Tuesday, August 13, 2019

आलेख

वंदे मातरम्!मित्रो!मेरा ये संक्षिप्त आलेख आपको कैसा लगा,अपने अमूल्य विचारों से जरूर अवगत करावें।

क्या वेद,पुराण,शास्त्र लिखने वालों ने या कबीर,तुलसी, सूर ने पाठकों को नजर में रखकर लिखा या उन्होनें वक्त की आवाज और सच को केवल दर्ज कराया।मुझे दूसरा पक्ष सही लगता है।इसलिए मैं पाठक नहीं ढूढ़ता,मुझे विश्वास है कि सही रचनाएँ आज नहीं तो कल अपना पाठक खुद ढूढ़ लेती हैं।
डॉक्टर दवा नहीं बेचता केवल लिखता है।दवाइयाँ दवा की दूकानों पर ही मिलती हैं,लेकिन दुर्भाग्य है कि आज डॉक्टर खुद दवा बेचना शुरू कर दिया है।वह जो दवा लिखता है,दूसरे दुकानों पर नहीं मिलती।उसके अपने मरीज हैं,रोग हैं और इलाज भी अपने हैं।आज अधिकतर रचनाकार कवि,लेखक के साथ प्रकाशक,आलोचक,वितरक और पाठक खुद हैं।आत्ममुग्धता में डूबे ये लोग अपनी टीम भी बना कर रखते हैं।वह इसलिए कि-

तुम मुझको तुलसी कहो,तुझको कहूँ कबीर।
आओ मिलकर बाँट लें, बौनेपन की पीर।।

कोई खुद को व्यंग्यकार तो कोई कहानीकार तो कोई अपने को आलोचक कहता है,लेकिन सच ये है कि वह अपने आपमें वह सब कुछ है,क्योंकि वह एक सफल प्रकाशक और पुस्तक मेला व्यवस्थापक भी है।उसकी महिमा अपरंपार है।वह लोकार्पण /विमोचन का एक सशक्त माध्यम भी है,जिसके माध्यम से पुस्तकें बाजार पर अपना जलवा बिखेरती हैं।
इस देश में जब तक आपकी कोई किताब छपकर नहीं आएगी,तबतक आप कवि या साहित्यकार नहीं माने जाएँगे।
वैसे तथाकथित बड़े बड़े साहित्यकार फेसबुक पर अपने आचरण से एक्सपोज हो चुके हैं,उनका बाजार जरूर प्रभावित हो गया है।जो अनजाने में उन्हें पढ़ जाता था,उन्हें जागरूक पाठक अब अवहेलना करने लगा है।इसमें ज्यादातर तथाकथित साहित्यकार टुकड़े टुकड़े गैंग वाले हैं।उनका एक ही एजेंडा था और है समाज को दलित,आदिवासी,अगड़ा,पिछड़ा,महिला,पुरुष,अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक दरारों में बाँटकर रखना।मानवतावादी कविता उनके लिए तात्कालिक लाभप्रद व्यवसाय नहीं है।इसलिए वे अपनी कुंठाओ को देश और समाज पर कविता,कहानी के रूप में जबर्दस्ती थोपना चाहते हैं।
पाठक पाठक होता है,उसे सीमाओं में बांधना कुप्रयास ही कहा जाएगा।पहले रचना तो दमदार हो,जिसे बिना पढ़े उसे चैन न आए।जुगाड़ के लेखन से सार्वदेशिक, सार्वभौमिक और सर्वकालिक होने का ख्वाब पालना निरा मुंगेरीलाल के हसीन सपनों जैसा है।आइए जानते हैं कुछ साहित्य मनीषियों के साहित्य के बारे में विचार-

जिस साहित्य में हमारी रुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हम में गति और शांति पैदा न हो, हमारा सौन्दर्य प्रेम न जागृ्त हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है। वह साह‍ित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।
- मुंशी प्रेमचंद

वहीं शरतचंद्र ने लिखा कि
सबसे जीवित रचना वह है जिसे पढ़ने से प्रतीत हो कि लेखक ने सबकुछ फल की तरह प्रस्फुटित किया है।
- शरतचंद्र

महात्मा गांधी ने तो यहाँ तक लिख दिया कि
साहित्य वह है जिसे चरस खींचता हुआ किसान भी समझ सके और खूब पढ़ा-लिखा भी समझ सके।
- महात्मा गांधी

अंत में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कथन उद्धृत करना प्रासंगिक होगा-

यदि हमें जीवित रहना है और सभ्यता की दौड़ में अन्य जातियों की बराबरी करना है तो हमें श्रमपूर्वक बड़े उत्साह से सत्साहित्य का उत्पादन और प्राचीन साहित्य की रक्षा करनी चाहिए।
- महावीर प्रसाद द्विवेदी

केवल पाठकों की दृष्टि से लिखा गया प्रायोजित लेखन या दर्शकों की दृष्टि से बनी फिल्म कुछ समय के लिए आर्थिक उपलब्धि के लिए सफल प्रयास माने जा सकते हैं, लेकिन ऐसे साहित्य दीर्घकालिक छाप नहीं छोड़ते।
इसलिए रचना ऐसी रचो कि वर्तमान भले उसे न समझ पाए लेकिन भविष्य उसका दीवाना हो जाए।ऐसा निराला के साथ भी हुआ।कहा जाता है कि वे अपने साहित्यिक जीवन से पचास वर्ष पूर्व ही पैदा हो गए थे।और ये सही साबित हुआ।जिसकी रचनाओं को केंचुआ छंद,रबर छंद आदि कहकर उपेक्षित किया गया,वही पचास वर्षों बाद क्रांतिकारी कदम साबित हुआ।उस काल के सभी कवियों में सबसे ज्यादा निराला को मान्यता मिली है।वे नई पीढ़ी को सबसे ज्यादा प्रेरित कर पाए।हमने पश्चिम से आयातित ज्ञान को जितना ज्यादा अपनाया भारत में साहित्य का स्तर उतना ही गिरता गया।हमने आलोचना क्षेत्र में आयातित टूल्स को सबसे ज्यादा अपनाया और भारतीय साहित्य को उसी मानक पर कसते रहे,जिसका परिणाम हुआ कि हम अपने धीर गंभीर साहित्य को हास्यास्पद बना दिया।अभी समय है ऐसा कुछ रचो कि वह भविष्य को सहजता से जोड़ सके।साहित्य,जिसमें सबका हित छिपा हो,रचा जाए।हमें समाज को टुकड़े टुकड़े में बाँटने वाले साहित्य लेखन से बाज आना चाहिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

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