Friday, August 16, 2019

हिंदी एक सशक्त और सक्षम भाषा


हिंदी एक सशक्त और सक्षम भाषा
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जिस भाषा में राष्ट्र की अधिकांश आत्मा की धड़कन ,स्पंदन को सरलता से रूपांकित-रेखांकित करने की क्षमता हो ,उसे राष्ट्र भाषा कहना हीं उत्तम होगा |जब कोई बोली -आदर्श या परिनिष्ठित भाषा बनने के बाद किसी भी राष्ट्र की भावात्मक एकता तथा सांस्कृतिक चेतना प्रतिबिंबित करने की क्षमता रखती है -वह राष्ट्र भाषा की संज्ञा से विभूषित होती हैं |देश की अधिकांश जनता की समझ तथा अभिव्यक्ति इसी भाषा में होती है |राष्ट्र भाषा किसी भी राष्ट्र की तस्वीर होती है |किसी भी राष्ट्रभाषा में निम्नलिखित विशेषताएं अवश्य होनी चाहिए -
१- उसे देश की अधिकांश जनता बोलती और समझती हो तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से उसका विशिष्ट महत्त्व हो |
२- उस का व्याकरण सूखा नहीं ,बल्कि सरस और सहज होना चाहिए |
३- उसका साहित्य ज्ञान की विभिन्न विधाओं में विस्तृत और उच्चकोटि का हो |
४- दूसरी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता उस भाषा में होनी चाहिए |
५- उसका शब्द भंडार विशाल तथा विचार क्षेत्र अति विस्तृत हो |
६- उस भाषा के साहित्य में राष्ट्रीय संस्कृति की आत्मा ध्वनित होती हो और
७- उसकी लिपि अति सरल हो ,जिसे सरलता से लोग सिख सकें |
उक्त सन्दर्भ में हिंदी उक्त विशेषताओं से पूर्णतः आपूरित है |
जब भाषा का प्रयोग अति व्यापक और विस्तृत रूप से सारे राष्ट्र में होता है तो उसे राष्ट्र भाषा की संज्ञा दी जाती है और उसी का प्रयोग जब सरकारी कामों में होता है तो उसे राजभाषा कहते हैं |
विगत छः दशकों में हिंदी ने जो छलांग लगाई ही है वह बहुत आश्चर्य जनक पहलू है |इससे पहले की हम इसकी वर्तमान स्थिति की चर्चा करें थोडा हिंदी भाषा के संघर्षपूर्ण विकास पर नज़र डालें |
पहले अदालतों और दफ्तरों की भाषा उर्दू हुआ करती थी लेकिन मध्य प्रान्त [मध्य प्रदेश ] में 1872 में उर्दू के स्थान पर हिंदी को निचली अदालतों एवं दफ्तरों की भाषा घोषित कर दी गई |1881 में बिहार में उर्दू के स्थान पर हिंदी ने जगह ले ली |उत्तर प्रदेश में सन 1884 में गवर्नर बनकर आये अंग्रेज मैकडोनेल के प्रयास ने उर्दू के स्थान पर हिंदी को स्थापित करना चाहा पर सर सैयद अहमद खां ने उसका विरोध कर उसे दबा दिया ,फिर भी 1900 में मैकडोनेल ने 'हिंदी प्रस्ताव ' पारित कर फारसी लिपि के समकक्ष देवनागरी लिपि को घोषित कर दिया |फिर भी इस प्रस्ताव को कागजों में हीं रखा गया और मैकडोनेल का स्थानान्तरण कर दिया गया |हिदी को दफ्तरों और निचली अदालतों की भाषा बनाने के लिए 47 वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी और उसे 1947 के बाद हीं उ.प्र . में सरकारी भाषा का दर्जा मिला |
जिन्ना ने जब उर्दू को मजहबी जुबान घोषित किया तो उर्दू में लिखने वाले हिन्दुओं ने हिंदी में लिखना शुरू कर दिया जैसे प्रेमचंद |दूसरे दशक यानी1920 तक कक्षा में 30 बालक उर्दू के और 3-4 हिंदी के छात्र होते थे ,लेकिन 1940 तक आते-आते 30 हिंदी और 3 -4 उर्दू के छात्र कक्षा में मिले |आज़ादी से पूर्व हीं हिंदी का विकास और लोकप्रियता में असीम वृद्धि हुई ,जबकि सरकारी संरक्षण प्राप्त नहीं था |
हिंदी के विकास के रास्ते में पंडित नेहरू बहुत बड़े रोड़ा थे |आज़ादी के संघर्ष का एक लक्ष्य था एक देश ,एक राष्ट्र,एक भाषा |हिंदी एक मात्र भाषा थी आज़ादी संघर्ष की,मगर नेहरू ने 1948 में मद्रास में घोषित किया कि अगर संविधान ने हिंदी को राजभाषा घोषित किया तो वे उसका विरोध करेंगे | फिर भी 14 सितम्बर 1949 में संविधान सभा ने राजभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया |फिर भी नेहरू ने वह सब किया जिससे हिंदी राजभाषा के रूप में कभी भी स्थापित न हो सके | 13 सितम्बर 1949 को उन्हों ने कहा था - हमारी अपनी भाषा होनी चाहिए ..............इसके लिए प्रजातांत्रिक ढंग अपनाएंगे जोर -जबरदस्ती का [अथोरटेरियन ] से हिंदी फेल हो जाएगी और फिर उन्होंने हिंदी को 15 वर्षों के लिए प्रोबेशन पर रख दिया |
गोविन्द बल्लभ पन्त ने जब दिल्ली में उर्दू कि जगह हिंदी कि वकालत की तो नेहरू जी इतने भड़क गए कि पन्त जी उनके इस व्यवहार से असहज हो गए और उनको दिल का का दौरा पद गया और वे मृत्यु को प्राप्त हो गए |

तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 1961में मुख्यमंत्रियों के एक सम्मलेन में एक प्रस्ताव भेजा था किजिस प्रकार योरप में अलग-अलग भाषाएँ केवल एक लिपि [रोमन ] का प्रयोग करती हैं ,उसी प्रकार भारत में समस्त भाषाओं को देवनागरी में लिखा जाय तो राष्ट्रिय एकता मजबूत होगी ,जिसका समर्थन केरल ,तमिलनाडु तथा बंगाल के मुख्य मंत्रियों ने किया था ,लेकिन नेहरू मंत्री मंडल के शिक्षा मंत्री हुमायु कबीर ने एक मात्र विरोध किया और नेहरू सरकार ने ठंढे बसते में दाल दिया |
हिंदी के प्रति विरोधी मानसिकता के बावजूद जनभाषा हिंदी ने विगत छः दशकों में जो अपनी विस्फोटक और आश्चर्यजनक तस्वीर पेश की है वह सच्चाई के बहुत करीब है और वह सिद्ध करती है कि कोई भाषा अपनी उपयोगिता कैसे सिद्ध करती है |आज वैश्वीकरण के इस दौर में बाज़ार के बढ़ते प्रभाव ने हिंदी की इस ताकत को सिद्ध किया है |चूँकि हिंदी भाषा में दर्शक हैं ,बाज़ार है इसलिए लाभ की संभावना में निजी चैनल हिंदी को अपना रहे हैं |इस समय आप देख रहे हैं कि हिंदी चैनलों की एक बढ़ सी आ गई है |अब तो भारतीय प्रशासनिक सेवा ,आरक्षी सेवा ,अधिकोषी सेवा [बैंक ] ,तकनिकी शिक्षा क्षेत्रों एवं विभागों में भी लिखित और मौखिक रूप से हिंदी प्रयोग का प्रावधान हो गया है |अंग्रेजी की बहुत सारी पत्रिकाओं का हिंदी संस्करण भी निकाला जा रहा है |हिंदी माध्यम के विद्यार्थी संघ लोक सेवा की परीक्षाओं में रोज कीर्तिमान बना रहे हैं |अब तो प्रगति का मानक और आधुनिकता का प्रतीक इंटरनेट पर हिंदी का बाहुल्य हैं |हिंदी के जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप का प्रश्न है वह विश्व मंच पर प्रयोग के आधार पर अनुपेक्षणीय हो चुकी है |अब हिंदी केवल भारत की हीं समन्वय की भाषा नहीं है अपितु वह विश्व समन्वय के लिए भी एक विलक्षण भाषा मंडल है |इसी का का प्रतिफल है कि आज विश्व के 120 विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग स्थापित हैं ,जहां हिंदी शिक्षण के साथ-साथ अनुसंधान कार्य भी चल रहे हैं |मारिशस,फिजी ,गुयाना ,त्रिनिनाद ,सूरीनाम आदि ऐसे देश हैं जहां शिक्षण के साथ -साथ व्यापक स्तर पर संपर्क भाषा के रूप में भी हिंदी का व्यवहार किया जाता है हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने वाले सत्साहित्याकारों में तुलसी ,सूर ,कबीर,निराला,महादेवी वर्मा ,दिनकर ,प्रेमचंद आदि की रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं |
अभी तक संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी का प्रयोग नहीं होना विश्व-जनमत की उपेक्षा का विषय बन गया है |हिंदी के औचित्य को स्वीकार करते हुए अब प्रति वर्ष 24 अक्तूबर को 'संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस ' के साथ -साथ विश्व-हिंदी -दिवस मनाये जाने का संकल्प लन्दन में लिया जा चुका है |निःसंदेह संस्कृत -प्राकृत -अपभ्रंश की परम्परा में विकसित तथा 'आनो भद्राः क्रतवोयन्तु विश्वतः 'के आदर्श से युक्त हिंदी निखिल मानवता की रक्षा ,विश्वशान्ति ,अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना एवं निश्छल प्रेम की अभिव्यंजना की भाषा बन गई है |हिंदी सकारात्मक दिशा में अग्रसर है इसमें कोई दो राय नहीं है |

डॉ मनोज कुमार सिंह

Tuesday, August 13, 2019

दोहा

सुख साधन तक है सीमित,धन,पैसे की चाह।

जीवन के आनंद की,बना न पाती राह।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

कुछ चेहरे हैं देश के,और चुने परिवार।

उनके बिन कुछ भी नहीं,पार्टी का आधार।।😊

#पार्टी अध्यक्ष

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

वंदे मातरम्!

इको फ्रैंडली रूप में,मने अगर बकरीद।

बिना जीव हत्या किए,मिले खुदा की दीद।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

कुछ भी कर लो बदलते,नहीं चरित्र न चाल।

चूहे केवल कुतरते,विश्वासों की खाल।।😊

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

कहने को सागर बड़ा,बुझा न पाता प्यास।
मधु जल में भी घोलता,कड़वाहट,संत्रास।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

भोजपुरी आलेख

राम राम मित्र लोगन के!एगो हमार ई छोट आलेख रउवा सभके समर्पित बा।पढ़ि के आपन आपन विचार भी दी सभे।

'आधुनिक भारतीय भासा' सुनि के रउवा एह भरम में मत पड़ीं की ई सब आज के देन ह।ई सब भासा बहुते प्राचीन हईसन।भारत के बहुत भासा अइसन बाड़ीसन,जवन सीधे संस्कृत या वैदिक भासा से जुड़ल बाड़ीसन।
ओकनी के आधुनिक होखे के एगो इहो कारन बा कि उ आधुनिक विचार के ढोवे में कबहूँ पीछे ना रहलीसन।एकनी के साहित्य कसौटी पर हरमेसा खरा उतरल बा, एही से ई सब आधुनिक भारत के ससंरी बाड़ीसन।
कवनो भासा के पहिलका काम होला दू बेकती चाहे दू समूहन के बीच संपर्क स्थापित करे के माध्यम बनल।
ई लोगन के समूहन के बीच में पुल के काम करेलीसन।एकरा के चाहें प्रकृति के देन मानी या ईश्वर के ,भासा से बड़हन देन अउर कुछऊ नईखे। कवनो भी क्षेत्र में आदमी के सगरी उपलब्धि भासा के ही देन ह।

जहाँ तकले भोजपुरी के सवाल बा,ओकर सबसे अनोखा विशेषता बा ओकर मिठास आ कोमलता।हं, एकर पोर पोर स्वाभिमान से भरल बा।भोजपुरी लोक जीवन के साथे अब ज्ञान आ विज्ञान के भी भासा बन चुकल बिया।कुछ बिद्वान लोग भोजपुरी भाषा के पैदाइश मागधी अपभ्रंस से मानेंलें।हवलदार त्रिपाठी के कहनाम बा कि भोजपुरी संस्कृत से निकलल बिया।उहवें भोलानाथ तिवारी एकर उत्पत्ति संस्कृत-प्राकृत से मागधी अपभ्रंस, आ मागधी अपभ्रंस से बिहारी भासा सभ (जे में भोजपुरी भी सामिल कइल जाले) बतवले बाड़ें।
एगो सत्य बात इहो बा कि जवन भासा दरबार के भासा रहलीसन ,ओकनी के विकास बहुत जल्दी भईल।चुकि भोजपुरी कबहूँ दरबार में स्थान ना पवलसि, एही से एकर विकास ओतना तेजी से ना भईल।एही से सासन,प्रसासन भी एकर धेयान ना राखेला।फिर भी जेकरा हक खातिर रोज कहीं ना कहीं संघर्ष चलिए रहल बा।आसा बा कि एकर हक जरूर मिली।एकरा खातिर जवन गुटबाजी चल रहल बा ,ओकरा के खतम करि के कदम से कदम मिला के चले के पड़ी।तब जाके सफलता मिल पाई। अंत में संस्कृत में एगो श्लोक के माध्यम से बात खतम करेम-

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् l
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ll

यानी हमनी के सगरी लोग एके साथे चलीं जा,एके साथे बोलीं जा,सबकर मन एक होखे।प्राचीन समय में देवता लोग के अइसन आचरण रहल,एही से उ लोग हरमेसा बंदनीय बा लो।जय भोजपुरी!

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक


आँख जिससे चौंधियाये,उस रोशनी की क्या जरूरत?

मित्रता ही मार दे ,फिर दुश्मनी की क्या जरूरत?

गर उजाले में ही कोई,खुद ही लुट जाता खुशी से,

उसकी खातिर जिंदगी में,तीरगी की क्या जरूरत?

डॉ मनोज कुमार सिंह

शे'र

मुल्क को अपने गाली दिया कीजिए,
कुछ पुरस्कार दुनिया से मिलता रहेगा।

डॉ मनोज कुमार सिंह

शे'र

वंदे मातरम्!

गजब की है गरीबी देश में,..दो रुपये चावल को,
लोग आते हैं लेने,...अपनी बाईक गाड़ियों से।😊

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो! एक मुक्तक हाजिर है।

भरा हो स्वार्थ दिल में तो मुरौवत भूल जाता है।

घृणा में आदमी करना मुहब्बत भूल जाता है।

ये कैसा दौर है पैसा नचाये जिंदगानी को,

खड़ा हर पाँव रिश्तों की जरूरत भूल जाता है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक सादर समर्पित है।

रूप जैसे चाँदनी की झील है।
प्रेम जैसे ज्योति की कंदील है।
जब हृदय में झील हो कंदील हो,
जिंदगी का यहीं असली शील है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो!युगबोध से उपजा एक मुक्तक हाजिर है।

दादी की परियों वाले,किस्से नहीं रहे।
माँ-बाप अब परिवार के,हिस्से नही रहे।
सच आइनों की शक्ल में,यूँ ढल सके यहाँ,
दिल में वे खरे,आजकल सीसे नहीं रहे।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

एक तरफ ये बेटियाँ,जीत रहीं हैं गोल्ड।
इक तरफ फेसऐप से,बेटे बनते ओल्ड।
डॉ मनोज कुमार सिंह

भोजपुरी दोहा

लतउर पिटउर के मिले,जब पुरहर परसाद।
सोझ रहेला हृदय से,भुल जाला अवसाद।।😊

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

जो भीगे जल बूँद से,बदले महज लिबास।
पर जो भीगे स्वेद से,बदलेगा इतिहास।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

शे'र

वन्दे मातरम्!

कैसे कह दूँ ..आदमी ग़ुरबत में है।
जो खुदा के इश्क की कुर्बत में है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

मुल्क की कमजोरियों को ढालकर हथियार में।
जाति,मजहब खूब बिके हैं सियासी बाजार में।

रिश्ते नाते प्यार सारे,खो चुके अब मायने,
आदमी जब से डुबा है,स्वार्थ के व्यापार में।

बेल पर जबसे हैं खुद,कुछ लोग देखा आपने,
फिर भी सारी खामियाँ,दिखती हैं चौकीदार में।

गर्दनें झुकती नहीं गर,दूर ही रहना जरा,
सर कलम हो जाएगा,वगरना दरबार में।

तख्त की खातिर सियासत हो रही केवल यहाँ,
स्वार्थसिद्धि में भले ये मुल्क जाए भाड़ में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

शे'र

कुछ बात मुझसे करते मतलब की हमेशा,
मैं आदमी हूँ जबकि बेमतलबी निरा।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

वंदे मातरम्!मित्रो!मेरी एक गीतिका समर्पित है।

दिन नहीं अब रह गए हैं नेकियों के।
पुरस्कारों से भरे घर गलतियों के।

रेत ज्यों तन रह गया जीवन नदी में
लद गए दिन दिल में तिरती मछलियों के।

बस उड़ानों तक निभाता साथ यारों,
आसमाँ घर कब बनाता पंछियों के।

अब चमन में कंकरीटों की है खेती,
पंख सारे नुच गए सब तितलियों के।

जिस तरफ देखो सियासत कुर्सियों की,
मुल्क में बस दौर है नौटंकियों के।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

पर्वत भी ऊँचा नहीं,नहि नीचा पाताल।

श्रमिकों के आगे कभी,सागर नहीं विशाल।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक समर्पित है।

उन्हें इक चाहिए गुलाम बंदा।
कर सके हुक्म पर हर काम बंदा।
नोक पर जूतियों के रख सकें वे,
करे हर पल उन्हें सलाम बंदा।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

चिंतन के झरोखे से

वंदे मातरम्!मित्रो!आज 'चिंतन के झरोखे से' मनुष्यता के सद् मार्ग पर एक भावयात्रा का सहज विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ।इस यात्रा में आप भी सहयात्री बनें।

ओजस्वी बनिए, तपस्वी बनिए लेकिन उससे पहले मनस्वी बनिए क्योंकि मननशीलता ही मनुष्य को अनर्थ के गर्त में गिरने से बचाती है।बिना मननशीलता के मनुष्य विवेकहीनता का शिकार हो जाता है और जिंदगी भर अपने ही पाँव में कुल्हाड़ी मारता रहता है।मननशीलता मनुष्य के लिए रोशनी प्रदान करने वाला दीपक है,पथप्रदर्शक है।जब हम अपने भीतर की यात्रा करते हैं तो यही मननशीलता हमारे मन-हृदय में स्थित कुरीति,अज्ञानता,जड़ता,ढोंग,पाखंड,अंधविश्वास, भ्रमजाल, छुआछूत, ऊंच-नीच, स्वार्थ,घृणा एवं हिंसा के भाव रूपी कूड़े का आसानी से साक्षात्कार करा देती है,जिसे हम साफ कर जीवन पथ को उज्ज्वल और आनंदमय बना लेते हैं। जब व्यक्ति के अन्दर मननशीलता, विचार शीलता ,वैज्ञानिकता आती है तो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सुखी तथा उन्नतशील बनता है ,यही आर्यत्व है,इसके विपरित चलने पर व्यक्ति,परिवार, समाज, राष्ट्र में भीषण संघर्ष होता है जो कि हमारे पतन और दुखों का कारण बनते है!इसलिए 'मनुर्भव' का सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत है।वेदों के अनुसार मन हृदय में स्थित है,मस्तिष्क में नहीं। आत्म तत्त्व को सुसारथि बताया गया है, जो चिंतन-मनन के विवेक से परिपूर्ण होकर जीवन रूपी रथ का संचालन करता है। आइये आत्मस्वरूप होकर चिंतन मनन के पहिए से चलने वाले जीवन रथ पर सवार हो मनुष्यता के सद् मार्ग पर प्रस्थान करें।

डॉ मनोज कुमार सिंह

चिंतन के झरोखे से

वंदे मातरम्!मित्रो!

इस बाजार के दौर में जो दिखाया जाता है,उसे ही देखा जाता है और वही दिखता भी है।तन ढकने और खोलने के बीच जो संबंध है,उसे जादुई कारीगरी कह सकते हैं।किस अंग को किस प्रकार आकर्षक बनाया जाए,बाजार उसकी पूरी जिम्मेदारी(?)निभा रहा है।शरीर के गुप्त स्थलों को प्रगतिशीलता के नाम पर लेखन में भी दिखाया जाता है।न्यूड देह दर्शन आज की काव्यात्मक विधा भी है।कविता के अधिकतर शब्द,पद, वाक्य लिजलिजी यौन कुंठा से लबरेज  बजबजाते हुए पढ़ने को मिलते रहते हैं।इसमें कवियों से ज्यादा संख्या कवयित्रियों की है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

आलेख

वंदे मातरम्!मित्रो!मेरा ये संक्षिप्त आलेख आपको कैसा लगा,अपने अमूल्य विचारों से जरूर अवगत करावें।

क्या वेद,पुराण,शास्त्र लिखने वालों ने या कबीर,तुलसी, सूर ने पाठकों को नजर में रखकर लिखा या उन्होनें वक्त की आवाज और सच को केवल दर्ज कराया।मुझे दूसरा पक्ष सही लगता है।इसलिए मैं पाठक नहीं ढूढ़ता,मुझे विश्वास है कि सही रचनाएँ आज नहीं तो कल अपना पाठक खुद ढूढ़ लेती हैं।
डॉक्टर दवा नहीं बेचता केवल लिखता है।दवाइयाँ दवा की दूकानों पर ही मिलती हैं,लेकिन दुर्भाग्य है कि आज डॉक्टर खुद दवा बेचना शुरू कर दिया है।वह जो दवा लिखता है,दूसरे दुकानों पर नहीं मिलती।उसके अपने मरीज हैं,रोग हैं और इलाज भी अपने हैं।आज अधिकतर रचनाकार कवि,लेखक के साथ प्रकाशक,आलोचक,वितरक और पाठक खुद हैं।आत्ममुग्धता में डूबे ये लोग अपनी टीम भी बना कर रखते हैं।वह इसलिए कि-

तुम मुझको तुलसी कहो,तुझको कहूँ कबीर।
आओ मिलकर बाँट लें, बौनेपन की पीर।।

कोई खुद को व्यंग्यकार तो कोई कहानीकार तो कोई अपने को आलोचक कहता है,लेकिन सच ये है कि वह अपने आपमें वह सब कुछ है,क्योंकि वह एक सफल प्रकाशक और पुस्तक मेला व्यवस्थापक भी है।उसकी महिमा अपरंपार है।वह लोकार्पण /विमोचन का एक सशक्त माध्यम भी है,जिसके माध्यम से पुस्तकें बाजार पर अपना जलवा बिखेरती हैं।
इस देश में जब तक आपकी कोई किताब छपकर नहीं आएगी,तबतक आप कवि या साहित्यकार नहीं माने जाएँगे।
वैसे तथाकथित बड़े बड़े साहित्यकार फेसबुक पर अपने आचरण से एक्सपोज हो चुके हैं,उनका बाजार जरूर प्रभावित हो गया है।जो अनजाने में उन्हें पढ़ जाता था,उन्हें जागरूक पाठक अब अवहेलना करने लगा है।इसमें ज्यादातर तथाकथित साहित्यकार टुकड़े टुकड़े गैंग वाले हैं।उनका एक ही एजेंडा था और है समाज को दलित,आदिवासी,अगड़ा,पिछड़ा,महिला,पुरुष,अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक दरारों में बाँटकर रखना।मानवतावादी कविता उनके लिए तात्कालिक लाभप्रद व्यवसाय नहीं है।इसलिए वे अपनी कुंठाओ को देश और समाज पर कविता,कहानी के रूप में जबर्दस्ती थोपना चाहते हैं।
पाठक पाठक होता है,उसे सीमाओं में बांधना कुप्रयास ही कहा जाएगा।पहले रचना तो दमदार हो,जिसे बिना पढ़े उसे चैन न आए।जुगाड़ के लेखन से सार्वदेशिक, सार्वभौमिक और सर्वकालिक होने का ख्वाब पालना निरा मुंगेरीलाल के हसीन सपनों जैसा है।आइए जानते हैं कुछ साहित्य मनीषियों के साहित्य के बारे में विचार-

जिस साहित्य में हमारी रुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हम में गति और शांति पैदा न हो, हमारा सौन्दर्य प्रेम न जागृ्त हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है। वह साह‍ित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।
- मुंशी प्रेमचंद

वहीं शरतचंद्र ने लिखा कि
सबसे जीवित रचना वह है जिसे पढ़ने से प्रतीत हो कि लेखक ने सबकुछ फल की तरह प्रस्फुटित किया है।
- शरतचंद्र

महात्मा गांधी ने तो यहाँ तक लिख दिया कि
साहित्य वह है जिसे चरस खींचता हुआ किसान भी समझ सके और खूब पढ़ा-लिखा भी समझ सके।
- महात्मा गांधी

अंत में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कथन उद्धृत करना प्रासंगिक होगा-

यदि हमें जीवित रहना है और सभ्यता की दौड़ में अन्य जातियों की बराबरी करना है तो हमें श्रमपूर्वक बड़े उत्साह से सत्साहित्य का उत्पादन और प्राचीन साहित्य की रक्षा करनी चाहिए।
- महावीर प्रसाद द्विवेदी

केवल पाठकों की दृष्टि से लिखा गया प्रायोजित लेखन या दर्शकों की दृष्टि से बनी फिल्म कुछ समय के लिए आर्थिक उपलब्धि के लिए सफल प्रयास माने जा सकते हैं, लेकिन ऐसे साहित्य दीर्घकालिक छाप नहीं छोड़ते।
इसलिए रचना ऐसी रचो कि वर्तमान भले उसे न समझ पाए लेकिन भविष्य उसका दीवाना हो जाए।ऐसा निराला के साथ भी हुआ।कहा जाता है कि वे अपने साहित्यिक जीवन से पचास वर्ष पूर्व ही पैदा हो गए थे।और ये सही साबित हुआ।जिसकी रचनाओं को केंचुआ छंद,रबर छंद आदि कहकर उपेक्षित किया गया,वही पचास वर्षों बाद क्रांतिकारी कदम साबित हुआ।उस काल के सभी कवियों में सबसे ज्यादा निराला को मान्यता मिली है।वे नई पीढ़ी को सबसे ज्यादा प्रेरित कर पाए।हमने पश्चिम से आयातित ज्ञान को जितना ज्यादा अपनाया भारत में साहित्य का स्तर उतना ही गिरता गया।हमने आलोचना क्षेत्र में आयातित टूल्स को सबसे ज्यादा अपनाया और भारतीय साहित्य को उसी मानक पर कसते रहे,जिसका परिणाम हुआ कि हम अपने धीर गंभीर साहित्य को हास्यास्पद बना दिया।अभी समय है ऐसा कुछ रचो कि वह भविष्य को सहजता से जोड़ सके।साहित्य,जिसमें सबका हित छिपा हो,रचा जाए।हमें समाज को टुकड़े टुकड़े में बाँटने वाले साहित्य लेखन से बाज आना चाहिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Sunday, June 2, 2019

शे'र

करो मेहनत जरा औ' बाजूओं पर रख भरोसा,
वरना किस्मत में सबकी लॉटरी नहीं लगती।

डॉ मनोज कुमार सिंह

शे'र


इतना भी मत फुला कर कंजर्फ गुब्बारों-सा,
काफी है इक चुभन तेरी औकात के लिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Thursday, May 30, 2019

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक समर्पित है।

तुम्हारे चाहने,न चाहने से कुछ नहीं होगा,

जो होना है वही होगा,जो लिखा है मुकद्दर में!

नदी बहती पूरे उफान में या शांत तेवर में,

मगर वो अंत में मिलती है,देखा है समंदर में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो!एक 'मुक्तक' समर्पित है।
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वक्त जैसा भी हो,वो एक न एक दिन बीत जाता है।

कोई हारा हुआ बाजी भी एकदिन जीत जाता है।

भरोसा हो अगर दिल में,मुहब्बत हो निगाहों में,

घृणा का हर घड़ा निश्चित मुकम्मल रीत जाता है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह