Wednesday, July 23, 2014


वंदेमातरम् मित्रों !आज एक कविता जो 1990 में कॉलेज के दिनों में मैंने लिखी थी, आप सभी को सादर समर्पित कर रहा हूँ .................अच्छी लगे तो आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है .............

मैं
खाली हो गई
दियासलाई की 
अंतिम तिल्ली हूँ
तब्दील मत करो मुझे
सिगरेटी धुओं में
या
कायर आत्मदाह में
चाहते हो
जलाना हीं अगर
तो
फेंक दो जलाकर
उन हत्यारी अट्टालिकाओं के चेहरों पर
जो झोपड़ियों के कब्र पर
खड़ी होकर
भयानक अट्टहास कर रही हैं
या
उस टोपी पर
जिसकी नकली
समाजवादी सदरी के दरवाजे पर
कहीं गांधीवादी
तो कहीं
लोहियावादी दूकान
तथा कुर्ते की खोली में
घोटाले व चकला घर
चलते हैं
या
जला दो उस चूल्हे को
जिसने लगातार कई दिनों से
आग का मुँह नहीं देखा
जिसके नहीं जलने से
उसका पूरा परिवार भूखा है |

डॉ मनोज कुमार सिंह

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