वन्देमातरम मित्रो!आज मेरी एक सामयिक ग़ज़ल पेश है।आप सभी का स्नेह अपेक्षित है-
आते-जाते लगता है डर।
घर से दफ्तर ,दफ्तर से घर।
घूरती हैं राहों में निशदिन ,
जाने कैसी नज़रें अक्सर।
लड़की तो लड़की होती है,
कलकत्ता हो या हो बक्सर।
गम हों या खुशियों के मंजर ,
नहीं असर पड़ता अब दिल पर।
फल जबसे पेड़ों पर आये,
मिलने आ जाते कुछ पत्थर।
गम के सायों में मत पूछो,
कितना मुश्किल जीना हँसकर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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