वंदे मातरम्!मित्रो!मेरी एक गीतिका समर्पित है।
दिन नहीं अब रह गए हैं नेकियों के।
पुरस्कारों से भरे घर गलतियों के।
रेत ज्यों तन रह गया जीवन नदी में
लद गए दिन दिल में तिरती मछलियों के।
बस उड़ानों तक निभाता साथ यारों,
आसमाँ घर कब बनाता पंछियों के।
अब चमन में कंकरीटों की है खेती,
पंख सारे नुच गए सब तितलियों के।
जिस तरफ देखो सियासत कुर्सियों की,
मुल्क में बस दौर है नौटंकियों के।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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