Tuesday, July 4, 2017

गज़ल

वंदे मातरम्!मित्रो!एक ताजा गज़ल फिर हाजिर है।

हँस सकता हूँ,रो सकता हूँ।
खुद पर गुस्सा,हो सकता हूँ।

लाखों गम दिल मे,रखकर भी,
स्वप्न गुलाबी,बो सकता हूँ।

कृष्ण नयन का,हूँ करुणा जल,
पाँव मित्र का,धो सकता हूँ।

गैरों की चिंता में खुद का,
अपराधी मैं,हो सकता हूँ।

लिप्सा की अंधी गलियों में,
संभव है मैं,खो सकता हूँ।

बच्चों की मुस्कान देखकर,
भूखे भी रह,सो सकता हूँ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

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