Tuesday, May 19, 2015

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम! मित्रो,राजभाषा कार्यशाला से लौटने के बाद मुझे इसके बारे में जो धारणा बनी है ,वह सही है या गलत मुझे पता नहीं,लेकिन जो मैनें अनुभव किया,उसे मुक्तक के रूप में आपको समर्पित कर रहा हूँ ।आपका स्नेह टिप्पणी रूप में सादर अपेक्षित है-

जबसे हिंदी राजभाषा बन गई।
जैसे सरकारी तमाशा बन गई।
बाबुओं की जेब की धनलक्ष्मी,
और जन-जन की निराशा बन गई।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Friday, May 15, 2015

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम!मित्रो,एक मुक्तक आपके नाम समर्पित करता हूँ। अगर सही लगे तो टिप्पणी रूप में आपका स्नेह चाहता हूँ .......

नित्य शब्द साधना करो ।
औ नवीन कल्पना करो।
खिल उठे विचार की कली,
भाव की उपासना करो ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनायें ........ ।

कभी तुलसी ,कबीर लगते हैं ।
कभी ग़ालिब औ मीर लगते है।
शहंशा हैं ,ये बच्चे दुनिया के ,
फिर भी दिल से ,फ़क़ीर लगते  हैं ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्देमातरम मित्रो !आज पुनः एक मुक्तक आपको सादर समर्पित करता हूँ ,आपका स्नेह अपेक्षित है -

जो कर न सको काम ,वो कभी काम मत करो।
इस जिंदगी को मुफ्त में ,बदनाम मत करो ।
काँटें हों भले राह में,लाखो बिछे हुए,
पाना है अगर लक्ष्य ,तो आराम मत करो  ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

मित्रो ! आज आपको  एक  मुक्तक सादर समर्पित है ........

जिन्दगी के नाम इक ,अभियान लिखना चाहता हूँ |
चेतना की रश्मियों से ,ज्ञान लिखना चाहता हूँ |
आ सके ठंढी  हवा ,लेकर मुहब्बत की सदा ,
सब दीवारों पे यूँ, रोशनदान लिखना चाहता हूँ |

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे भारतमातरम!मित्रो,आज कश्मीर के लोगों की तबाह जिंदगी पर उनकी पीड़ा को अपने शब्दों में आपके सामने पेश कर रहा हूँ । आपका स्नेह टिप्पणी रूप में सादर अपेक्षित है............

क्या बतलाएँ कितना मुश्किल जीवन अब तो जीना जी
किस्मत में हैं गम के आँसू,निशदिन हमको पीना जी।।

फले-फूले जीवन की बगिया,तनिक न उसको भाया जी,
अरमानों में आग लगा दी,मौसम बहुत कमीना जी।

हुआ स्वर्ग दोजख-सा जबसे,सैलाबों की साजिश में,
भरी ठंड में डर के मारे ,आता बहुत पसीना जी।

एक तरफ मुफलिस का जीवन,ऊपर से दहशतगर्दी,
किसका दोष बताएं किसने ,चैन हमारा छीना जी।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे भारतमातरम!मित्रो,आज एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी को  समर्पित कर रहा हूँ। अगर सही लगे तो आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

उपदेशों में कर्तव्यों का ओढ़े हुए लबादे लोग ।
अपने हिस्से की मिहनत,गैरों के कंधे लादे लोग।।

विश्वासों पर दंश मारने  वाले फितरत वालों को ,
आस्तीन में पाल रहे हैं,कितने सीधे -सादे लोग।

जड़ता की मूरत के आगे ,झुक-झुककर देखा हमने,
जाने कैसी आस लगाए ,बैठे ले फरियादें लोग।

शोषण की शिक्षा में माहिर ,गलत इरादों को लेकर ,
झूठे ख्वाब दिखाते दिखते,करते नकली वादे लोग।

कौवे की चाहत है देखी, हंस उसे समझे दुनिया ,
स्वर्ण अक्षरों में यशगाथा,लिखकर उसकी गा दें लोग ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्देमातरम मित्रो!आज मेरी एक सामयिक ग़ज़ल पेश है।आप सभी का स्नेह अपेक्षित है-

आते-जाते लगता है डर।
घर से दफ्तर ,दफ्तर से घर।

घूरती हैं राहों में निशदिन ,
जाने कैसी नज़रें अक्सर।

लड़की तो लड़की होती है,
कलकत्ता हो या हो बक्सर।

गम हों या खुशियों के मंजर ,
नहीं असर पड़ता अब दिल पर।

फल जबसे पेड़ों पर आये,
मिलने आ जाते कुछ पत्थर।

गम के सायों में मत पूछो,
कितना मुश्किल जीना हँसकर।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे भारतमातरम !मित्रो,आज एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी अदालत में हाज़िर है- आपका स्नेह टिप्पणी के रूप सादर अपेक्षित है-

किसी के दर्द पर जो ,दिल हीं दिल में रो नहीं सकते।
समझ लो जिंदगी में ,वो किसी के हो नहीं सकते।

मुहब्बत जब भी होती है,किसी इंसान से प्यारे,
ऐसे इश्कजादे जिंदगी में सो नहीं सकते।

जिसमें हौसले का नूर हो,ज़ज्बा हो बढ़ने का ,
अंधेरों के बवंडर में,कभी वो खो नहीं सकते।

सियासत गर अराजकता,भगोड़ेपन की दर्पण है,
भगोड़े लोग कालिख को ,कभी भी धो नहीं सकते।

घृणा के बीज के तेज़ाब से,है दिल भरा जिनका,
अमन के फूल धरती पर,कभी वो बो नहीं सकते।

जो खुद बैसाखियों का ,ले सहारा चल रहे प्यारे,
वतन का भार जीवन में,कभी वो ढो नहीं सकते।

डॉ मनोज कुमार सिंह
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भोजपुरी गज़ल

वन्दे भारतमातरम् !आज रउवा सबके एगो ताज़ा भोजपुरी गजल भेंट करत बानी,जवन आपके नेह आ आशीर्वाद के अपेक्षा राखतिया । कुछ भोजपुरिया राजनीतिक लेंहड़ से दूर हटिके हमार गिलहरी जइसन प्रयास भोजपुरी के बदलत तेवर आ कलेवर से रउवा सबके वाकिफ करावत रही।भोजपुरी हमार मातृभाषा हीय आ हिंदी राष्ट्रभाषा........

जबसे माउस के ,ख़ास हो गइल।
मन इ वर्चुअल ,कलास हो गइल।

ज्ञान-गठरी ,मोबाईल भइल,
सोंच सगरी, झंलास हो गइल।

केतना इंसानियत घटि गइल,
जइसे घइला ,गिलास हो गइल।

आग मन के ,बुझल देखि के,
दिल के चूल्हा ,उपास हो गइल।

बीज कइसे उगी,नेह के,
मन में सगरो, खटास हो गइल।

तीन बित्ता के ,जिनगी मिलल,
आ समुन्दर, पियास हो गइल।

आदमी मारि के ,आदमी,
सोंच लिहलस,विकास हो गइल।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्देमातरम मित्रो!आज एक ताजा ग़ज़ल आपकी सेवा में हाजिर है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है........

छूकर ये क्या जनाब कर दिया ।
पानी भी शराब कर दिया।

अभी तो होंठ से लगाया था,
पावों को बेहिसाब कर दिया।

सच तो सच है ,फिर मत कहना,
महफ़िल में इंकलाब कर दिया।

थी मेरी जिंदगी निःशब्द अब तक,
तुमने पढ़कर ,किताब कर दिया।

तुम्हें क्या दे दिए ,पैंसठ बरस हम,
मिट्टी मुल्क की ,खराब कर दिया।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वंदेमातरम मित्रो!आज फिर एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी खिदमत में हाज़िर है.......आपका स्नेह अपेक्षित है।

डर का समंदर बन गई है जिंदगी।
क्या बवंडर बन गई है जिंदगी।

ख़्वाब के हर पृष्ठ पर तनती हुई,
जैसे हंटर बन गई है जिंदगी।

पल,महीने,वर्ष साँसों पर छपा,
इक कलेंडर बन गई है जिंदगी।

गम,ख़ुशी की डाल पर यूँ झूलकर,
एक बन्दर बन गई है जिंदगी।

आज रिश्तों को निगलकर उगलती,
ज्यों छछूंदर बन गई है जिंदगी।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे भारतमातरम!मित्रो,आज के हालात पर एक ताजा गजल आपको हाजिर करता हूँ। अगर पसंद आये तो अपनी पसंदगी के साथ टिप्पणी भी अवश्य दीजिये। सदैव की भाँति आपका स्नेह सादर अपेक्षित है.........

आदमी कितना अराजक हो गया।
मुफ्तखोरी का उपासक हो गया।

आदतें जबसे हुईं भस्मासुरी,
स्वार्थ में कितना भयानक हो गया।

त्याग से ज्यादा यहाँ लिप्सा बढ़ी
जिंदगी का लक्ष्य नाहक हो गया।

नागफनियों का चलन जबसे हुआ,
फूल का जीवन विदारक हो गया।

अब तलक जो लूटता था देश को,
देशभक्ति का प्रचारक हो गया।

क्या सियासत हो गई इस दौर की,
नक्सली दिल्ली-सुधारक हो गया।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्देमातरम् मित्रो!एक समसामयिक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी के लिए सादर समर्पित कर रहा हूँ। आपकी टिप्पणी हीं मेरी उर्जा  है ,इसलिए  आपका अधिक से अधिक स्नेह अपेक्षित है-

ऐसी नीति बनी सरकारी।
होती जिसमें चोर बाजारी।

अब तक तो ऐसा हीं देखा ,
नेता जीता ,जनता हारी।

सांप नेवला लहूलुहान कर,
पैसा,ताली लिया मदारी।

जीवन के सपनों में पग-पग,
मुँह फाड़कर खड़ी लाचारी।

थककर चूर हुई नैतिकता,
जज्बातों का मन है भारी।

बदबूदार सियासत अब तो,
है दिल्ली की राजकुमारी।

राजनीति अनुबंध संधि में,
कुर्सी सबकी बारी-बारी।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्देमातरम् मित्रो!आज एक ताज़ा व समसामयिक  गज़ल आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ। आप अपनी बहुमूल्य टिप्पणी देकर अपने स्नेह से आप्लावित करें।

नकली चेहरे नकली लोग।
बिना रीढ़ बिन पसली लोग।

किनसे दिल की बात करें,
कहाँ रहे अब असली लोग।

आत्मप्रशंसा में  केवल अब ,
बजा रहे कुछ डफली लोग।

दर्पण के चेहरे से डरकर,
करते उसकी चुगली लोग।

मीरा ने जब सच बोला,
बोले उनको पगली लोग।

आज सियासत की नजरों में,
फँसी जाल में मछली लोग।

शहरों में हीं मिल जाते अब,
सभ्य,सुसज्जित जंगली लोग।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे भारतमातरम् !मित्रो!आज एक गजल आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ ।टिप्पणी देकर अपने स्नेह से मुझे आप्लावित करें।

सोच ये कैसी घड़ी है।
हरतरफ बस हड़बड़ी हैं ।

कौन सुनता है किसी की,
सबको अपनी हीं पड़ी है।

अजनबी रिश्ते हुए सब,
त्रासदी कितनी बड़ी है।

ख्वाब देकर तोड़ देना,
सरासर धोखाधड़ी है।

हारना भी जिंदगी में,
जीत की पुख्ता कड़ी है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्देमातरम्!मित्रो!आज एक गजल हाज़िर है। अपनी टिप्पणी अवश्य दीजिएगा। सादर प्रस्तुत....

हद से ज्यादा गुजरना, यूँ आसां नहीं।
सबके दिल में उतरना ,यूँ आसां नहीं।

मन के आकाश में ,जब हो गहरा तमस,
रोशनी बन बिखरना ,यूँ आसां नहीं।

सच को सच कह सके, जिंदगी ये सदा,
इन उसूलों पे चलना ,यूँ आसां नहीं।

इश्के-आजार में ,जो भी बीमार है,
फिर से उसका सुधरना ,यूँ आसां नहीं।

वक्त देता है मौक़ा, सभी को मगर,
जो न संभले संभलना ,यूँ आसां नहीं।

(इश्के-आजार- प्रेम का रोग)

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्देमातरम्!मित्रो!आज एक गजल सादर समर्पित है। आपकी प्रतिक्रिया चाहूँगा....

चेहरे पे नकाब, मत डालो।
नज़र किसी पे खराब ,मत डालो।

इश्क चेहरा है ,ख़ुदा का उस पर,
नफरत का तेज़ाब ,मत डालो।

पढ़ा बच्चों को ,मन की आँखों से,
उनमें कूड़ा -किताब ,मत डालो।

हुई बर्बाद पीढ़ियाँ कितनी,
हलक में यूँ शराब, मत डालो।

मुहब्बत, त्याग की विरासत है,
उसमें कोई हिसाब, मत डालो।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज एक ग़ज़ल आपको समर्पित कर रहा हूँ ।आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

जिंदगी उसकी हसीन होती है।
जिसकी अपनी जमीन होती है।

जो दिल को बाँधती है रिश्तों में,
स्नेह की डोर,महीन होती है।

कभी बासी नहीं होती खुश्बू,
सदा ताजातरीन होती है।

दुनिया के दिलों में प्यार भर दे,
वो कविता बेहतरीन होती है।

मुल्क वो खुश नहीं होता कभी भी,
जहाँ बेटी गमगीन होती है।

देश कचरे से जियादा कुछ नहीं,
जिसकी बस्ती मलीन होती है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे  भारतमातरम्!मित्रो!अभी एक गीत "माँ धरती का बेटा हूँ" प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है-

यहीं मेरी औकात,जहाँ मैं लेटा हूँ।
मैं मिट्टी हूँ,माँ धरती का बेटा हूँ।

माँ की साँसें,माँ की धड़कन।
अपनेपन का नव-स्पंदन।
सब कुछ मैं माँ के आँचल से ,
खुद में आज समेटा हूँ।
मैं मिट्टी हूँ..............

करुणा,ममता,धैर्य,दया सब।
त्याग, समर्पण,और क्षमा सब।
मन के निर्मल जल में सबको,
मथ मथ कर मैं फेंटा हूँ।
मैं मिट्टी हूँ..............

सूरज से कुछ आग लिया।
चंदा से शीतल राग लिया।
माँ की छाया में फल-फूलकर,
खुद को दुनिया को भेंटा हूँ।
मैं मिट्टी हूँ..................

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे  भारतमातरम्!मित्रो!आज एक ग़ज़ल हाज़िर है। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

हिलती परछाईं रोशनी का पता देती है।
मुहब्बत मुसलसल आदमी का पता देती है।

उगा लो लाख चेहरे पर,हँसी का समंदर,
आँख इंसान की तश्नगी का पता देती है।

खुशबू याद की दिलों में जज्ब हो तो,
दर्द के होंठ पे ,हँसी का पता देती है।

मेरे दुश्मन हीं,तेरे दोस्त क्यों होते आखिर,
ये अदा तेरी,दुश्मनी का पता देती है।

लड़ेगा मौत से जो,उम्र भर आगे बढ़ कर,
यहीं जज्बात तो,जिंदगी का पता देती है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

ग़ज़ल

वन्दे भारतमातरम्! मित्रो!आज एक ताज़ा ग़ज़ल पुनः आप सभी के लिए समर्पित कर रहा हूँ। विश्वास है , आप सभी का स्नेह टिप्पणी के रूप में जरुर मिलेगा।

आग,मिट्टी,हवा,पानी,जिंदगी को चाहिए।
खुबसूरत इक कहानी,जिंदगी को चाहिए।

हो रवानी,जोश औ जिंदादिली जिसमें सदा,
खुशबुओं से तर जवानी,जिंदगी को चाहिए।

दोस्त बचपन के न जाने,खो गए हैं सब कहाँ,
याद वो सारी पुरानी,जिंदगी को चाहिए ।

भेंट कर अहसास के कुछ फूल ,मन के बाग़ से,
प्यार की कोई निशानी,जिंदगी को चाहिए।

भूल ना जाएँ परिन्दें ,राह अपनी डाल के,
डोर रिश्तों की सुहानी,जिंदगी को चाहिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह
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