वंदे मातरम्! मित्रो!आज एक ताज़ा गज़ल हाजिर है।
इस तरह खुद को,हर रोज संवारा जाए।
अच्छी हर सोच को,जीवन में उतारा जाए।
कमी हो आंकना,जिंदगी में गर किसी की,
पहले इक आईने में,खुद को निहारा जाए।
होड़ होती नहीं रिश्तों में,कभी अपनों से,
मजा तब है मुहब्बत से,सदा हारा जाए।
चाँद ऐसे गुजरता है,मेरे छत से कि जैसे,
गली से बेतकल्लुफ,कोई आवारा जाए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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