति कार्य हित,
खुद को हम हनुमान करें।
हम सुभाष के पथ पर.....
3
तन,मन,धन जो करे समर्पित,
मातृभूमि पर सब कुछ अर्पित,
तेज प्रखर ,बलिदानी,ज्ञानी,
पैदा हम संतान करें।
हम सुभाष के पथ पर......
4
धीर,वीर,गंभीर,अचल हो,
सुन्दर ,सुस्मित हृदय-कमल हो,
सरहद की रक्षा में हँसकर,
हम जीवन बलिदान करें।
हम सुभाष के पथ पर.........
5
भव्य,दिव्य यह देश बने फिर,
सुखद,शांत परिवेश बने फिर,
सोने की चिड़िया वाली फिर,
भारत की पहचान करें।
हम सुभाष के पथ पर ........
6
आओ मिलकर तमस भगाएँ,
नव प्रभात की किरण उगाएँ,
रामराज्य के आदर्शों से ,
सुरभित हिन्दुस्तान करें।
हम सुभाष के पथ पर.......
डॉ मनोज कुमार सिंह
12
पूर्ण आज़ादी पाने को फिर शंखनाद करना होगा |
वीर शहीदों के जीवन- आदर्शों पर चलना होगा ||
संस्कार का राम कहाँ है ,कृष्ण और बलराम कहाँ हैं ?
देव भूमि की भक्ति मूर्ति वो, लखन और हनुमान कहाँ हैं ?
अर्जुन का गांडीव कहाँ है ,जन कल्याणी शिव कहाँ है ?,
बुलंदी की भव्य -भाल की,भारत की वह नींव कहाँ है ?
भारत की उस दिव्य परंपरा, को फिर से गढ़ना होगा |
पूर्ण आज़ादी पाने को फिर, शंखनाद करना होगा |
वीर शहीदों के जीवन- आदर्शों पर चलना होगा ||
वेदऋचा ,गीता ,सीता को फिर से कौन बचाएगा ?
वेद व्यास और वाल्मीकि अवतार कहाँ ले पायेगा ?
हिंसा के इस दौर में ,गाँधी महावीर को ढूढ़ रहा ,
शांतिदूत बनकर गौतम- सा कौन यहाँ फिर आयेगा ?
संस्कृति की विस्मृत पृष्ठों को बार-बार पढ़ना होगा |
पूर्ण आज़ादी पाने को फिर, शंखनाद करना होगा |
वीर शहीदों के जीवन- आदर्शों पर चलना होगा ||
खुदीराम, भगत, चंद्रशेखर, जब धरती पर आते हैं |
मातृभूमि की बलिवेदी पर ,हँसकर प्राण लुटाते हैं |
पर देखो, बरसों से उनकी, कब्रों पे है धूल जमी ,
कुछ उनका हीं नाम बेचकर ,सत्ता का सुख पाते है |
राष्ट्रद्रोहियों ,गद्दारों का अंत, अभी करना होगा |
पूर्ण आज़ादी पाने को फिर, शंखनाद करना होगा |
वीर शहीदों के जीवन- आदर्शों पर चलना होगा ||
एक तरफ सीमा पर सैनिक ,राष्ट्र हित मर जाते हैं |
एक तरफ क्रिकेट के छक्के ,लाखों में बिक जाते हैं |
पर्दों के नकली हीरो ,आज 'आइकन' बनते हैं |
मातृभूमि के असली' नायक' ,अब भी मारे जाते हैं |
माँ का दूध पीया सच में तो ,माँ के हित मरना होगा |
पूर्ण आज़ादी पाने को फिर शंखनाद करना होगा |
वीर शहीदों के जीवन- आदर्शों पर चलना होगा।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
13
आचार्य राजशेखर ने काव्य प्रतिभा के दो रूपों को स्वीकार किया।
‘‘सा च द्विधा कारयित्री भावयित्री च।
अर्थात् कवि के लिए आवश्यक होती है कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा। वस्तुतः यहाँ कवि और कविमर्मज्ञ में वही अन्तर है जो अन्तर ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तत्पर व्यक्ति और ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति में है। वस्तुतः काव्यरूपी ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुका व्यक्ति ही काव्य का मर्मज्ञ(आलोचक) हो सकता है और उसका कारण यह भावयित्री प्रतिभा ही है।लेकिन आज आलोचक की निष्पक्ष भूमिका संदिग्ध है। वह सहजता को ठगी का शिकार बनाने में अपनी प्रतिभा का प्रयोग कर रहा है।मेरी एक रचना इसी भाव पर आधारित है।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि उदार,तुम आलोचक।।
1
क्यों कविमर्मज्ञ का कर्म आज।
सुनकर आती है हमें लाज।
ज्यों गौरैयों पर टूट पड़े,
हिंसक भक्षक दुर्दांत बाज।
सदियों से घायल कवि कहता,
क्यों शोषित मैं,तुम हो शोषक।।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि उदार,तुम आलोचक।।
2
तेरे हाथों में छाप यंत्र।
तुम ही विक्रय के विज्ञ मंत्र।
तुम साधन साधक स्वयं देव!
अद्भुत खूबियों से भरे तंत्र।
खुद लोकार्पण का ले प्रभार,
बाजार बनाते हो रोचक।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि उदार,तुम आलोचक।।
3
तुम लाभांशों का योग देख।
किसको छापूँ उद्योग देख।
रचना कैसी हो फर्क नहीं,
छपतीं आमद,उपभोग देख।
अंधी स्पर्धा के युग के
तुम सफल आज इक संयोजक।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि उदार,तुम आलोचक।।
4
जब उठती लहरें स्वाभाविक।
हिलती नावें हिलता नाविक।
कवि भी तन्मय होकर झूमता,
पाकर कविता का मधु मानिक।
जब अनासक्त कवि होता है,
कविता होती उसकी प्रेरक।
हे काव्य कुञ्ज के नित शोधक!
मैं कवि उदार,तुम आलोचक।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
14
.............................................
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।।
1
सदी बीत गई चाँद तारे उगे सब।
धरा,सूर्य सारे नज़ारे उगे सब।
क्षितिज पर झुके आसमां की अदा ले,
धरा चूमते हर किनारे उगे सब।
हकीकत यही है उजाला जहाँ तक,
वहाँ न तमस का चला, न चलेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।
2
सहज,सत्य,सुन्दर,सलोना,सुचिंतन।
जरुरी बहुत है सृजन नित्य नूतन।
मधुर शांत शब्दों की अपनी छवि हो,
लगे न कहीं से उड़ाए हैं जूठन।
शब्दों का दीपक तमस पर है भारी,
मगर मूल्य पल-पल चुकाना पड़ेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।
3
तमस की निशा जब,धरा को डराए।
उजालों की देवी उषा बनके आए।
पनपे जो मन में घुटन की अमावस,
मिटाकर हमेशा नई सोंच लाये।
लहू से जो सींचा है अहले वतन को,
वहीं यश का गौरव पताका बनेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।
4
नजाकत की खुश्बू से भर भर के सपने।
किरन ने सुमन में भरे रंग कितने।
भौंरों, तितलियों के गुंजार सुनकर,
चमकते हैं उपवन के व्यक्तित्व अपने।
सदा तुम शिरीष पुष्प सा मुस्कुराओ,
खिजां में भी सुरभित चमन इक मिलेगा।
तू रख रौशनी बस,उसी से डरेगा।
अँधेरा कभी ना मिटा,न मिटेगा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
15. चेतावनी गीत
टकराओगे हमसे गर, इस तरह मिटाया जाएगा।
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
परमाणु बम की धमकी का कोई हम पर असर नहीं।
तुझे मिटाने में छोड़ेंगे,अब हम कोई कसर नहीं।
समझायेंगे,ना समझे फिर,..फिर समझाया जाएगा।
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
पहले भी टुकड़े कर डाले,फिर टुकड़े करवाएँगे।
गिलगित,बलूचिस्तान,सिंध को आजादी दिलवाएंगे।
फिर उनसे तेरे सीने पर दाल दराया जाएगा।
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
जाने कैसे सोच रहे ,मेरा कश्मीर तुम्हारा है?
वैसे ही हम सोच रहे कि पाकिस्तान हमारा है।
न माने तो हिंदूकुश तक तिरंगा फहराया जाएगा।
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
दे दो हमको दाउद,हाफिज जैसे सब हत्यारों को।
आतंकी दहशतगर्दी के घिनौने सरदारों को।
नहीं दिए तो रक्त का दरिया रोज बहाया जाएगा।
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
अब हम सहन न कर पाएंगे सुन तेरी गद्दारी को।
दुनिया को भी बतलाएँगे हर तेरी मक्कारी को।
कर अनाथ दुनिया में तुझसे,भीख मँगाया जाएगा।
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
अब तक खून बहाया तुमने,आज हमारी बारी है।
दहशतगर्दी के खिलाफ अब लड़ने की तैयारी है।
शपथ लिया है दहशतगर्दी पूर्ण मिटाया जाएगा।
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
बच्चा बच्चा बोल रहा है भारतमाता की जय जय।
एक मरें तो सौ सौ मारो,दुश्मन के घर मचे प्रलय।
तुम्हें मिटाकर शांति अमन दुनिया में लाया जाएगा
इतिहासों में 'एक था पाकिस्तान' पढ़ाया जाएगा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
16
व्यंग्य गीत
आप भले ठुमके ठर्रे का ,
मजा लीजिये नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिये नेता जी।
सजी सैफई की महफ़िल ज्यों,
मथुरा, माया ,काशी है।
जनता की सारी दौलत,
तेरे चरणों की दासी है।
लुटा रहे दोनों हाथों,
कुछ हया कीजिए नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिए नेता जी।
भारी भरकम तामझाम ये ,
तेरी ताकत दिखलाए।
सुविधाओं की क्या कहने है,
इन्द्रलोक भी शरमाए।
कुछ सुख के टुकड़े जनता को,
अदा कीजिए नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिए नेता जी।
तेरे आशीर्वाद से ,
गुंडागर्दी पाँव पसारे है।
भ्रष्टाचारी,चोर,लुटेरों के
तो वारे न्यारे हैं।
सीधी सादी जनता पर,
कुछ दया कीजिये नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिये नेता जी।
डॉ मनोज कुमार सिंह
जन्मतिथि -20,02. 67 ,आदमपुर [सिवान], बिहार |
शिक्षा - एम० ए०[ हिंदी ],बी० एड०,पी-एच ० डी० |
प्रकाशन - विभिन्न राष्ट्रीय -अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित |
'नवें दशक की समकालीन हिंदी कविता :युगबोध और शिल्प ' और
'छायावादी कवियों की प्रगतिशील चेतना ' विषय पर
शोधग्रंथ प्रकाशनाधीन | विद्यालय पत्रिका 'प्रज्ञा ' का संपादन |
सम्मान/पुरस्कार 1- नवोदय विद्यालय समिति
[मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार की
स्वायत इकाई ] द्वारा लगातार चार बार गुरुश्रेष्ठ
सम्मान /पुरस्कार से सम्मानित
2-शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012
3 - स्व. प्रयाग देवी प्रेम सिंह स्मृति साहित्य सम्मान 2014
4-सुदीर्घ हिंदी सेवा और सांस्कृतिक अवदान हेतु प्रशस्ति-पत्र 2015
सम्प्रति- स्नातकोत्तर शिक्षक ,[हिंदी] के पद पर कार्यरत |
संपर्क - जवाहर नवोदय विद्यालय,जंगल अगही,पीपीगंज,गोरखपुर
पिन कोड-273165
मोबाइल - 09456256597
ईमेल पता-
drmks1967@gmail.com
Wednesday, April 8, 2020
"क्या नहीं है कविता!"
क्या नहीं है कविता!!
कविता-
किसी खाँचे में बँधी मात्र शब्दों की व्याख्या नहीं है
कविता -
अपने अगल-बगल बिखरी चीजों से
चैतन्य संवाद है
अनुभूति से अनुभव की ओर प्रस्थान करती
स्वानुभूति के साथ परानुभूति भी है।
कविता-
भाषा में शब्दों की तूलिका से बनी
जीवन जीने और समझने की
एक गुम्फित तस्वीर है,
आत्मीय अहसास है
चोट की
चीख की
दर्द की
टीस की
भूख की
प्यास की
आनंद की
खुमार की
मस्ती की।
तरंगित संवेदनाओं का
जीवंत अनुवाद है।
यानी कविता क्या नहीं है!
कविता-
एक खास तरह की दृष्टि भी है
जो जीवन के
क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर भाषा में ढलकर
जीवन के पर्यावरण को
रेखांकित और रूपांकित करती है।
कविता -
जीवन के इर्द-गिर्द फैले
अपरमित ब्रह्मांड को
या
उसके अनहदध्वनि को
देखने-सुनने की क्षमता है
सर्जना है!
कविता -
निहत्थे का हथियार है
फटे मन को जोड़ने वाली
सुई-धागा है।
कविता -
भाषा में संवेदनाओं की
जरखेज मिट्टी की
स्वादिष्ट और कड़वी उपज है।
कविता-
यथार्थ की
नये तेवर और कलेवर के साथ
नवीन कल्पनाओं के शिल्प में
ढली आत्माभिव्यक्ति है!
कविता-
करूणा की नींव से स्रावित
वेदना की पिघलती मोम है!
कविता-
सुख का सागर है तो
दुख का पहाड़ भी है!
क्या नहीं है कविता!!
डॉ मनोज कुमार सिंह
कविता-
किसी खाँचे में बँधी मात्र शब्दों की व्याख्या नहीं है
कविता -
अपने अगल-बगल बिखरी चीजों से
चैतन्य संवाद है
अनुभूति से अनुभव की ओर प्रस्थान करती
स्वानुभूति के साथ परानुभूति भी है।
कविता-
भाषा में शब्दों की तूलिका से बनी
जीवन जीने और समझने की
एक गुम्फित तस्वीर है,
आत्मीय अहसास है
चोट की
चीख की
दर्द की
टीस की
भूख की
प्यास की
आनंद की
खुमार की
मस्ती की।
तरंगित संवेदनाओं का
जीवंत अनुवाद है।
यानी कविता क्या नहीं है!
कविता-
एक खास तरह की दृष्टि भी है
जो जीवन के
क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर भाषा में ढलकर
जीवन के पर्यावरण को
रेखांकित और रूपांकित करती है।
कविता -
जीवन के इर्द-गिर्द फैले
अपरमित ब्रह्मांड को
या
उसके अनहदध्वनि को
देखने-सुनने की क्षमता है
सर्जना है!
कविता -
निहत्थे का हथियार है
फटे मन को जोड़ने वाली
सुई-धागा है।
कविता -
भाषा में संवेदनाओं की
जरखेज मिट्टी की
स्वादिष्ट और कड़वी उपज है।
कविता-
यथार्थ की
नये तेवर और कलेवर के साथ
नवीन कल्पनाओं के शिल्प में
ढली आत्माभिव्यक्ति है!
कविता-
करूणा की नींव से स्रावित
वेदना की पिघलती मोम है!
कविता-
सुख का सागर है तो
दुख का पहाड़ भी है!
क्या नहीं है कविता!!
डॉ मनोज कुमार सिंह
"लोकगीत लोककंठ के अद्भुत परंपरा"
"लोकगीत लोककंठ के अद्भुत परंपरा"
लोकगीत काव्य के आदिम रूप ह।आदिम अवस्था मे आदिमी कवना ढंग से काव्य के रचना कईले रहे,एकर परमान आज हमनी के लगे नईखे,काहे कि एकर कवनो लिपिबद्ध रूप उपलब्ध नईखे।बाकिर ई बात कहल जा सकेला आदिम मानुष गीतन के माध्यम से अपना इच्छित सत्य के प्राप्त करे के सामूहिक परयास जरूर करत रहे। ओह समय के आदमी गीत गा के एह बात खातिर नाचे लो कि ओह गीतन से ओ लो के मानसिक शक्ति मिले।गीतन में विकास के साथे साथे सामूहिकता के परबीरती कम हो गईल, लेकिन खतम ना भईल।आजु भी एकरा के देखल जा सकेला। लोकगीतन के वैदिक सूत्रन के लेखा अपौरुषेय कहल गईल बा।लोकगीतन के परिप्रेक्ष्य में अपौरुषेय के अर्थ ई बा कि एकनी के रचयितन के नाम अज्ञात होला,अउरी ओह गीतन पर रचयितन के व्यक्तित्व के छाप ना होला।ओह समय में व्यक्तिवाद के भावना ना रहला के कारण कवनो भी कवि अपना रचना के गा के समूह के सौंउप देत रहे,अगर उ गीत लुभावन आ आकर्षक रहे त उ गीत प्रचलित होके अगिला पीढ़ी तक पहुँच जाव।गीतन के रचनाकार केहू ना केहू बेकती रहबे कईल।डॉ कृष्णदेव उपाध्याय जी अपना किताब -'भोजपुरी साहित्य का अध्ययन' के पृष्ठ 467 पर लिखने बानी कि "हमारी धारणा सर्वदेशीय लोकगीतों अथवा गाथाओं की उत्पत्ति के संबंध में यह है कि प्रत्येक गीत या गाथा जन समुदाय का भी प्रयास हो सकते हैं।लोकगाथाओं की परंपरा सदा से मौखिक रही हैं।अतः यह बहुत संभव है कि रचयिताओं का नाम लुप्त हो गया हो।"
एगो बात अउरी कि हर जुग में लोकगीतन के रूप विकसित आ बदलत रहेला।लिखित परम्परा में ना रहला के कारण लोकगीत लोककंठ में ही जीवित रहेला।कुछ लोकगीत मौखिक परम्परा के कारण बीच बीच में लुप्त भी हो जालें अउरी नाया लोकगीत प्रचलित हो जालें।लिखित रूप ना रहला से लोकगीत में स्थान भेद के अनुसार पाठ भेद भी बहुत अधिक हो जाला।एकही गीत भिन्न भिन्न स्थानन में ना केवल भासा बल्कि कथ्य के दृष्टि से भी कुछ ना कुछ अलग हो जाला।संक्षेप में कहब कि लोकगीतन के प्रभाव बड़ा सहज होला,जवना से ई एक पीढ़ी से दोसरा पीढ़ी में स्थानांतरित होत रहेले।
लोकगीतन के भी शैली आ विषय के आधार बाँटल गईल बा।शैली के आधार पर लोकगीतन के प्रमुख भेद में नृत्यगीत, पद गीत,आवृत्ति गीत,मुक्तक गीत आ प्रश्नोत्तर गीत राखल गईल बा।ओही तरे विषय आ प्रसंग के आधार पर एकर विभाजन कईल जा सकेला।
स्तुति गीत,परब आ ब्रत के गीत,धार्मिक आ पौराणिक गीत,संस्कार गीत,ऋतु गीत,श्रम गीत,प्रेम गीत,सामाजिक गीत ,राष्ट्रीय गीत,आध्यात्मिक गीत,व्यंग्य गीत आ मनोरंजन गीत।
आई सबे एह लोकगीत के भेदन पर संक्षेप में जानल जाव।पहिले शैली के दृष्टि से गीतन पर बात कईल जाव।
1-नृत्यगीत-
नाच नाच के जवना लोकगीतन के गावल जाला,ओकरा के नृत्यगीत कहल जाला।ईहो दू तरह के होला।पहिला पुरुषन के नृत्यगीत दूसरा स्त्रीयन के नृत्यगीत।एहमें (पुरुषन में)अहीरन के जाँघिया नृत्य,धोबी नृत्य,कहरवा नृत्य,चमरउवा नृत्य आदि आवेला।भोजपुरी क्षेत्र में बरसा ऋतु में होखे वाला स्त्रीयन के कजरी गीतन पर नाच देखल जा सकेला।
2-पद गीत-
पद गीत टेक से युक्त आ पद बद्ध होला।
पद के बाद टेक के पंक्ति दोहरावल जाला।जइसे-
बदनामी सहरिया में ना रहना।।टेक।।
पूड़ी मिठाई के गम मत करना,सुखल सतुइया गुजर करना।
बदनामी.......
2-आवृत्ति गीत-एह शैली के गीत में कुछ पंक्ति अथवा पंक्तियन के अंश बार बार दुहरावल जाले।भोजपुरी गीत के एगो बानगी देखीं-
चलS देखि आईं भोला के लाल गली।
चलS देखि आईं भोला के लाल गली।।
केहू चढ़ावेला अच्छत चन्दन
केहू चढ़ावेला सुंदर चुनरी।।चलS देखि0।।
राजा चढ़ावेला अच्छत चन्दन
रानी चढ़ावेली सुंदर चुनरी।।चलS देखि0।।
3-मुक्तक गीत-
जवना गीत के पद स्वतंत्र मुक्तकन के रूप में होलें,ओकरा के मुक्तक गीत कहल जा सकेला।ई पद दू दू,चार चार लाईन के होखेलें।मुक्तक गीत के ई परंपरा प्राचीन काल से चलत आ रहल बा।लोक गीतिका- के सं0 श्रीमती प्रभावती सिंह ,प्रथम संस्करण,पृष्ठ -66 पर एगो उदाहरन देखीं-
मोटी मोटी लिटिया लगइहे रे धोबिनियाँ,
कि बिहने चले के बाटे घाट।
तिनहि चीजि मत भुलिहे धोबिनियाँ,
कि टिकिया ,तमाखू,थोड़ा आगि।
निबिया के पेड़वा जबै नीक लागे,
जब निबकौरी न होय,
गौहुआँ के रोटिया जब नीक लागे,
घी से चभोरी होय।।
4-प्रश्नोत्तर गीत-
एह गीतन में प्रश्न आ उत्तर के शैली अपनावल जाला।ई दू दू लाइन के पद में बान्हल होला।जवना के एगो पंक्ति में कवि प्रश्न पूछेला आ दोसरका लाईन में आकर उत्तर भी दे देला।प्रश्नोत्तर शैली में डॉ कृष्णदेव उपाध्याय जी के आपन रचना पुस्तक 'भोजपुरी लोकगीत' के पृष्ठ संख्या 222 पर एगो उदाहरण देले बाड़ें।रउवो देखीं-
कवन गरहनवां बाबा साँझहि लागे हो कवन गरहनवां भिनुसार ए।
कवन गरहनवां बाबा मड़वनि लागेला कब दोनी उगरह होई ए।
चान गरहनवां बेटी साँझहि लागेला,सुरुज गरहनवां भिनुसार ए।
धियवा गरहनवां बेटी मड़वनि लागेला कब दोनि उग रह होइ ए।
हमरा ही अम्मा के सोने के थरियवा छुवत झनाझन होइ ए।
उहे थरियवा बाबा दमादे के दिहितS तब रउरा उगरह होई ए।
हमरा ही भइया के सुन्नर गइया हो सोनवे मढ़ावल खूर ए।
सुन्नर गइया दमादे के दिहितS हो थ राउर उगरह होई ए।
एही तरे विषय आ प्रसंग के आधार पर लोकगीतन के विभाजन कईल गईल बा।
1-स्तुति गीत-
एह में देवी देवता लोगन के उपासना,पूजा आ गुणगान से सम्बंधित लोकगीत गावल जाला।अपना आराध्य के महिमा आ शक्ति के बखान करत ओह देवता देवी से याचना प्रथना करे के दृष्टि से एकरा के गावल जाला।भोजपुरी में शिवजी,पार्वती जी,देवी या शीतला, गंगा आदि के स्तुति से सम्बंधित गीत विशेष प्रचलित बा।
गाई के गोबरे महादेव, अंगना लिपाई
गजमति आ हो महादेव चउका पुराई
सुनि ए सिव, सिव के दोहाई।
चउका बइठल महादेव गईनी अलसाई।
हुतुकनि मारि गौरा देई, लिहली जगाई
सुनी ए सिव सिव के दोहाई।
हुतुका के मरले महादेव गईनी कोहनाई
बहियां लफाई गौरा देई लिहली मनाई
सुनी ए सिव सिव के दोहाई।
2-परब आ ब्रत गीत-
पर्वन में रामनवमी,सतुआन,नागपंचमी, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, अनवत, विजयादशमी, धनतेरस, दिवाली,खिचड़ी,महाशिवरात्रि, होली आदि स्त्री आ पुरुषन खातिर समान रूप से मान्य होला।बाकिर ब्रत अउर परब में केवल स्त्रीयन खातिर बहुरा, गणेश चतुर्थी, तीज,जिउतिया, गोधन,पिंड़िया,छठ होला।पिंड़िया के एगो गीत डॉ श्रीधर मिश्र के किताब -('भोजपुरी लोक साहित्य:सांस्कृतिक अध्ययन' के पृष्ठ संख्या 215-252 ,इलाहाबाद 1971)से लीहल उदाहरण रूप में प्रस्तुत बा बस दू गो पंक्ति-
बारह मास हम बालू में रहनी,पीड़िया के गोड़वारी,
ए पीड़िया माई सेई ले तोहके।
3-धार्मिक आ पौराणिक गीत-
एह गीतन में शिव विवाह, राम विवाह,राम जन्म,कृष्ण जन्म,कृष्ण की बाल लीलाएं,लंका दहन,प्रह्लाद की कथा,श्रवण कुमार की कथा से सम्बंधित प्रसंग होला।
4-संस्कार गीत-
भोजपुरी भासा क्षेत्र में तरह तरह के लोकाचार के संस्कार गीत बाड़ेसन,जवना में सोहर,मुंडन गीत,जनेऊ गीत,विवाह गीत आदि प्रमुख बाड़ें।।जइसे सोहर विशेष मांगलिक गीत ह जवन पुत्र जन्म के समय गावल जाला।ओही तरे मुंडन के समय मुंडन संस्कार गीत भी गावल जाला।जनेऊ गीत भी विवाह के अवसर पर गावल जाला।विवाह सम्बन्धी गीतन में बढ़िया वर के इच्छा,तिलक,बियाह,बिदाई,दान दहेज,गवना आदि से सम्बंधित प्रसंग गावल जाला।ई गीत मंगल गीत होखला के साथे बियाह प्रसंग में नहछू नहावन,गारी, परिछावन,मटकोड़,पितर नेवता,हरदी, माड़ो छवाई,मानर पूजा,हरिस पूजा,कोहबर,तिलकोत्सव, दुवार पूजा, गुरहथाई, सिंदूर दान के अलग अलग गीत होखेला।
5-ऋतु गीत-
ऋतु गीत चार तरह के होले,जवना में फगुआ,चैता, कजरी आ झूला गीत।साथही बारहमासा भी गावल जाला जवना में बारहो मास के विशेषता बतावल जाला।बारहमासा में विधा के दृष्टि से कजरी,फाग या कवनो धुन पकड़ लीहल जाला।एह गीतन के बहुत ज्यादा संख्या बा।श्रीमती प्रभावती सिंह के रचना पुस्तक 'लोकगीतिका' के पृष्ठ संख्या 49 पर एकर एगो बानगी देखीं-
बेला फूले आधी रात, चमेली भिनुसहरा रे हरी।
सोने के थाली में जेवना परोसलू
अरे रामा सइयाँ जेवे आधी रात,देवर भिनुसहरा रे हरी।
झंझरे गडुववा गंगाजल पानी,
अरे रामा सइयाँ पिये आधी रात,देवर भिनुसहरा रे हरी।
लवंगि-लाची के बीड़ा लगवलिउं,
अरे रामा सइयाँ कूँचे आधी रात,देवर भिनुसहरा रे हरी।
6-श्रम गीत-
लोकगीतन में काम करत के समय भी गीत गावे के परंपरा रहल बा।एकरा पीछे इहे उद्देश्य रहल बा कि मनोरंजन कईला के साथे साथे काम भी पूरा हो जाव आ थकान अउरी ऊबाउपन ना लागे।पटहा पर कपड़ा धोवत धोबी के गीत होखे भा जांत चलावत मेहरारू के जँतसार चाहे धान कूटत,गेहूँ बीनत,आटा चालत,पूड़ी बेलत मेहररुअन के गीत,एही श्रेणी में आवेलेसन।खेतन में सोहनी ,रोपनी,धान के पिटाई होखे चाहे गाड़ीवान के गाड़ी हाँकत के समय के गीत होखे ,मलाह के नाव खेवत समय गावल गीत होखे एही श्रेणी में आवेलेसन।ई श्रम के सगरी गीत समूह में गावे के परंपरा रहल बा।कजरी,झूमर चाहे लाचारी होखे ई सब श्रम गीतन के श्रेणी में मानल जालें।जइसे डॉ कृष्णदेव उपाध्याय जी अपना किताब-'भोजपुरी लोकगीत'के पृष्ठ 290 पर जँतसार के एगो उदाहरण देले बानी।ओकर खाली दू लाईन लिखतानी-
बाबा काहे के लवल बगइचा काहे के फुलवरिया लवल ए राम।
बाबा काहे के कईल मोर बियहवा,काहे के गवनवा ए राम।
7-प्रेम गीत-
भोजपुरी प्रेममूलक लोकगीतन के स्वरूप बिल्कुल सहज,स्वच्छंद आ सीधा होला।ओह में बनावटीपन ना होला।अलिखित आ कंठ परंपरा में गावे जाए वाला ई गीत शिष्ट साहित्य के वर्जनावन से भिन्न होला।ई लोकगीत प्रकृति के गोद में जइसे खेत खरिहान,बगइचा, झोपड़ी,गाँव के गलियन में अंकुरित आ पल्लवित होला।
श्री दुर्गा प्रसाद सिंह के किताब 'भोजपुरी लोकगीतों में करुण रस 'के पृष्ठ 332-336 पर(प्रयाग 1965,के द्वितीय संस्करण)एगो उदाहरण दिहल बा।वियोग सिंगार रस के एह लोकगीत के रउवो पढ़ीं-
कवने अवगुनवाँ पिया हमके बिसरावेला
पिया जी मतिया बउराइलि हो राम।
आधी राति गइले बोलेले पहरुआ,
धड़ धड़ धड़केला जियरा पिया बिनु हे राम।
चढ़ल जवानी पिया माटी में मिलवले
इही हउवे पूरुब कमाई हे राम।
कवने अवगुनवाँ पिया हमरा के जार तारे
पिया जी मतिया बउराइलि हे राम।।
8-सामाजिक गीत-
एह गीतन के अंतर्गत पारिवारिक, जाति, वर्ग,वर्ण के सम्बंध के भाव परोसे वाला मनोभाव होला।बाप -बेटा, भाई बहिन,मरद-मेहरारू,सासु पतोह, ननद भउजाई के आपसी प्रेम आ तनाव एकरा अंतर्गत आवेला। परिवार के भीतरी सम्बन्धन पर प्रकाश डालत संक्षेप में एगो मार्मिक जँतसार गीत के उदाहरण देखी-
केरे देले गोहुंवा केरे देले चंगेलिया।
कवन बइरनिया हो राम भेजेले जंतसरिया।
सासु देली गोहुंवा हो रामा ननदी चंगेलिया।
गोतिनि बइरनिया हो रामा भेजेली जंतसरिया।
जंतवा ना चले ए प्रभुजी,मकरी न डोलइ
जंतवा धइले हे प्रभुजी रोइला जंतसरिया।
9-राष्ट्रीय गीत-
भोजपुरी लोकगीतन में भी राष्ट्रीयता के भावना से ओतप्रोत गीत गावल गईल बा।
एगो उदाहरण देखीं-
आजु पंजाबवा के करि के सुरतिया
से फाटेला करेजवा हमार रे फिरंगिया।
भारत के छाती पर भारत के बच्चन के,
बहल रकतवा के धार रे फिरंगिया।
दुधमुंहा लाल सब बालक मदन सब,
तड़पि तड़पि देले जान रे फिरंगिया।।
10-आध्यात्मिक गीत-
भोजपुरी क्षेत्र में आध्यात्मिक गीतन के निरगुन के रूप में जानल जाला।एकरा से सम्बंधित जे साधु संत बा उ प्रायः निम्न वर्गीय जाति से मिलेला लो,जवना में जोलहा,नाई, चमार,धुनिया प्रमुख बाड़ें।निरगुन के एगो उदाहरण देखीं-
बाला मुनि बाला मुनि कुइयाँ खोनवले हो राम।
आहो रामा डोरिया बरत दिनवाँ बीतल हो राम
दस पाँच सखिया मिली पनिया के चलली हो राम।
आहो रामा कुइयाँ परेला ठाठा काल हो राम।
टूटि गइल डोरिया भठि गइल कुइयाँ हो राम।
....................।
11-व्यंग गीत-
भोजपुरी में व्यंग गीत हँसे हँसावे खातिर दोसरा के बुराई आ कुरूपता यानी कमियन पर सीधे इशारा करिके चोट कइल जाला।एह लोकगीतन के कमी जरूर बा बाकी ई कहल ठीक नईखे कि भोजपुरी में अइसन गीत नईखे।देखी एगो उदाहरण-
फूहरि नारि कइसे घर तारे।
सेर भर पीसे सवा सेर फाँके
पोवै के बेर ओकर मुड़वा पिराय।
कइसे घर तारे।
साँझे के सोवलि पहर दिन जागे
रोइ रोइ बढ़नी डारे।
कइसे घर तारे।
छानी क फूस चूल्ही लाई डारे।
औरो बड़ेरी प घात लगावे।
कइसे घर तारे।
12-मनोरंजन गीत-
भोजपुरी लोकगीतन में फुरसत के समय गावे जाए वाला गीत मनोरंजन गीत के श्रेणी में आवेला।भइंस चरावत,खेत मे मचान पर बइठ के गावत चाहे कहांर के रात में फुरसत पावला के बाद कहरवा गावे के बहुत उदाहरण मिल जाला। मेहरारू लो मेला जात समय मनोरंजन खातिर झूमर,लाचारी गावेला लो।एगो उदाहरण देखीं-
झुमका गिरा रे,बरेली के बाजार में।
सासु जी खोजे,ननदिया भी खोजे
सैंया खोजेला मसाल दिया बार रे।
सासु भी रोवे,ननदिया भी रोवे,
सैंया रोवेला रुमाल मुँह डार रे।
सासु भी मारे ननदिया भी मारे,
सैयां मारेला,करेजवा के पार रे।
झुमका गिरा रे,बरेली के बाजार में।।
भोजपुरी में लोकगीतन के एगो बहुत समृद्ध परंपरा बा।ओकर सुरक्षा कइसे कईल जाव ई चुनौती के काम बा।नवका पीढ़ी अपना लोक परंपरा आ गीतन से धीरे धीरे दूर हो रहल बिया।अब गाँवन में भी फिल्मी तर्ज पर जोड़ल गाँठल गीत गावल जा रहल बा।दोसर बात की भोजपुरी में अश्लील गीतन के बाढ़ आ गईल बा।कजरी,फ़ाग,बारहमासा,कंहरवा,बिरहा,जँतसार,सोहर,
मंगल गीत,परिछन गीत,माड़ो छवाई गीत,विदाई गीत,संझा गीत,पराती,गारी, झूमर,लचारी, निरगुन, भजन,नेवता सम्बन्धी गीत,ईमली घोंटाई गीत,मटकोड़
के गीत,द्वारपूजा के गीत,गुरहत्थी के गीत,सिंदूरदान के गीत,हवन के गीत,कोहबर के गीत,हिंडोला,धोबी गीत, तेली गीत,पचरा,निरवाही गीत जइसन विविध प्रकार के पारंपरिक गीत संस्कृति के सुरक्षा के जिमेवारी लोक साहित्यकार लोगन के बा। भासा के साथे साथे ओकरा लोकगीतन से नया पीढ़ी के जोड़ल बहुत जरूरी बा।काहे कि जइसे जइसे आधुनिक सभ्यता के प्रसार हो रहल बा,तइसे तइसे लोकगीतन के गावे वालन के संख्या घट रहल बा।पढ़ल लिखल लोग लोकगीतन के पिछड़ापन के निशानी मान के कहीं एकरा के भूला मत देव।काहे कि ई लोग लोकगीतन के असभ्य लोगन के साहित्य समझेला।अब त निम्न वर्ग के लोग भी थोड़ा शिक्षित हो जाता त लोकगीतन से दूर हो जाता।अगर इहे स्थिति रहल त भविष्य में लोकगीतन के अस्तित्व ही खत्म हो जाई।जइसे खेत से बैल ओरा गइलें त ओकरा से सम्बंधित औज़ारन के नाम भी धीरे धीरे लुप्त हो गइल बा।बाकिर अंत में ई बात जरूर कहेब कि ई लोकगीत शाश्वत अउरी प्राणवान रहल बा जवन युग युग के बाधा के मेटावत, हटावत एह समय तक कंठ में प्रवाहित हो रहल बा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
लोकगीत काव्य के आदिम रूप ह।आदिम अवस्था मे आदिमी कवना ढंग से काव्य के रचना कईले रहे,एकर परमान आज हमनी के लगे नईखे,काहे कि एकर कवनो लिपिबद्ध रूप उपलब्ध नईखे।बाकिर ई बात कहल जा सकेला आदिम मानुष गीतन के माध्यम से अपना इच्छित सत्य के प्राप्त करे के सामूहिक परयास जरूर करत रहे। ओह समय के आदमी गीत गा के एह बात खातिर नाचे लो कि ओह गीतन से ओ लो के मानसिक शक्ति मिले।गीतन में विकास के साथे साथे सामूहिकता के परबीरती कम हो गईल, लेकिन खतम ना भईल।आजु भी एकरा के देखल जा सकेला। लोकगीतन के वैदिक सूत्रन के लेखा अपौरुषेय कहल गईल बा।लोकगीतन के परिप्रेक्ष्य में अपौरुषेय के अर्थ ई बा कि एकनी के रचयितन के नाम अज्ञात होला,अउरी ओह गीतन पर रचयितन के व्यक्तित्व के छाप ना होला।ओह समय में व्यक्तिवाद के भावना ना रहला के कारण कवनो भी कवि अपना रचना के गा के समूह के सौंउप देत रहे,अगर उ गीत लुभावन आ आकर्षक रहे त उ गीत प्रचलित होके अगिला पीढ़ी तक पहुँच जाव।गीतन के रचनाकार केहू ना केहू बेकती रहबे कईल।डॉ कृष्णदेव उपाध्याय जी अपना किताब -'भोजपुरी साहित्य का अध्ययन' के पृष्ठ 467 पर लिखने बानी कि "हमारी धारणा सर्वदेशीय लोकगीतों अथवा गाथाओं की उत्पत्ति के संबंध में यह है कि प्रत्येक गीत या गाथा जन समुदाय का भी प्रयास हो सकते हैं।लोकगाथाओं की परंपरा सदा से मौखिक रही हैं।अतः यह बहुत संभव है कि रचयिताओं का नाम लुप्त हो गया हो।"
एगो बात अउरी कि हर जुग में लोकगीतन के रूप विकसित आ बदलत रहेला।लिखित परम्परा में ना रहला के कारण लोकगीत लोककंठ में ही जीवित रहेला।कुछ लोकगीत मौखिक परम्परा के कारण बीच बीच में लुप्त भी हो जालें अउरी नाया लोकगीत प्रचलित हो जालें।लिखित रूप ना रहला से लोकगीत में स्थान भेद के अनुसार पाठ भेद भी बहुत अधिक हो जाला।एकही गीत भिन्न भिन्न स्थानन में ना केवल भासा बल्कि कथ्य के दृष्टि से भी कुछ ना कुछ अलग हो जाला।संक्षेप में कहब कि लोकगीतन के प्रभाव बड़ा सहज होला,जवना से ई एक पीढ़ी से दोसरा पीढ़ी में स्थानांतरित होत रहेले।
लोकगीतन के भी शैली आ विषय के आधार बाँटल गईल बा।शैली के आधार पर लोकगीतन के प्रमुख भेद में नृत्यगीत, पद गीत,आवृत्ति गीत,मुक्तक गीत आ प्रश्नोत्तर गीत राखल गईल बा।ओही तरे विषय आ प्रसंग के आधार पर एकर विभाजन कईल जा सकेला।
स्तुति गीत,परब आ ब्रत के गीत,धार्मिक आ पौराणिक गीत,संस्कार गीत,ऋतु गीत,श्रम गीत,प्रेम गीत,सामाजिक गीत ,राष्ट्रीय गीत,आध्यात्मिक गीत,व्यंग्य गीत आ मनोरंजन गीत।
आई सबे एह लोकगीत के भेदन पर संक्षेप में जानल जाव।पहिले शैली के दृष्टि से गीतन पर बात कईल जाव।
1-नृत्यगीत-
नाच नाच के जवना लोकगीतन के गावल जाला,ओकरा के नृत्यगीत कहल जाला।ईहो दू तरह के होला।पहिला पुरुषन के नृत्यगीत दूसरा स्त्रीयन के नृत्यगीत।एहमें (पुरुषन में)अहीरन के जाँघिया नृत्य,धोबी नृत्य,कहरवा नृत्य,चमरउवा नृत्य आदि आवेला।भोजपुरी क्षेत्र में बरसा ऋतु में होखे वाला स्त्रीयन के कजरी गीतन पर नाच देखल जा सकेला।
2-पद गीत-
पद गीत टेक से युक्त आ पद बद्ध होला।
पद के बाद टेक के पंक्ति दोहरावल जाला।जइसे-
बदनामी सहरिया में ना रहना।।टेक।।
पूड़ी मिठाई के गम मत करना,सुखल सतुइया गुजर करना।
बदनामी.......
2-आवृत्ति गीत-एह शैली के गीत में कुछ पंक्ति अथवा पंक्तियन के अंश बार बार दुहरावल जाले।भोजपुरी गीत के एगो बानगी देखीं-
चलS देखि आईं भोला के लाल गली।
चलS देखि आईं भोला के लाल गली।।
केहू चढ़ावेला अच्छत चन्दन
केहू चढ़ावेला सुंदर चुनरी।।चलS देखि0।।
राजा चढ़ावेला अच्छत चन्दन
रानी चढ़ावेली सुंदर चुनरी।।चलS देखि0।।
3-मुक्तक गीत-
जवना गीत के पद स्वतंत्र मुक्तकन के रूप में होलें,ओकरा के मुक्तक गीत कहल जा सकेला।ई पद दू दू,चार चार लाईन के होखेलें।मुक्तक गीत के ई परंपरा प्राचीन काल से चलत आ रहल बा।लोक गीतिका- के सं0 श्रीमती प्रभावती सिंह ,प्रथम संस्करण,पृष्ठ -66 पर एगो उदाहरन देखीं-
मोटी मोटी लिटिया लगइहे रे धोबिनियाँ,
कि बिहने चले के बाटे घाट।
तिनहि चीजि मत भुलिहे धोबिनियाँ,
कि टिकिया ,तमाखू,थोड़ा आगि।
निबिया के पेड़वा जबै नीक लागे,
जब निबकौरी न होय,
गौहुआँ के रोटिया जब नीक लागे,
घी से चभोरी होय।।
4-प्रश्नोत्तर गीत-
एह गीतन में प्रश्न आ उत्तर के शैली अपनावल जाला।ई दू दू लाइन के पद में बान्हल होला।जवना के एगो पंक्ति में कवि प्रश्न पूछेला आ दोसरका लाईन में आकर उत्तर भी दे देला।प्रश्नोत्तर शैली में डॉ कृष्णदेव उपाध्याय जी के आपन रचना पुस्तक 'भोजपुरी लोकगीत' के पृष्ठ संख्या 222 पर एगो उदाहरण देले बाड़ें।रउवो देखीं-
कवन गरहनवां बाबा साँझहि लागे हो कवन गरहनवां भिनुसार ए।
कवन गरहनवां बाबा मड़वनि लागेला कब दोनी उगरह होई ए।
चान गरहनवां बेटी साँझहि लागेला,सुरुज गरहनवां भिनुसार ए।
धियवा गरहनवां बेटी मड़वनि लागेला कब दोनि उग रह होइ ए।
हमरा ही अम्मा के सोने के थरियवा छुवत झनाझन होइ ए।
उहे थरियवा बाबा दमादे के दिहितS तब रउरा उगरह होई ए।
हमरा ही भइया के सुन्नर गइया हो सोनवे मढ़ावल खूर ए।
सुन्नर गइया दमादे के दिहितS हो थ राउर उगरह होई ए।
एही तरे विषय आ प्रसंग के आधार पर लोकगीतन के विभाजन कईल गईल बा।
1-स्तुति गीत-
एह में देवी देवता लोगन के उपासना,पूजा आ गुणगान से सम्बंधित लोकगीत गावल जाला।अपना आराध्य के महिमा आ शक्ति के बखान करत ओह देवता देवी से याचना प्रथना करे के दृष्टि से एकरा के गावल जाला।भोजपुरी में शिवजी,पार्वती जी,देवी या शीतला, गंगा आदि के स्तुति से सम्बंधित गीत विशेष प्रचलित बा।
गाई के गोबरे महादेव, अंगना लिपाई
गजमति आ हो महादेव चउका पुराई
सुनि ए सिव, सिव के दोहाई।
चउका बइठल महादेव गईनी अलसाई।
हुतुकनि मारि गौरा देई, लिहली जगाई
सुनी ए सिव सिव के दोहाई।
हुतुका के मरले महादेव गईनी कोहनाई
बहियां लफाई गौरा देई लिहली मनाई
सुनी ए सिव सिव के दोहाई।
2-परब आ ब्रत गीत-
पर्वन में रामनवमी,सतुआन,नागपंचमी, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, अनवत, विजयादशमी, धनतेरस, दिवाली,खिचड़ी,महाशिवरात्रि, होली आदि स्त्री आ पुरुषन खातिर समान रूप से मान्य होला।बाकिर ब्रत अउर परब में केवल स्त्रीयन खातिर बहुरा, गणेश चतुर्थी, तीज,जिउतिया, गोधन,पिंड़िया,छठ होला।पिंड़िया के एगो गीत डॉ श्रीधर मिश्र के किताब -('भोजपुरी लोक साहित्य:सांस्कृतिक अध्ययन' के पृष्ठ संख्या 215-252 ,इलाहाबाद 1971)से लीहल उदाहरण रूप में प्रस्तुत बा बस दू गो पंक्ति-
बारह मास हम बालू में रहनी,पीड़िया के गोड़वारी,
ए पीड़िया माई सेई ले तोहके।
3-धार्मिक आ पौराणिक गीत-
एह गीतन में शिव विवाह, राम विवाह,राम जन्म,कृष्ण जन्म,कृष्ण की बाल लीलाएं,लंका दहन,प्रह्लाद की कथा,श्रवण कुमार की कथा से सम्बंधित प्रसंग होला।
4-संस्कार गीत-
भोजपुरी भासा क्षेत्र में तरह तरह के लोकाचार के संस्कार गीत बाड़ेसन,जवना में सोहर,मुंडन गीत,जनेऊ गीत,विवाह गीत आदि प्रमुख बाड़ें।।जइसे सोहर विशेष मांगलिक गीत ह जवन पुत्र जन्म के समय गावल जाला।ओही तरे मुंडन के समय मुंडन संस्कार गीत भी गावल जाला।जनेऊ गीत भी विवाह के अवसर पर गावल जाला।विवाह सम्बन्धी गीतन में बढ़िया वर के इच्छा,तिलक,बियाह,बिदाई,दान दहेज,गवना आदि से सम्बंधित प्रसंग गावल जाला।ई गीत मंगल गीत होखला के साथे बियाह प्रसंग में नहछू नहावन,गारी, परिछावन,मटकोड़,पितर नेवता,हरदी, माड़ो छवाई,मानर पूजा,हरिस पूजा,कोहबर,तिलकोत्सव, दुवार पूजा, गुरहथाई, सिंदूर दान के अलग अलग गीत होखेला।
5-ऋतु गीत-
ऋतु गीत चार तरह के होले,जवना में फगुआ,चैता, कजरी आ झूला गीत।साथही बारहमासा भी गावल जाला जवना में बारहो मास के विशेषता बतावल जाला।बारहमासा में विधा के दृष्टि से कजरी,फाग या कवनो धुन पकड़ लीहल जाला।एह गीतन के बहुत ज्यादा संख्या बा।श्रीमती प्रभावती सिंह के रचना पुस्तक 'लोकगीतिका' के पृष्ठ संख्या 49 पर एकर एगो बानगी देखीं-
बेला फूले आधी रात, चमेली भिनुसहरा रे हरी।
सोने के थाली में जेवना परोसलू
अरे रामा सइयाँ जेवे आधी रात,देवर भिनुसहरा रे हरी।
झंझरे गडुववा गंगाजल पानी,
अरे रामा सइयाँ पिये आधी रात,देवर भिनुसहरा रे हरी।
लवंगि-लाची के बीड़ा लगवलिउं,
अरे रामा सइयाँ कूँचे आधी रात,देवर भिनुसहरा रे हरी।
6-श्रम गीत-
लोकगीतन में काम करत के समय भी गीत गावे के परंपरा रहल बा।एकरा पीछे इहे उद्देश्य रहल बा कि मनोरंजन कईला के साथे साथे काम भी पूरा हो जाव आ थकान अउरी ऊबाउपन ना लागे।पटहा पर कपड़ा धोवत धोबी के गीत होखे भा जांत चलावत मेहरारू के जँतसार चाहे धान कूटत,गेहूँ बीनत,आटा चालत,पूड़ी बेलत मेहररुअन के गीत,एही श्रेणी में आवेलेसन।खेतन में सोहनी ,रोपनी,धान के पिटाई होखे चाहे गाड़ीवान के गाड़ी हाँकत के समय के गीत होखे ,मलाह के नाव खेवत समय गावल गीत होखे एही श्रेणी में आवेलेसन।ई श्रम के सगरी गीत समूह में गावे के परंपरा रहल बा।कजरी,झूमर चाहे लाचारी होखे ई सब श्रम गीतन के श्रेणी में मानल जालें।जइसे डॉ कृष्णदेव उपाध्याय जी अपना किताब-'भोजपुरी लोकगीत'के पृष्ठ 290 पर जँतसार के एगो उदाहरण देले बानी।ओकर खाली दू लाईन लिखतानी-
बाबा काहे के लवल बगइचा काहे के फुलवरिया लवल ए राम।
बाबा काहे के कईल मोर बियहवा,काहे के गवनवा ए राम।
7-प्रेम गीत-
भोजपुरी प्रेममूलक लोकगीतन के स्वरूप बिल्कुल सहज,स्वच्छंद आ सीधा होला।ओह में बनावटीपन ना होला।अलिखित आ कंठ परंपरा में गावे जाए वाला ई गीत शिष्ट साहित्य के वर्जनावन से भिन्न होला।ई लोकगीत प्रकृति के गोद में जइसे खेत खरिहान,बगइचा, झोपड़ी,गाँव के गलियन में अंकुरित आ पल्लवित होला।
श्री दुर्गा प्रसाद सिंह के किताब 'भोजपुरी लोकगीतों में करुण रस 'के पृष्ठ 332-336 पर(प्रयाग 1965,के द्वितीय संस्करण)एगो उदाहरण दिहल बा।वियोग सिंगार रस के एह लोकगीत के रउवो पढ़ीं-
कवने अवगुनवाँ पिया हमके बिसरावेला
पिया जी मतिया बउराइलि हो राम।
आधी राति गइले बोलेले पहरुआ,
धड़ धड़ धड़केला जियरा पिया बिनु हे राम।
चढ़ल जवानी पिया माटी में मिलवले
इही हउवे पूरुब कमाई हे राम।
कवने अवगुनवाँ पिया हमरा के जार तारे
पिया जी मतिया बउराइलि हे राम।।
8-सामाजिक गीत-
एह गीतन के अंतर्गत पारिवारिक, जाति, वर्ग,वर्ण के सम्बंध के भाव परोसे वाला मनोभाव होला।बाप -बेटा, भाई बहिन,मरद-मेहरारू,सासु पतोह, ननद भउजाई के आपसी प्रेम आ तनाव एकरा अंतर्गत आवेला। परिवार के भीतरी सम्बन्धन पर प्रकाश डालत संक्षेप में एगो मार्मिक जँतसार गीत के उदाहरण देखी-
केरे देले गोहुंवा केरे देले चंगेलिया।
कवन बइरनिया हो राम भेजेले जंतसरिया।
सासु देली गोहुंवा हो रामा ननदी चंगेलिया।
गोतिनि बइरनिया हो रामा भेजेली जंतसरिया।
जंतवा ना चले ए प्रभुजी,मकरी न डोलइ
जंतवा धइले हे प्रभुजी रोइला जंतसरिया।
9-राष्ट्रीय गीत-
भोजपुरी लोकगीतन में भी राष्ट्रीयता के भावना से ओतप्रोत गीत गावल गईल बा।
एगो उदाहरण देखीं-
आजु पंजाबवा के करि के सुरतिया
से फाटेला करेजवा हमार रे फिरंगिया।
भारत के छाती पर भारत के बच्चन के,
बहल रकतवा के धार रे फिरंगिया।
दुधमुंहा लाल सब बालक मदन सब,
तड़पि तड़पि देले जान रे फिरंगिया।।
10-आध्यात्मिक गीत-
भोजपुरी क्षेत्र में आध्यात्मिक गीतन के निरगुन के रूप में जानल जाला।एकरा से सम्बंधित जे साधु संत बा उ प्रायः निम्न वर्गीय जाति से मिलेला लो,जवना में जोलहा,नाई, चमार,धुनिया प्रमुख बाड़ें।निरगुन के एगो उदाहरण देखीं-
बाला मुनि बाला मुनि कुइयाँ खोनवले हो राम।
आहो रामा डोरिया बरत दिनवाँ बीतल हो राम
दस पाँच सखिया मिली पनिया के चलली हो राम।
आहो रामा कुइयाँ परेला ठाठा काल हो राम।
टूटि गइल डोरिया भठि गइल कुइयाँ हो राम।
....................।
11-व्यंग गीत-
भोजपुरी में व्यंग गीत हँसे हँसावे खातिर दोसरा के बुराई आ कुरूपता यानी कमियन पर सीधे इशारा करिके चोट कइल जाला।एह लोकगीतन के कमी जरूर बा बाकी ई कहल ठीक नईखे कि भोजपुरी में अइसन गीत नईखे।देखी एगो उदाहरण-
फूहरि नारि कइसे घर तारे।
सेर भर पीसे सवा सेर फाँके
पोवै के बेर ओकर मुड़वा पिराय।
कइसे घर तारे।
साँझे के सोवलि पहर दिन जागे
रोइ रोइ बढ़नी डारे।
कइसे घर तारे।
छानी क फूस चूल्ही लाई डारे।
औरो बड़ेरी प घात लगावे।
कइसे घर तारे।
12-मनोरंजन गीत-
भोजपुरी लोकगीतन में फुरसत के समय गावे जाए वाला गीत मनोरंजन गीत के श्रेणी में आवेला।भइंस चरावत,खेत मे मचान पर बइठ के गावत चाहे कहांर के रात में फुरसत पावला के बाद कहरवा गावे के बहुत उदाहरण मिल जाला। मेहरारू लो मेला जात समय मनोरंजन खातिर झूमर,लाचारी गावेला लो।एगो उदाहरण देखीं-
झुमका गिरा रे,बरेली के बाजार में।
सासु जी खोजे,ननदिया भी खोजे
सैंया खोजेला मसाल दिया बार रे।
सासु भी रोवे,ननदिया भी रोवे,
सैंया रोवेला रुमाल मुँह डार रे।
सासु भी मारे ननदिया भी मारे,
सैयां मारेला,करेजवा के पार रे।
झुमका गिरा रे,बरेली के बाजार में।।
भोजपुरी में लोकगीतन के एगो बहुत समृद्ध परंपरा बा।ओकर सुरक्षा कइसे कईल जाव ई चुनौती के काम बा।नवका पीढ़ी अपना लोक परंपरा आ गीतन से धीरे धीरे दूर हो रहल बिया।अब गाँवन में भी फिल्मी तर्ज पर जोड़ल गाँठल गीत गावल जा रहल बा।दोसर बात की भोजपुरी में अश्लील गीतन के बाढ़ आ गईल बा।कजरी,फ़ाग,बारहमासा,कंहरवा,बिरहा,जँतसार,सोहर,
मंगल गीत,परिछन गीत,माड़ो छवाई गीत,विदाई गीत,संझा गीत,पराती,गारी, झूमर,लचारी, निरगुन, भजन,नेवता सम्बन्धी गीत,ईमली घोंटाई गीत,मटकोड़
के गीत,द्वारपूजा के गीत,गुरहत्थी के गीत,सिंदूरदान के गीत,हवन के गीत,कोहबर के गीत,हिंडोला,धोबी गीत, तेली गीत,पचरा,निरवाही गीत जइसन विविध प्रकार के पारंपरिक गीत संस्कृति के सुरक्षा के जिमेवारी लोक साहित्यकार लोगन के बा। भासा के साथे साथे ओकरा लोकगीतन से नया पीढ़ी के जोड़ल बहुत जरूरी बा।काहे कि जइसे जइसे आधुनिक सभ्यता के प्रसार हो रहल बा,तइसे तइसे लोकगीतन के गावे वालन के संख्या घट रहल बा।पढ़ल लिखल लोग लोकगीतन के पिछड़ापन के निशानी मान के कहीं एकरा के भूला मत देव।काहे कि ई लोग लोकगीतन के असभ्य लोगन के साहित्य समझेला।अब त निम्न वर्ग के लोग भी थोड़ा शिक्षित हो जाता त लोकगीतन से दूर हो जाता।अगर इहे स्थिति रहल त भविष्य में लोकगीतन के अस्तित्व ही खत्म हो जाई।जइसे खेत से बैल ओरा गइलें त ओकरा से सम्बंधित औज़ारन के नाम भी धीरे धीरे लुप्त हो गइल बा।बाकिर अंत में ई बात जरूर कहेब कि ई लोकगीत शाश्वत अउरी प्राणवान रहल बा जवन युग युग के बाधा के मेटावत, हटावत एह समय तक कंठ में प्रवाहित हो रहल बा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
मधुराष्टकम् का दोहे में भावानुवाद
मधुराष्टकम् में महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य ने बालरूप श्रीकृष्ण की मधुरता का मधुरतम वर्णन किया है। श्रीकृष्ण के प्रत्येक अंग एवं गतिविधि मधुर है और उनके संयोग से अन्य सजीव और निर्जीव वस्तुएं भी मधुरता को प्राप्त कर लेती हैं। इस सृष्टि में जो कुछ भी मधुरता है उसको श्रीकृष्ण की मधुरता का एक अंश समझते हुए भक्तों को निरंतर श्रीमाखनचोर का स्मरण करना चाहिए।
🌹मधुराष्टकम् 🌹*
मेरे द्वारा दोहे में भावानुवाद।
-----------------
अधरं मधुरं वदनं मधुरं,
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥
अधर मधुर मुख भी मधुर,मधुर मधुर मुस्कान।
हृदय,चाल,आँखें मधुर,मधुर कृष्ण भगवान।।1।।
वचनं मधुरं चरितं मधुरं
वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥
वचन,चरित जिनका मधुर,मधुर त्रिभंगी रूप।
चलना,फिरना अरु वसन,सब कुछ मधुर अनूप।।2।।
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः
पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥
वेणु,पुष्प सब मधुर है,मधुर चरण अरु हाथ।
नृत्य,मित्रता सब मधुर,मधुर मधुर हे नाथ।।3।।
गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥
गीत मधुर पीना मधुर,खाना मधुर सुजान।
रूप ,शयन ,टीका मधुर,है तेरा भगवान।।4।।
करणं मधुरं तरणं मधुरं
हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥५॥
मधुर कार्य,तिरना मधुर,चौर्य मधुर अरु प्यार।
शब्द,शांत रहना मधुर,हे मधुरिम करतार।।5।।
गुंजा मधुरा माला मधुरा
यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥६॥
घुँघुची अरु माला मधुर,यमुना मधुर महान।
लहर,कमल,पानी मधुर,सब कुछ कृष्ण समान।।6।।
गोपी मधुरा लीला मधुरा
युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥७॥
गोपी अरु लीला मधुर,मधुरहि साथ,वियोग।
मधुर भाव से देखना,शिष्ट,मधुर हर योग।7।।
गोपा मधुरा गावो मधुरा
यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥८॥
गोप मधुर,गायें मधुर,मधुर छड़ी अरु सृष्टि।
दलन अरु वरदान मधुर,मधुर रूप की वृष्टि।।8।।
भावानुवाद-डॉ मनोज कुमार सिंह
🌹मधुराष्टकम् 🌹*
मेरे द्वारा दोहे में भावानुवाद।
-----------------
अधरं मधुरं वदनं मधुरं,
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥
अधर मधुर मुख भी मधुर,मधुर मधुर मुस्कान।
हृदय,चाल,आँखें मधुर,मधुर कृष्ण भगवान।।1।।
वचनं मधुरं चरितं मधुरं
वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥
वचन,चरित जिनका मधुर,मधुर त्रिभंगी रूप।
चलना,फिरना अरु वसन,सब कुछ मधुर अनूप।।2।।
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः
पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥
वेणु,पुष्प सब मधुर है,मधुर चरण अरु हाथ।
नृत्य,मित्रता सब मधुर,मधुर मधुर हे नाथ।।3।।
गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥
गीत मधुर पीना मधुर,खाना मधुर सुजान।
रूप ,शयन ,टीका मधुर,है तेरा भगवान।।4।।
करणं मधुरं तरणं मधुरं
हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥५॥
मधुर कार्य,तिरना मधुर,चौर्य मधुर अरु प्यार।
शब्द,शांत रहना मधुर,हे मधुरिम करतार।।5।।
गुंजा मधुरा माला मधुरा
यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥६॥
घुँघुची अरु माला मधुर,यमुना मधुर महान।
लहर,कमल,पानी मधुर,सब कुछ कृष्ण समान।।6।।
गोपी मधुरा लीला मधुरा
युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥७॥
गोपी अरु लीला मधुर,मधुरहि साथ,वियोग।
मधुर भाव से देखना,शिष्ट,मधुर हर योग।7।।
गोपा मधुरा गावो मधुरा
यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥८॥
गोप मधुर,गायें मधुर,मधुर छड़ी अरु सृष्टि।
दलन अरु वरदान मधुर,मधुर रूप की वृष्टि।।8।।
भावानुवाद-डॉ मनोज कुमार सिंह
बिथा कथा मजदूर की(कोरोना काल में पलायन)
बिथा कथा मजदूर की
******************
काम धंधे हो गए
चौपट अचानक
जिंदगी मजबूरियों से
घिर चुकी है।
चल पड़े मजदूर
पैदल ही घरों को,
भूख की इस भीड़ से
सड़कें पटी हैं।
रास्ते में खड़ा है
दानव कोरोना।
काम उसका
जिंदगी में मौत बोना।
मानना उनका कि
यूँ मरने से पहले
धीरे धीरे गाँव तक
जाना सही है।
दूरिया घर की बहुत हैं
पाँव छोटे
भुखमरी में साथ लेकर
बाल बच्चे,
चल रहे हैं,
रुक रहे हैं
चल रहे हैं
पेट में मजदूरनी के
पल रहे कुछ
दो महीने बाद
आयेंगे जहां में।
है नहीं दिल्ली किसी की
जानता हूँ
है सयानी,स्वार्थ की
प्रतिमूर्ति है बस।
काम जब तक है
तुम्हें आहार देगी।
नहीं तो भूखों
तुम्हें ये मार देगी।
अब समझ आया
असल में गाँव अपना।
दर्द-दुख में दिया
हमको छाँव अपना।
इसलिए मैं चल रहा हूँ भूख में भी
गाँव है बेचैन मेरा मेरी खातिर।
अब लगा कि दिल्ली कितनी
क्रूर शातिर।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
******************
काम धंधे हो गए
चौपट अचानक
जिंदगी मजबूरियों से
घिर चुकी है।
चल पड़े मजदूर
पैदल ही घरों को,
भूख की इस भीड़ से
सड़कें पटी हैं।
रास्ते में खड़ा है
दानव कोरोना।
काम उसका
जिंदगी में मौत बोना।
मानना उनका कि
यूँ मरने से पहले
धीरे धीरे गाँव तक
जाना सही है।
दूरिया घर की बहुत हैं
पाँव छोटे
भुखमरी में साथ लेकर
बाल बच्चे,
चल रहे हैं,
रुक रहे हैं
चल रहे हैं
पेट में मजदूरनी के
पल रहे कुछ
दो महीने बाद
आयेंगे जहां में।
है नहीं दिल्ली किसी की
जानता हूँ
है सयानी,स्वार्थ की
प्रतिमूर्ति है बस।
काम जब तक है
तुम्हें आहार देगी।
नहीं तो भूखों
तुम्हें ये मार देगी।
अब समझ आया
असल में गाँव अपना।
दर्द-दुख में दिया
हमको छाँव अपना।
इसलिए मैं चल रहा हूँ भूख में भी
गाँव है बेचैन मेरा मेरी खातिर।
अब लगा कि दिल्ली कितनी
क्रूर शातिर।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
दुनियादारी का महत्त्व(लघुकथा)
दुनियादारी का महत्त्व
...........................................................
एक परीक्षा हॉल में पाँच टीचर ड्यूटी दे रहे थे।
दो घण्टे बाद अचानक प्रिंसिपल साहब आ गए।
अफरा तफरी में पाँच में से चार टीचर
बड़ी सनद्धता से बच्चों के बीच चहलकदमी करने लगे,मगर एक बैठा रहा।
वह लगातार दो घण्टे खड़े होकर ड्यूटी कर रहा था।
वह दो मिनट पहले ही बैठा था।
प्रिंसिपल साहब दो मिनट रुकने के बाद पुनः अपने चैम्बर में चले गए।
बैठा हुआ टीचर करीब दो तीन मिनट बाद खड़ा होकर स्वाभाविक रूप से चहलकदमी करने लगा
और अंत तक बच्चों के बीच खड़े होकर पूरी सनद्धता से ड्यूटी सम्पन्न किया।
परीक्षा के बाद प्रिंसिपल साहब ने पाँचों डयूटी टीचर को बुलवाया।
एक टीचर जो हॉल में बैठा हुआ पाया गया उसे अलग बैठाया गया।
फिर शेष चार टीचर्स को बताया कि आप लोग बहुत अच्छे काम किए हैं। जब मैं हॉल में पहुँचा तो आप सभी खड़े होकर डयूटी करने लगे।
आपने हमारा सम्मान रखा।
जबकि आप सभी दो घण्टे से बैठकर आपस बस गप्प कर रहे थे।
लेकिन ये महोदय मुझे देखकर भी खड़े नहीं हुए,जबकि मैं सीसीटीवी कैमरे से देख रहा था कि ये लगातार दो घण्टे से खड़े होकर ही ड्यूटी दे रहे थे।
लेकिन ऐसी ड्यूटी क्या जो अपने अधिकारी के सम्मान का ख्याल न रखे।
इसलिए इन्हें तत्काल रूप से सस्पेंड कर रहा हूँ।
अकेला बैठा टीचर थोड़े देर के लिए भौचक होकर प्रिंसिपल साहब की बात सुन रहा था।फिर धीमे से निर्विकार भाव से उठकर उनके कमरे से बाहर निकल गया।
चारों टीचर्स मन ही मन खुश थे अपनी उपलब्धि पर,
जबकि कर्तव्यनिष्ठ टीचर अपने कर्तव्य का हश्र देखकर हतप्रभ था।
उसे ये बात समझ में नहीं आ रही थी कि चापलूसी करने और अपने बॉस को रिझाने के आखिर तरीके क्या हैं?
वह यह भी सोच रहा था कि हमारे बीच के ये टीचर ऐसी ट्रेनिंग कहाँ से लेकर आते हैं।
इनके जैसा बनना क्या आसान काम है?शायद इसी को दुनियादारी कहते हैं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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एक परीक्षा हॉल में पाँच टीचर ड्यूटी दे रहे थे।
दो घण्टे बाद अचानक प्रिंसिपल साहब आ गए।
अफरा तफरी में पाँच में से चार टीचर
बड़ी सनद्धता से बच्चों के बीच चहलकदमी करने लगे,मगर एक बैठा रहा।
वह लगातार दो घण्टे खड़े होकर ड्यूटी कर रहा था।
वह दो मिनट पहले ही बैठा था।
प्रिंसिपल साहब दो मिनट रुकने के बाद पुनः अपने चैम्बर में चले गए।
बैठा हुआ टीचर करीब दो तीन मिनट बाद खड़ा होकर स्वाभाविक रूप से चहलकदमी करने लगा
और अंत तक बच्चों के बीच खड़े होकर पूरी सनद्धता से ड्यूटी सम्पन्न किया।
परीक्षा के बाद प्रिंसिपल साहब ने पाँचों डयूटी टीचर को बुलवाया।
एक टीचर जो हॉल में बैठा हुआ पाया गया उसे अलग बैठाया गया।
फिर शेष चार टीचर्स को बताया कि आप लोग बहुत अच्छे काम किए हैं। जब मैं हॉल में पहुँचा तो आप सभी खड़े होकर डयूटी करने लगे।
आपने हमारा सम्मान रखा।
जबकि आप सभी दो घण्टे से बैठकर आपस बस गप्प कर रहे थे।
लेकिन ये महोदय मुझे देखकर भी खड़े नहीं हुए,जबकि मैं सीसीटीवी कैमरे से देख रहा था कि ये लगातार दो घण्टे से खड़े होकर ही ड्यूटी दे रहे थे।
लेकिन ऐसी ड्यूटी क्या जो अपने अधिकारी के सम्मान का ख्याल न रखे।
इसलिए इन्हें तत्काल रूप से सस्पेंड कर रहा हूँ।
अकेला बैठा टीचर थोड़े देर के लिए भौचक होकर प्रिंसिपल साहब की बात सुन रहा था।फिर धीमे से निर्विकार भाव से उठकर उनके कमरे से बाहर निकल गया।
चारों टीचर्स मन ही मन खुश थे अपनी उपलब्धि पर,
जबकि कर्तव्यनिष्ठ टीचर अपने कर्तव्य का हश्र देखकर हतप्रभ था।
उसे ये बात समझ में नहीं आ रही थी कि चापलूसी करने और अपने बॉस को रिझाने के आखिर तरीके क्या हैं?
वह यह भी सोच रहा था कि हमारे बीच के ये टीचर ऐसी ट्रेनिंग कहाँ से लेकर आते हैं।
इनके जैसा बनना क्या आसान काम है?शायद इसी को दुनियादारी कहते हैं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
💐भाव गीत💐
💐 भाव गीत💐
याचना के मूल में,
रहती हृदय की वेदना।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
अश्रु की समिधा चढ़ाओ,
भाव की ज्वाला जला।
रख हृदय में इष्ट को बस,
पूजने का सिलसिला।
दर्द में भी माँग लो,
संयम की सुरभित चेतना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
तन समर्पित,मन समर्पित,
समर्पित जीवन करो।
तुम अकिंचन भाव से,
परिपूर्ण अपना मन करो।
अज्ञ बन,सर्वज्ञ पर,
उत्सर्ग कर संवेदना।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
आत्मलय के ताल पर,
गर झूम सको तो झूम लो।
अलौकिक उस चेतना के,
लोक में कुछ घूम लो।
मुक्ति की तप साधना में,
कर पिता से सामना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
कामनाओं से निकल,
प्रज्ञान को अनुभूत कर।
नेति नेति स्वरूप से,
जीवन की धारा पूत कर।
बह सके करुणा हृदय में,
कर ले सागर सर्जना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
धूप हो, नैवेद्य हो या
दीप सारे व्यर्थ हैं।
बिन समर्पण भाव,
सारी साधना असमर्थ हैं।
ज्यों धुँए के बादलों में,
है छिपी जल वंचना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
याचना के मूल में,
रहती हृदय की वेदना।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
अश्रु की समिधा चढ़ाओ,
भाव की ज्वाला जला।
रख हृदय में इष्ट को बस,
पूजने का सिलसिला।
दर्द में भी माँग लो,
संयम की सुरभित चेतना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
तन समर्पित,मन समर्पित,
समर्पित जीवन करो।
तुम अकिंचन भाव से,
परिपूर्ण अपना मन करो।
अज्ञ बन,सर्वज्ञ पर,
उत्सर्ग कर संवेदना।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
आत्मलय के ताल पर,
गर झूम सको तो झूम लो।
अलौकिक उस चेतना के,
लोक में कुछ घूम लो।
मुक्ति की तप साधना में,
कर पिता से सामना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
कामनाओं से निकल,
प्रज्ञान को अनुभूत कर।
नेति नेति स्वरूप से,
जीवन की धारा पूत कर।
बह सके करुणा हृदय में,
कर ले सागर सर्जना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
धूप हो, नैवेद्य हो या
दीप सारे व्यर्थ हैं।
बिन समर्पण भाव,
सारी साधना असमर्थ हैं।
ज्यों धुँए के बादलों में,
है छिपी जल वंचना।।
बिन समर्पण भाव के,
होती नहीं है प्रार्थना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
ट्रेनिंग(लघुकथा)
ट्रेनिंग
मैं अपनी बेटी को डांट रहा था।मेरा ये रूप देखकर बिटिया हतप्रभ थी।वह सोच रही थी कि पापा आज तक मुझे दुलारने और प्यार करने के बजाय कभी भी इस तरह का व्यवहार नहीं किये,आज इनको क्या हो गया कि इस तरह पेश आ रहे हैं।वह मेरी तेज तेज आवाज से घबरा गई।मैं उसे किसी न किसी तरह गलत साबित करके डाँटने का काम कर ही रहा था कि पत्नी आ धमकी।बिटिया भागते हुए माँ से लिपट कर रोने लगी।पत्नी ने मुझसे थोड़े रूखेपन से बोला कि ये क्या कर रहे हो।ऐसा तो पागल ही करते हैं।क्या गलती किया है मेरी बेटी ने,जो इस तरह इस पर चिल्ला रहे हो?
फिर मैं शांत भाव से पत्नी को बताया कि बिटिया को ससुराल में आने वाली दिक्कतों से वाकिफ करा रहा हूँ।ससुराल में जब इस तरह की बेवजह स्थिति आएगी तो कैसे धैर्यपूर्वक उसे सहेगी और अपना आपा खोए बिना जीवन में खुद को कैसे मजबूत बना सकेगी,उसी की ट्रेनिंग दे रहा हूँ।अचानक बेटी,माँ को छोड़कर मुझसे लिपट गई।रोते हुए कहने लगी -पापा आप की ट्रेनिंग मुझे स्वीकार है।अब सालों से जब कभी उसका मन नहीं लगता तो मेरे पास आकर कहती है- पापा अपनी औकात दिखाओ!फिर मैं शुरू हो जाता हूँ।वह डरने का नाटक करती है।अब उसे मेरी डाँट में मजा आने लगा है।मैं उसके भविष्य के बारे में आश्वस्त होता जा रहा हूँ कि वह मजबूत हो रही है।
मैं अपनी बेटी को डांट रहा था।मेरा ये रूप देखकर बिटिया हतप्रभ थी।वह सोच रही थी कि पापा आज तक मुझे दुलारने और प्यार करने के बजाय कभी भी इस तरह का व्यवहार नहीं किये,आज इनको क्या हो गया कि इस तरह पेश आ रहे हैं।वह मेरी तेज तेज आवाज से घबरा गई।मैं उसे किसी न किसी तरह गलत साबित करके डाँटने का काम कर ही रहा था कि पत्नी आ धमकी।बिटिया भागते हुए माँ से लिपट कर रोने लगी।पत्नी ने मुझसे थोड़े रूखेपन से बोला कि ये क्या कर रहे हो।ऐसा तो पागल ही करते हैं।क्या गलती किया है मेरी बेटी ने,जो इस तरह इस पर चिल्ला रहे हो?
फिर मैं शांत भाव से पत्नी को बताया कि बिटिया को ससुराल में आने वाली दिक्कतों से वाकिफ करा रहा हूँ।ससुराल में जब इस तरह की बेवजह स्थिति आएगी तो कैसे धैर्यपूर्वक उसे सहेगी और अपना आपा खोए बिना जीवन में खुद को कैसे मजबूत बना सकेगी,उसी की ट्रेनिंग दे रहा हूँ।अचानक बेटी,माँ को छोड़कर मुझसे लिपट गई।रोते हुए कहने लगी -पापा आप की ट्रेनिंग मुझे स्वीकार है।अब सालों से जब कभी उसका मन नहीं लगता तो मेरे पास आकर कहती है- पापा अपनी औकात दिखाओ!फिर मैं शुरू हो जाता हूँ।वह डरने का नाटक करती है।अब उसे मेरी डाँट में मजा आने लगा है।मैं उसके भविष्य के बारे में आश्वस्त होता जा रहा हूँ कि वह मजबूत हो रही है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
चिंतन के झरोखे से..
चिंतन के झरोखे से
................................................................
कवि/लेखक/साहित्यकार को
चूहा बनने के बजाय
चिड़िया बनना चाहिए।
चूहा केवल कुतरने का काम कर
चीजों को विकृत कर
इधर से उधर फैला देता है,
जबकि चिड़िया
एक एक तिनका जोड़कर
एक घोंसला तैयार कर देती है,
जिसमें जीवन पलता है।
साहित्य भी जीवन को
जोड़ने वाली सुई-धागा है,
कुतरने वाली कैंची नहीं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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कवि/लेखक/साहित्यकार को
चूहा बनने के बजाय
चिड़िया बनना चाहिए।
चूहा केवल कुतरने का काम कर
चीजों को विकृत कर
इधर से उधर फैला देता है,
जबकि चिड़िया
एक एक तिनका जोड़कर
एक घोंसला तैयार कर देती है,
जिसमें जीवन पलता है।
साहित्य भी जीवन को
जोड़ने वाली सुई-धागा है,
कुतरने वाली कैंची नहीं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
समकालीनता का अर्थ और अर्थ व्याप्ति
समकालीनता का अर्थ और अर्थ व्याप्ति
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क- समकालीनता:अर्थ और अर्थवत्ता
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'समकालीनता' एक व्यापक कालसापेक्ष संकल्पना है। एक कालखंड में जीने वाले अभी रचनाकार समकालीन कहे जा सकते हैं,किन्तु गत्यात्मक संदर्भ में समकालीन शब्द का अर्थ केवल किसी विशिष्ट कालखंड में साथ साथ जीना भर नही है,बल्कि अपनी व्यापकता में यह अवधारणा उन सभी रचनाकारों को और कृतित्व को समेट लेता है,जो आज के युग में रचना के कर्म में रत हैं,अथवा जो कुछ वर्षों पूर्व साहित्य रचना कर चुके हैं या अद्यावधि कर रहे हैं।आज समकालीन शब्द उन रचनाकारों के लिए रूढ़ हो गया है,जो घोषित करते हैं कि जनवादी हैं,उनका कृतित्व व्यवस्था विरोधी है। खगेन्द्र ठाकुर प्रसंगवश कहते हैं कि- "समकालीन मैं उसको समझता हूँ,जो अपने समय के द्वारा उठाये गए प्रश्नों से टकराता है,उनका मुकाबला करता है।जो जो अपने समय के प्रश्नों से कतराकर निकल जाता है,किसी शाश्वतता से लिपटा रहता है या पीछे की ओर देखता रहता है,व्हिस काल में रहकर भी समकालीन नहीं है।इसी अर्थ की रोशनी में कविता या किसी वस्तु की समकालीनता का निर्णय करना उचित है।"(1)
अरविंद त्रिपाठी ने परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा संपादित पुस्तक हिंदी कविता की समीक्षा में समकालीनता को समझते हुए लिखा है कि -"समकालीन शब्द में एक सहज अति व्याप्ति है,पर दूसरी ओर इसमें एक निश्चित ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करने की क्षमता भी है,समकालीन कविता कहते ही हमारे समय के महत्वपूर्ण सरोकारों ,सवालों से टकराती एक विशेष रूप और गुणधर्म वाली कविता का चित्र सामने आ जाता है,समकालीन कविता चाहे प्रेम की हो या राजनीतिक स्थिति या मानवीय संकट की- इतना निश्चित है कि एक खास समय की संवेदना इसके चित्रण के ढंग को ही नहीं,अनुभव के रूप अथवा प्रकृति को भी प्रभावित करती है।(2)
वैसे समकालीन को अगर काल-दर्शन की दृष्टि से देखा और परखा जाये, तो यह एक महत्त्वपूर्ण एवं विचारणीय शब्द है,लेकिन समय प्रवाह के किस अंश को समकालीन कहा जाय,यह भी एक विशेष पहलू और विचारणीय विषय है।हिन्दी में 'समकालीन' शब्द अँग्रेजी के 'कांटेंपेरेरी' शब्द के पर्याय के रूप में प्रचलित है।'कांटेंपेरेरी' का अभिप्राय तीन अर्थों में समाहित है-
1- काल विशेष से सम्बद्ध
2- व्यक्ति विशेष के कालयापन से सम्बद्ध
3- साहित्य -समाज अथवा प्रवृत्ति-विशेष से संश्लिष्ट कालखंड
'समकालीनता' को समझने के लिए "आधुनिक"और "अत्याधुनिक" शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है।आधुनिक अधिक व्यापक और मूल्यगर्भित शब्द है,तो अत्याधुनिक एकदम आज का और लघुतम कालखण्ड का बोधक है।"समकालीन अत्याधुनिक को अपने आप में समाहित किये हुए आधुनिक की पीठ पर स्थित कालखण्ड है।"(3)
इसी तरह जब हम आज की हिन्दी कविता की बात करते हैं,तो निश्चय ही हमारा मन्तव्य "नयी कविता संज्ञा से जानी जाने वाली कविता से अथवा विभिन्न आंदोलनों से जुड़ी रहने की घोषणा करती हुई कविता सम्बन्धी संज्ञाओं से नहीं है, जो कविता की बात कम और अपनी अलग पहचान की बात ज्यादा करते हैं,लेकिन सामान्यतया"समकालीन कविता" शब्द साठोत्तरी(सन् 1960 के पश्चात की) कविता के लिए प्रयुक्त होने लगा है।व्यक्ति के संदर्भ में जीवन प्रवाह को उसका समकालीन माना जा सकता है।साहित्य के मूल्यांकन की दृष्टि से साहित्यकार को ,किसी कवि,आलोचक अथवा लेखक को अपने लेखन के परिप्रेक्ष्य में समकालीनता का निर्धारण करना होगा।काल- विशेष के सामाजिक,राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक निकष पर भी समकालीन की परश संभव है। (4)
आज की कविता की बात करते हुए हमें स्वनामधन्य कवियों के साथ साथ नए उभरते हुए युवा कवियों की कविताओं को भी दृष्टि में रखना होगा,क्योंकि ये लोग आज के समस्या बहुल जीवन के विभिन्न पक्षों ,आयामों को अपनी कविता का विषय बनाकर एक ओर अपनी रचना-प्रक्रिया का परिचय दे रहे हैं तो दूसरी ओर आज की हिंदी कविता को बंधन से निकलकर जीवन और समाज के बहुरूपीय संघर्ष की अभिव्यक्ति दे उसे तीव्र गति से जीवन की समतल भूमि की ओर अग्रसर कर रहे हैं।
यदि इस तथ्य की सम्यक् विवेचना करें,तो समकालीन कविता गुण और मात्रा दोनों ही दृष्टियों से पूर्ववर्ती कविता से भिन्न है।गुण या अंतर्वस्तु की दृष्टि से समकालीन में कालातिक्रमण नहीं,कालांकन है।यदि यह कहा जाय कि कालांकन पूर्ववर्ती कविता में भी है,तो पृथक्करण का आधार मात्र होगी।तब कहा जा सकता है,कि समकालीन कविता में अपने समय का अंकन अधिक मात्रा में है।विधि की दृष्टि से भी पूर्ववर्ती कविता और समकालीन कविता में अंतर है।समकालीन कविता के पूर्व की कविता पर भी समय का प्रभाव है,छाप है,किंतु आज की कविता में अपने समय के साथ जितनी सीधी और उग्र मुलाकात होती है,उतनी पहले की कविता में नहीं होती।भूतपूर्व कविता में "सामान्य" या "शाश्वत" तत्त्वों और स्थानों के प्रति जितना लगाव मिलता है,उतना समकालीन कविता में नहीं मिलता।यथा- स्वच्छंदतावादी(रोमांटिक) तथा "नयी कविता" में कालातीत (ट्रांसेडैस) होने अथवा सार तत्त्वों (एसेंस) को पकड़ने का चाव साम्प्रतिक कविता में बहुत कम है।(5)
समकालीन का प्रायः "व्यतीत"का विपरीतार्थी माना जाता है और इस प्रकार हमारा सम्पूर्ण लेखन दो वर्गों में विभक्त हो जाता है-
1-समकालीन लेखन
2-व्यतीत लेखन
लेकिन ध्यातव्य है कि सृष्टि के नैरन्तर्य में विभाजन सुविधा के लिए मान लिया जाता है।वास्तविकता यह है कि इन दोनों के बीच नैरन्तर्य की सूक्ष्म रेखा प्रवाहमान रहती है।"समकालीन" (चेतन या चेतना) आधुनिक संसार का होता है तथा वह अपने लेखन में इसे प्रतिबिंबित करता है,साथ ही वह इसके भीतर से गुजरती हुई ऐतिहासिक शक्ति को भी स्वीकारता है।इस प्रकार "समकालीन" की परिभाषा में तीन तत्त्वों का समावेश है-
पहला -यह कि समकालीन को आधुनिक होना चाहिए।
दूसरा यह कि उसे अपने समय के गहन और केन्द्रीय स्पन्दन को अपनी कृतियों में प्रतिबिंबित करना चाहिए तथा तीसरे यह कि कृतियों से गुजरती हुई ऐतिहासिक शक्तियों को उसके द्वारा मान्यता मिलती है।(6)
('नवें दशक की समकालीन हिन्दी कविता:युगबोध और शिल्प' शोध-प्रबंध, 1996 (पृष्ठ 1 से 4)-डॉ मनोज कुमार सिंह से उद्धृत )
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क- समकालीनता:अर्थ और अर्थवत्ता
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'समकालीनता' एक व्यापक कालसापेक्ष संकल्पना है। एक कालखंड में जीने वाले अभी रचनाकार समकालीन कहे जा सकते हैं,किन्तु गत्यात्मक संदर्भ में समकालीन शब्द का अर्थ केवल किसी विशिष्ट कालखंड में साथ साथ जीना भर नही है,बल्कि अपनी व्यापकता में यह अवधारणा उन सभी रचनाकारों को और कृतित्व को समेट लेता है,जो आज के युग में रचना के कर्म में रत हैं,अथवा जो कुछ वर्षों पूर्व साहित्य रचना कर चुके हैं या अद्यावधि कर रहे हैं।आज समकालीन शब्द उन रचनाकारों के लिए रूढ़ हो गया है,जो घोषित करते हैं कि जनवादी हैं,उनका कृतित्व व्यवस्था विरोधी है। खगेन्द्र ठाकुर प्रसंगवश कहते हैं कि- "समकालीन मैं उसको समझता हूँ,जो अपने समय के द्वारा उठाये गए प्रश्नों से टकराता है,उनका मुकाबला करता है।जो जो अपने समय के प्रश्नों से कतराकर निकल जाता है,किसी शाश्वतता से लिपटा रहता है या पीछे की ओर देखता रहता है,व्हिस काल में रहकर भी समकालीन नहीं है।इसी अर्थ की रोशनी में कविता या किसी वस्तु की समकालीनता का निर्णय करना उचित है।"(1)
अरविंद त्रिपाठी ने परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा संपादित पुस्तक हिंदी कविता की समीक्षा में समकालीनता को समझते हुए लिखा है कि -"समकालीन शब्द में एक सहज अति व्याप्ति है,पर दूसरी ओर इसमें एक निश्चित ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करने की क्षमता भी है,समकालीन कविता कहते ही हमारे समय के महत्वपूर्ण सरोकारों ,सवालों से टकराती एक विशेष रूप और गुणधर्म वाली कविता का चित्र सामने आ जाता है,समकालीन कविता चाहे प्रेम की हो या राजनीतिक स्थिति या मानवीय संकट की- इतना निश्चित है कि एक खास समय की संवेदना इसके चित्रण के ढंग को ही नहीं,अनुभव के रूप अथवा प्रकृति को भी प्रभावित करती है।(2)
वैसे समकालीन को अगर काल-दर्शन की दृष्टि से देखा और परखा जाये, तो यह एक महत्त्वपूर्ण एवं विचारणीय शब्द है,लेकिन समय प्रवाह के किस अंश को समकालीन कहा जाय,यह भी एक विशेष पहलू और विचारणीय विषय है।हिन्दी में 'समकालीन' शब्द अँग्रेजी के 'कांटेंपेरेरी' शब्द के पर्याय के रूप में प्रचलित है।'कांटेंपेरेरी' का अभिप्राय तीन अर्थों में समाहित है-
1- काल विशेष से सम्बद्ध
2- व्यक्ति विशेष के कालयापन से सम्बद्ध
3- साहित्य -समाज अथवा प्रवृत्ति-विशेष से संश्लिष्ट कालखंड
'समकालीनता' को समझने के लिए "आधुनिक"और "अत्याधुनिक" शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है।आधुनिक अधिक व्यापक और मूल्यगर्भित शब्द है,तो अत्याधुनिक एकदम आज का और लघुतम कालखण्ड का बोधक है।"समकालीन अत्याधुनिक को अपने आप में समाहित किये हुए आधुनिक की पीठ पर स्थित कालखण्ड है।"(3)
इसी तरह जब हम आज की हिन्दी कविता की बात करते हैं,तो निश्चय ही हमारा मन्तव्य "नयी कविता संज्ञा से जानी जाने वाली कविता से अथवा विभिन्न आंदोलनों से जुड़ी रहने की घोषणा करती हुई कविता सम्बन्धी संज्ञाओं से नहीं है, जो कविता की बात कम और अपनी अलग पहचान की बात ज्यादा करते हैं,लेकिन सामान्यतया"समकालीन कविता" शब्द साठोत्तरी(सन् 1960 के पश्चात की) कविता के लिए प्रयुक्त होने लगा है।व्यक्ति के संदर्भ में जीवन प्रवाह को उसका समकालीन माना जा सकता है।साहित्य के मूल्यांकन की दृष्टि से साहित्यकार को ,किसी कवि,आलोचक अथवा लेखक को अपने लेखन के परिप्रेक्ष्य में समकालीनता का निर्धारण करना होगा।काल- विशेष के सामाजिक,राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक निकष पर भी समकालीन की परश संभव है। (4)
आज की कविता की बात करते हुए हमें स्वनामधन्य कवियों के साथ साथ नए उभरते हुए युवा कवियों की कविताओं को भी दृष्टि में रखना होगा,क्योंकि ये लोग आज के समस्या बहुल जीवन के विभिन्न पक्षों ,आयामों को अपनी कविता का विषय बनाकर एक ओर अपनी रचना-प्रक्रिया का परिचय दे रहे हैं तो दूसरी ओर आज की हिंदी कविता को बंधन से निकलकर जीवन और समाज के बहुरूपीय संघर्ष की अभिव्यक्ति दे उसे तीव्र गति से जीवन की समतल भूमि की ओर अग्रसर कर रहे हैं।
यदि इस तथ्य की सम्यक् विवेचना करें,तो समकालीन कविता गुण और मात्रा दोनों ही दृष्टियों से पूर्ववर्ती कविता से भिन्न है।गुण या अंतर्वस्तु की दृष्टि से समकालीन में कालातिक्रमण नहीं,कालांकन है।यदि यह कहा जाय कि कालांकन पूर्ववर्ती कविता में भी है,तो पृथक्करण का आधार मात्र होगी।तब कहा जा सकता है,कि समकालीन कविता में अपने समय का अंकन अधिक मात्रा में है।विधि की दृष्टि से भी पूर्ववर्ती कविता और समकालीन कविता में अंतर है।समकालीन कविता के पूर्व की कविता पर भी समय का प्रभाव है,छाप है,किंतु आज की कविता में अपने समय के साथ जितनी सीधी और उग्र मुलाकात होती है,उतनी पहले की कविता में नहीं होती।भूतपूर्व कविता में "सामान्य" या "शाश्वत" तत्त्वों और स्थानों के प्रति जितना लगाव मिलता है,उतना समकालीन कविता में नहीं मिलता।यथा- स्वच्छंदतावादी(रोमांटिक) तथा "नयी कविता" में कालातीत (ट्रांसेडैस) होने अथवा सार तत्त्वों (एसेंस) को पकड़ने का चाव साम्प्रतिक कविता में बहुत कम है।(5)
समकालीन का प्रायः "व्यतीत"का विपरीतार्थी माना जाता है और इस प्रकार हमारा सम्पूर्ण लेखन दो वर्गों में विभक्त हो जाता है-
1-समकालीन लेखन
2-व्यतीत लेखन
लेकिन ध्यातव्य है कि सृष्टि के नैरन्तर्य में विभाजन सुविधा के लिए मान लिया जाता है।वास्तविकता यह है कि इन दोनों के बीच नैरन्तर्य की सूक्ष्म रेखा प्रवाहमान रहती है।"समकालीन" (चेतन या चेतना) आधुनिक संसार का होता है तथा वह अपने लेखन में इसे प्रतिबिंबित करता है,साथ ही वह इसके भीतर से गुजरती हुई ऐतिहासिक शक्ति को भी स्वीकारता है।इस प्रकार "समकालीन" की परिभाषा में तीन तत्त्वों का समावेश है-
पहला -यह कि समकालीन को आधुनिक होना चाहिए।
दूसरा यह कि उसे अपने समय के गहन और केन्द्रीय स्पन्दन को अपनी कृतियों में प्रतिबिंबित करना चाहिए तथा तीसरे यह कि कृतियों से गुजरती हुई ऐतिहासिक शक्तियों को उसके द्वारा मान्यता मिलती है।(6)
('नवें दशक की समकालीन हिन्दी कविता:युगबोध और शिल्प' शोध-प्रबंध, 1996 (पृष्ठ 1 से 4)-डॉ मनोज कुमार सिंह से उद्धृत )
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