Monday, October 6, 2014



न्याय बेईमान हो गया |
व्यर्थ संविधान हो गया |
देखकर अनीति का चलन ,
सत्य बेजुबान हो गया |
आज लोकतंत्र फिर लुटा ,
चोर फिर महान हो गया |
आदमी अब आदमी नहीं ,
हिन्दू मुसलमान हो गया |
पेशगी उसे भी कल मिली ,
प्यादा दीवान हो गया |




जबसे झूठे कथ्य, मानक हो गए |
सत्य के सिद्धांत, भ्रामक हो गए |
कौड़ियों के भाव ,जो कल तक बिके,
आज लाखों के, अचानक हो गए |
है डुबी लिप्सा में, जबसे लेखनी ,
हाशिये पर सूर ,नानक हो गए |
है कमी परिवेश, या माँ-बाप की ,
किस कदर बेटे ,भयानक हो गए |
दामिनी का दौर, निशदिन देखकर ,
दर्द से गुंफित, कथानक हो गए |




वक्त का है क्या ठिकाना ,क्या से क्या हो जायेगा |
आज है जो सुर्ख़ियों में ,कल निहां हो जायेगा |
झूठ के दरबार में, सच बोलना अपराध है ,
फिर भी खुद पर रख भरोसा ,फैसला हो जायेगा |
बात अच्छी है तो, दुनिया को बताओ तुम सदा ,
लोग माने या नहीं ,पर मशविरा हो जायेगा |
सुधर जायेगी ये दुनिया ,ना कोई शिकवा -गिला ,
आदमी खुद के लिए जब ,आईना हो जाएगा |
प्यार छुपने से ,छुपाने से, भी यूँ छिपता नहीं ,
अँधेरों में सितारों-सा ,नुमायां हो जाएगा |




स्वार्थ में टुच्ची औ सस्ती हो गई |
सियासत मौकापरस्ती हो गई |
हो गया मुहाल ,जीना अब यहाँ ,
हर तरफ चोरों की, बस्ती हो गई |
बेवजह गुलाम ,दिल को कर दिया ,
मन की जैसे ,जबरदस्ती हो गई |
देखकर पीड़ा, हमारी आँख में ,
उनकी जैसे, दिल की मस्ती हो गई |
भूख से पामाल थी, किस्मत कभी ,
आज वो दुनिया की हस्ती हो गई |




मानव -मन की शुष्क धरा में ,प्राण जगाने आया हूँ |
अंतस के अँधियारों को ,मैं दूर भगाने आया हूँ |
निगल न जायें अँधियारे ये ,किरणों के नव स्पंदन ,
स्पंदन में जिजीविषा के, बीज उगाने आया हूँ |
सुविधाओं के पिंजरे में ,पंखों का अर्थ भूला पंछी ,
गीत उड़ानों का लेकर मैं, आज सुनाने आया हूँ |
मातृभूमि की प्रखर वंदना और मुक्ति की चाह लिए ,
भक्ति ,क्रांन्ति का पुष्प ,दीप ,नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ |




भाईचारा ,प्रेम जहाँ पर,सपना है |
कैसे कह दूँ मुल्क, यहीं वो अपना है |
जहाँ सेक्स औ बलात्कार की बातें हीं ,
मीडिया ,अखबारों को, केवल जपना है |
मंत्र आज का ,दिखता है, वो बिकता है ,
इश्तेहार बन बाज़ारों में, छपना है |
जलते हुए सवालों को, हल कौन करे ,
या सदियों तक, हमको यूँ हीं तपना है |
नैतिकता औ मूल्यों की, जब बात करूँ,
कहते हैं सब, मुझमें अभी बचपना है |



अनुभवों की पाठशाला में, पढ़ें हम |
सच किताबों में नहीं ,खुद में गढ़ें हम |
जिंदगी की राह में, मस्ती की खातिर ,
प्यार की झोली लिए, हरदम बढ़ें हम |



सुविधाओं का ख्वाब सँजोए,बैठे यहाँ निठल्ले लोग |
स्वार्थपूर्ति में सबसे आगे ,करते बल्ले-बल्ले लोग |
प्रेम ,समर्पण की धरती, वीरान सरीखी लगती है ,
जाति -धर्म की खींच लकीरें ,बाँटे हुए मुहल्ले लोग |



जिन्दगी के नाम इक ,अभियान लिखना चाहता हूँ |
चेतना की रश्मियों से ,ज्ञान लिखना चाहता हूँ |
आ सके ठंढी हवा ,लेकर मुहब्बत की सदा ,
सब दीवारों पे यूँ, रोशनदान लिखना चाहता हूँ |







Wednesday, July 23, 2014

वंदेमातरम् मित्रों !आज सामयिक युगबोध से अनुभूत एक मुक्तक आपको समर्पित .......आपका स्नेह हमेशा की तरह सादर अपेक्षित ....................

फिर डर गया हूँ आज, उसका प्यार देखकर |
लूटा था जिसने मुझको, लाचार देखकर |
ऐसा मुझे लगा था ,,बख्शी है ख़
ुशी उसने ,
पर दुःख उसे था , मुझको खुशगवार देखकर |
वंदेमातरम् मित्रो !आज एक कुण्डलिया आपको समर्पित ..........आपका स्नेह सादर अपेक्षित 

लालू के कटु व्यंग्य पर ,करने को आघात |
ताल ठोककर आ गए ,बादल ले बरसात ||
बादल ले बरसात ,बुझा दी प्यास धरा की |
सूखे जन -मन का जीवन भी हरा-भरा की |

बादल बोले- हो रहे ,अच्छे दिन चालू |
करना नहीं मजाक, दुबारा हम से लालू ||
वंदेमातरम् मित्रों ! देश आज एक मजबूत हाथ में है क्योंकि देश की करोड़ों जनता ने बहुत विश्वास के साथ देश की बागडोर इस हाथ में सौंपी है |अब इस मजबूत हाथ को देश की जनता के प्रति एक अहम जिम्मेदारी निभानी होगी | मैं इन्हीं मनोभाव से प्रेरित एक ताज़ा ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ आपका स्नेह प्रतिक्रिया स्वरुप सादर अपेक्षित है ...................

दिन हैं अच्छे, ये अहसास कराया जाए |
हर मुफलिस को, अब सीने से लगाया जाए |

दबे-कुचले औ शोषित, वंचितों की धरती पे ,
गिरे इस मुल्क को ,बच्चे- सा उठाया जाए |

ग़मों की आँच पे ,ज़ज्बात का मरहम रख के ,
दर्द के पाँव का, हर जख्म मिटाया जाए |

बीज इंसानियत की, इस धरा पे कायम हो ,
किसी भी हाल में ,बच्चों को बचाया जाए |

जो भी भटके हैं ,उन्हें प्यार की थपकियों से ,
धीरे-धीरे हीं सही, राह पे लाया जाए |

जाति-मजहब की, दीवारों को तोड़कर अब तो ,
प्रेम की नींव पर ,इक मुल्क बसाया जाए |

वंदेमातरम् मित्रो! उत्तराखंड प्रवास में मुझे कैंचीधाम जाने का सुयोग मिला जहाँ बाबा नीम करोरी महाराज का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ |जिस दिन मैं बाबा के दरबार में पहुँचा भक्तों की भारी भीड़ थी लेकिन सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुन्दर थी कि दर्शन करने में कोई परेशानी नहीं हुई |प्रसाद में मिले पुए वहीँ पंडाल में बैठकर ग्रहण किया |वहीँ मेरे मन में कुछ अनुभूति हुई जिसे पंक्तियों में आपको भी समर्पित कर रहा हूँ ...................

बाबा नीम करोरी के दरबार में |
भूल गया मैं दुनिया, उनके प्यार में |

प्यार, मुहब्बत दुनिया की सच्चाई है ,
बाकी बातें सब, झूठी संसार में |

श्रद्धा औ विश्वास, जगत में कायम हो ,
हनुमत आये,लछिमन के अवतार में |

मानवता की सेवा के, प्रतिमान बने ,
शोषित ,वंचित ,दलितों के उद्धार में |

चली आ रही भक्तों की,अनगिन टोली ,
देख रहा हूँ , कैंचीधाम पहाड़ में |
सगरी मित्र लोगन के राम-राम !आज रउवां सबके एगो भोजपुरी में मुक्तक समर्पित करत बानी |अगर नीमन बुझाव त आपन विचार आ स्नेह जरुर दिहीं...........
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डारविन के थिउरी अब सच बुझाता ,
आदमी औलाद ह लंगूर के |
एकता के सूत्र में माला गूथल,
रख न दे कवनो अभागा तूर के |

वंदेमातरम् मित्रों ! आप सभी का अपार स्नेह सदा बना रहे और मैं अपनी साहित्य-साधना के माध्यम से आप सभी की सेवा करता रहूँ |आज सम-सामयिक परिस्थितियों पर एक ताजा गजल आपको समर्पित कर रहा हूँ ..................आपका स्नेह टिप्पणी रूप में अपेक्षित है .....

धूप मतलब की नूरानी हो गई |
अब सियासत बदजुबानी हो गई |

वासना के पृष्ठ पर लिखी हुई ,
एक गन्दी-सी कहानी हो गई |

इश्क ने सीमा मिटा दी उम्र की ,
हुश्न बूढ़े की दिवानी हो गई |

देश यो यो और मुन्नी में डुबा,
गौण अब झाँसी की रानी हो गई |

कब तलक खरगोश हारेगा यहाँ ,
ये कथा कितनी पुरानी हो गई |

जो पिता सोता नहीं है रातभर ,
समझ लो बिटिया सयानी हो गई |
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक 'मुक्तक' आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ जिसे आज की सियासी परिप्रेक्ष्य में समझ सकते हैं ...............

जिनकी रही, अदावत उनसे |
करते रहे, बगावत उनसे |
देख रहा हूँ ,अब तो उनकी ,
चलती अच्छी, दावत उनसे |

वंदेमातरम् मित्रों !आज एक कविता जो 1990 में कॉलेज के दिनों में मैंने लिखी थी, आप सभी को सादर समर्पित कर रहा हूँ .................अच्छी लगे तो आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है .............

मैं
खाली हो गई
दियासलाई की 
अंतिम तिल्ली हूँ
तब्दील मत करो मुझे
सिगरेटी धुओं में
या
कायर आत्मदाह में
चाहते हो
जलाना हीं अगर
तो
फेंक दो जलाकर
उन हत्यारी अट्टालिकाओं के चेहरों पर
जो झोपड़ियों के कब्र पर
खड़ी होकर
भयानक अट्टहास कर रही हैं
या
उस टोपी पर
जिसकी नकली
समाजवादी सदरी के दरवाजे पर
कहीं गांधीवादी
तो कहीं
लोहियावादी दूकान
तथा कुर्ते की खोली में
घोटाले व चकला घर
चलते हैं
या
जला दो उस चूल्हे को
जिसने लगातार कई दिनों से
आग का मुँह नहीं देखा
जिसके नहीं जलने से
उसका पूरा परिवार भूखा है |

डॉ मनोज कुमार सिंह

Thursday, April 24, 2014





वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आपको समर्पित है ...................आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में 

सादर अपेक्षित है .............



दिखावट की अदा से, जो भी मद में चूर रहता है |


हकीकत में वो अपनी, जिंदगी से दूर रहता है| 


किसी भी गैर की उपलब्धि से, जो खुश नहीं होता ,
सदा वो मुस्कुरा कर भी,दुखी भरपूर रहता है |

डॉ मनोज कुमार सिंह 











वंदेमातरम् मित्रों ! आज सतुआन और बैसाखी की शुभकामनाओं के साथ जालियाँवाला बाग़ के शहीदों 

को नमन करते हुए एक ताज़ा ग़ज़ल के कुछ शेर आपको समर्पित कर रहा हूँ ............



आज़ादी के बाद देखिये, कैसे-कैसे काम हो गए |


पेटेंट सभी घोटाले-घपले, नेताओं के नाम हो गए |

मातृभूमि की आज़ादी हित ,जिसने फाँसी चूम लिया ,
राजनीति की कब्रगाह में, नाम वहीँ गुमनाम हो गए |

जाति-धर्म की दीवारों में ,कटुता के पत्थर रखकर ,
धीरे-धीरे हम सब खुद हीं ,कुर्सी के गुलाम हो गए |

जिसने पार्टी बदल-बदलकर सत्ता का सुख भोग लिया ,
उसकी तो समझो जीवन में, सुख के चारो धाम हो गए |

डॉ मनोज कुमार सिंह










वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक समर्पित है जिसमें एक प्रश्न भी है आपका उत्तर टिप्पणी के रूप में 

सादर अपेक्षित है .........................



देश उसे हक़ क्यूँ देता सम्मान का ?


जिसको ज्ञान नहीं है, किसी विधान का |


संविधान की रोज करे ऐसी-तैसी ,


नेता सफल वहीँ क्यूँ, हिन्दुस्तान का ?

डॉ मनोज कुमार सिंह









वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित करता हूँ ............आपका स्नेह 

टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है .................



तुम्हीं बतला कि कितना ,झूठ मेरा आकलन है |


जिंदगी आम जन की, दर्द का इक संकलन है |


सपने कैद होकर रह गए हैं, योग्यता की ,


विरासत में सियासत का, हुआ जबसे चलन है |

डॉ मनोज कुमार सिंह










वंदेमातरम् मित्रों ! आज चार पंक्तियाँ ''मुक्तक'' के रूप में आप को समर्पित कर रहा हूँ ,...........आपका 

स्नेह सादर अपेक्षित ....................



खड़ा तिराहे इंतजार में ,नेता की अगवानी में |


जिनके आशीर्वाद से रघुआ ,जीता था परधानी में |


बहुत दिनों के बाद पधारे ,गाँव हमारे नेता जी ,
फिर से भेंट चढ़ेगी कोई,रधिया आज निशानी में |

डॉ मनोज कुमार सिंह 









वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ ................आपका स्नेह 

अपेक्षित है ....................



देख रहा वाणी में उनकी ,अब वो तेज नहीं है |


कहते थे जो जीवन ,केवल सुख का सेज नहीं है |


थे जो धूर विरोधी ,आज प्रवक्ता बन बैठे हैं ,


आज व्यवस्था से उनको ,कोई परहेज नहीं है |

डॉ मनोज कुमार सिंह










वन्देमातरम् मित्रों !आज एक ताज़ा ग़ज़ल आपको समर्पित कर रहा हूँ .........अगर रचना अच्छी लगे तो 

स्नेह जरुर दीजियेगा ............


अद्भुत अजब शिकारी पैसा |

करता चोट करारी पैसा |



कौन जीत पाया है उससे ,
सबसे बड़ा जुआरी पैसा |

किसको मिलता है जीवन में ,
बिना घूस सरकारी पैसा |

कभी जरुरत ,कभी शौक से,
करवाता मक्कारी पैसा |

क्रिकेट खेल नहीं है यारों ,
असली खेल ,खिलाड़ी पैसा |

कैसे-कैसे नाच नचाये ,
देखो आज मदारी पैसा |

क़द्र नहीं करते जो उसकी ,
करता उन्हें भिखारी पैसा |

बाजारों के दौर में देखा ,
रिश्तों पर भी भारी पैसा |

डॉ मनोज कुमार सिंह












वन्देमातरम मित्रों !आज एक मुक्तक , जो सांप्रदायिक सद्भावना के लिए है ,आपको समर्पित कर रहा हूँ .

..........आपकी प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है ......



शर्म से झुकता हुआ, अपना तिरंगा हो न फिर |


आपसी सौहार्द्र की ,मैली यूँ गंगा हो न फिर |


खून की होली ,दिवाली ,गोधरा -सा मत मना ,


शपथ लें हम देश में, कोई भी दंगा हो न फिर |

डॉ मनोज कुमार सिंह














वंदेमातरम् मित्रों ! आज पुनः एक मुक्तक आपको समर्पित कर रहा हूँ .................आपका स्नेह सादर 

अपेक्षित है .............


बड़ा आसान है यूँ पाठ ,दुनिया को पढ़ा देना |


अपनी खामियों को, गैर के मत्थे मढ़ा देना |


किसी को ख्वाब देकर, जो उसे सच कर नहीं सकता ,


उसे क्या हक़ ,किसी के ख्वाब को, फाँसी चढ़ा देना |

डॉ मनोज कुमार सिंह











वंदेमातरम् मित्रों !आज आप सभी को एक मुक्तक समर्पित कर रहा हूँ ...............सही लगे ,तो आपका 

स्नेह टिप्पणी रूप में अपेक्षित है ....................



हादसे आज अब, इस कदर हो गए हैं |


सबके रिश्ते यहाँ, दर-बदर हो गए हैं |


सो न पाता है कोई ,यहाँ चैन से अब ,


ख्वाब जबसे , मुजफ्फरनगर हो गए हैं |

डॉ मनोज कुमार सिंह










अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ई -पत्रिका 'प्रयास ' के द्वादशम अंक [मार्च 2014 ]में मेरी रचनायें प्रकाशित की गई है 

जो पत्रिका के पृष्ठ संख्या 48 पर स्थित हैं |मेरा एक मुक्तक भी इस पत्रिका में छपा है ............



तुम तो बसता शहर ,मगर जो उजड़ा ,वो मैं गाँव हूँ |

अंतहीन दुःख-दर्द लिए मैं ,थका हुआ इक पाँव हूँ |
कितनी बार समंदर लांघा ,समय-समय की बात है ,
आज रेत पर पडा हुआ मैं ,जर्जर -सी इक नाव है |

आप मेरी रचनाओं को www.vishvahindisansthan.com/prayas12 पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं |












वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक ग़ज़ल आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ ........आपका स्नेह अपेक्षित है ...............

शाम कभी भोर जिंदगी |
धड़कन की शोर जिंदगी |

वक्त की पतंग साधती ,

सांसों की डोर जिंदगी |


पाकर हर भाव की छुअन,

हो गई विभोर जिंदगी |


चाहतों का चाँद देखकर ,

बन गई चकोर जिंदगी |


दर्द का गुबार बन ,बही ,

आँखों की लोर जिंदगी |


लगती आसान है ,मगर ,

मौत से कठोर जिंदगी |


डॉ मनोज कुमार सिंह








वंदेमातरम् मित्रों !आज युगबोध से संपृक्त एक मुक्तक आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ 

.................आपका स्नेह टिप्पणी रूप में सादर अपेक्षित है ...........



संकट में जो छोड़ गए वो ,साथी सभी भगोड़े निकले |


जिनको शेर समझता था मैं ,कीड़े और मकोड़े निकले |


जनता की हक़ की खातिर जो ,बैठा था नेता भूखा ,


जाँच हुई तो तोंद में उसकी ,दारू और पकौड़े निकले ||

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह











वन्देमातरम मित्रों !आपको एक ताज़ा ग़ज़ल सादर समर्पित कर रहा हूँ ..........अगर रचना अच्छी लगे 

तो अपनी टिप्पणी अवश्य दें ...........



राष्ट्रभक्ति की प्रखर चेतना ,जब से ली अँगड़ाई है |


परिवर्तन की हुँकारों से ,राजनीति घबराई है |


शासन-सत्ता ,गद्दारों ने, राष्ट्रनीति की राहों में ,

षड्यंत्रों से बुनी हुई ,इक लम्बी जाल बिछाई है |


लफ्फाजी ,हुड़दंग ,अराजकता की ,आज सियासत में ,

भ्रष्टों से मिलकर कुछ ने ,अपनी सरकार बनाई है |


शर्मिंदा है देश ,शहीदों के सपने, सब घायल हैं ,

अनाचार ने अपनी लंका ,जबसे यहाँ बसाई है |


भूख ,गरीबी के घर बैठी ,महँगाई डायन जबसे ,

आर्तनाद ,क्रन्दन से चहुँदिश, घोर उदासी छाई है |


धन-कुबेर बस सोच रहा ,धन खर्चें कहाँ जमाने में ,

हम हैं इक जो रोटी खातिर ,सारी उम्र बिताई है |

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह











वन्देमातरम मित्रों !आज एक कुण्डलिया छंद आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ ....आपका स्नेह टिप्पणी 

रूप में अपेक्षित है .........


[बुरा न मानो होली [गोली] है ..................


तू राखी सावंत -सा ,सचमुच करे धमाल |


राजनीति के आइटम ,मिस्टर खुजलीवाल |
मिस्टर खुजलीवाल ,आप का इक सपना है |
ख़बरों में बस किसी तरह ,बने रहना है |
गैरों पर तोहमत लगा ,बने फिरे तू संत |
समझ चुका है देश अब ,तू राखी सावंत |

डॉ मनोज कुमार सिंह










वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक 'मुक्तक' आप सभी को पुनः समर्पित है ............आपका स्नेह अपेक्षित है ..............



कभी अचानक मन में ,कुछ-कुछ होने लगता है |


हँसते-हँसते यूँ हीं दिल, फिर रोने लगता है |


दर्द सहूँ मैं कब तक यारों, सीने में रखकर ,
मुफलिस की आँखों का अश्रु ,चुभोने लगता है |

डॉ मनोज कुमार सिंह 









वंदेमातरम् मित्रों ! आज 'AAP' के मुखिया का मीडिया फिक्सिंग जिसे पूरे देश ने देखा ,उसी सन्दर्भ में 

एक मुक्तक आपको समर्पित कर रहा हूँ ...............



चाल यूँ चलने की कोशिश मत करो |


देश को छलने की कोशिश मत करो |


शहीदों के ख्वाब से मत कर सियासत ,


भगत सिंह दिखने की कोशिश मत करो |

डॉ मनोज कुमार सिंह










वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक पुनः आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ .............अच्छा लगे तो आपका स्नेह अपेक्षित है .............

कुर्सियाँ जब से बपौती हो गईं |


सियासत तब से चुनौती हो गई |


आम हिस्से की ख़ुशी जब से छिनी ,


जिंदगी सबकी पनौती हो गई |

डॉ मनोज कुमार सिंह









वन्देमातरम मित्रों ! एक मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित कर रहा हूँ .......स्नेह अपेक्षित है ............

त्याग ,करुणा, प्रेम से ,खुद को सजाकर रख ज़रा |


जिंदगी को इक धरोहर -सा, बचाकर रख ज़रा |


ग़म तुम्हारे ,ख़ुशी बनकर, पाँव चूमेंगे सदा ,


पाँव अग्नि में तो पहले, मुस्कुराकर रख ज़रा |

डॉ मनोज कुमार सिंह 







वंदेमातरम् मित्रों !आज जो संसद में हुआ उसे देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई कि हमारे ये नेता 

कितनी गिरी हुई हरकत कर सकते हैं जिन्हें हम अपना प्रतिनिधि मानते हैं |उनके आचरण को देखकर 

मेरे ह्रदय में जो भाव उठे उन्हें ग़ज़ल के रूप में बांधने की कोशिश की है मैनें .................आपकी जीवंत 
प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है ...........

जनतंत्र के मंदिर को, अखाड़ा बना दिया |
विश्वास की गरिमा का, कबाड़ा बना दिया |


संसद को नेताओं ने, देशद्रोहियों -सा आज ,

सूअर का जैसे जंगली, बाड़ा बना दिया |


पैंसठ बरस से देश को, चूसा है इस तरह ,

जन-जन की जिंदगी को, छुहाड़ा बना दिया |


कागज के आंकड़ों में, खुशहाल दिखाकर ,

नारों को अपने नेता ,नगाड़ा बना दिया |


छत्तीस तो दिखावा है ,तिरसठ है असलियत ,

कुर्सी ने सियासत को ,पहाड़ा बना दिया |

डॉ मनोज कुमार सिंह







उसके हिस्से की ,कौन खाता है ?


तड़पकर भूख से ,जो मर जाता है |


काम करता है जो मजूरी का ,


खाली हाथ घर, जो लौट जाता है |







वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आपकी नैतिकता को समर्पित ........आपका स्नेह सादर अपेक्षित ..............

मधुमख्खियों के डंक नहीं ,शहद देखो |


स्वतंत्रता में भी तुम अपनी हद देखो |


दुनिया में महान होना है अगर तुम्हें ,


अपने बुजुर्गों से अपना छोटा कद देखो |






वंदेमातरम् मित्रों !आज जो संसद में हुआ उसे देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई कि हमारे ये नेता 

कितनी गिरी हुई हरकत कर सकते हैं जिन्हें हम अपना प्रतिनिधि मानते हैं |उनके आचरण को देखकर 

मेरे ह्रदय में जो भाव उठे उन्हें ग़ज़ल के रूप में बांधने की कोशिश की है मैनें .................आपकी जीवंत प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है ...........

जनतंत्र के मंदिर को, अखाड़ा बना दिया |

विश्वास की गरिमा का, कबाड़ा बना दिया |


संसद को नेताओं ने, देशद्रोहियों -सा आज ,

सूअर का जैसे जंगली, बाड़ा बना दिया |


पैंसठ बरस से देश को, चूसा है इस तरह ,

न-जन की जिंदगी को, छुहाड़ा बना दिया |


कागज के आंकड़ों में, खुशहाल दिखाकर ,
नारों को अपने नेता ,नगाड़ा बना दिया |

छत्तीस तो दिखावा है ,तिरसठ है असलियत ,

कुर्सी ने सियासत को ,पहाड़ा बना दिया |

डॉ मनोज कुमार सिंह







वंदेमातरम् मित्रों !आज एक सद्यः प्रसूत 'मुक्तक' आपको समर्पित करता हूँ ,.................आपका स्नेह अपेक्षित है ................

मधुरता ,सादगी मन में, यूँ डाल कर रखना |


बहुत अनमोल है जीवन ,संभाल कर रखना 


हृदय के घोसले में, हो सकें रिश्ते सुरभित ,


कबूतर प्रेम का ,जीवन में पाल कर रखना ||



आज मातृभाषा दिवस पर सगरी साथी,संहतिया लोगन के राम-राम !बीस करोड़ से ज्यादा लोगन के 

मनभावन भाषा, हमार मातृभाषा भोजपुरी देश से लेके विदेश तकले आपन छाप छोडले बिया |एकरा 

भीतर मिठास आ भाव-तरलता के साथे-साथे कोमलता ,सरसता आ पल भर में जी के जुड़ादेवे वाली 

ताजगी आ जवन ताकत मौजूद बा ओकर कवनों सानी नईखे |भाषा के अर्थ में भोजपुरी शब्द के सबसे 

पहिले प्रयोग सन 1868 ई.में जाँन बीम्स अपना एगो लेख में कईले बाड़ें|आईं सबे एगो हमार भोजपुरी 

गजल पढ़ीं ,माजा आवे त असीरबाद आ सनेह दिहीं.................



दरद के ग़ज़ल कबहूँ गावल ना जाला |

करेजा के कुहुकल देखावल ना जाला ||


कहे बात सगरी ,अंखियन के आँसू ,

मुँहवा से कुछऊ सुनावल ना जाला |


जईसे मिठाई के रस लेला गूंगा,

मगर स्वाद कहि के बतावल ना जाला |


दरद जे दिहल आज मरहम बनल बा ,

दिल से उ मरहम लगावल ना जाला ||


अँजोरिया ,उ किरिया ,नदी के किनारा ,

भुलाके के भी अब त भुलावल ना जाला |


जिनगी बिताईं हम, अब कईसे बोलीं ,

छन भर भी तनहा ,बितावल ना जाला |

डॉ मनोज कुमार सिंह






वन्देमातरम मित्रों ! आज पुनः एक ताज़ा ग़ज़ल आपको समर्पित कर रहा हूँ ......आप सभी का स्नेह हीं 

मेरा बल है ..............सादर ,.



मत अपना काम, अधूरा कर |

जो भी करना है ,पूरा कर |


जीवन को कर ,हँसता गुलाब ,

मत खुद को भाँग, धतूरा कर |


खोने की कुछ, परवाह ना कर ,

मन को मीरा ,तन सूरा कर |


बेटी ,बहनों की, इज्जत कर ,

मत गलत नजर से, घूरा कर |


जो काट सके, मन का बंधन ,
तू ज्ञान रश्मि को ,छूरा कर |

डॉ मनोज कुमार सिंह




वंदेमातरम् मित्रों !आज सच को बयान करता हुआ मेरा एक 'मुक्तक ' आप सभी को समर्पित है |क्या 

आप मेरी बात [मुक्तक ] से सहमत हैं?............. कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी देकर स्नेह प्रदान करें ..........सादर ,




बंदूकों से भरी दूकानें ,जब तक यहाँ सजायेंगे |


भ्रष्टाचारी रोज देश में ,तब तक पूजे जायेंगे |


आज छिछोरी राजनीति की, इक सच्ची तस्वीर यहीं ,


कुछ भी कर लो कुर्सी-सत्ता ,फिर भी वहीँ चलायेंगे|

डॉ मनोज कुमार सिंह





वन्देमातरम मित्रों !आज पुनः आपको एक मुक्तक समर्पित करता हूँ जिसमें कवियों का रक्त-चरित्र 

[DNA]मुखरित है .......अच्छी लगे तो आपका स्नेह चहूँगा ......


सुविधाओं में डुबा हुआ कवि ,दरबारी होता है |


बुद्धि -विलासी कवि सदा हीं ,अखबारी होता है |


मातृभूमि की कथा-विथा जो, रक्त-रश्मि से रचता ,


क्रांतिवीर कवि दुनिया में ,सब पर भारी होता है |

डॉ मनोज कुमार सिंह




वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित कर रहा हूँ,..........आपका स्नेह 

अपेक्षित है ...........

हम उस देश के वासी हैं ,जहाँ धर्म-जाति का नारा है |


पग-पग पर नफरत द्वेष बंटे,बह रही लूट की धारा है |


है अवसरवादी सोच जहाँ,कुर्सी -सत्ता हित साधन में ,


अब दिशाहीन जन-गण-मन का, ईश्वर हीं मात्र सहारा है |

डॉ.मनोज कुमार सिंह





वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक पुनः आपको समर्पित है जो आज के लिए प्रासंगिक है |कृपया आप 

अपने टिप्पणी से प्रसंग बतायें और अपना स्नेह दीजिये ...........

कट रही है जिंदगी, सुख-प्यार में |


बैठता हूँ जब से मैं ,दरबार में |


कर्म की मैं साधना ,क्योंकर करूँ ,


चापलूसी जब घुमाती, कार में |

डॉ मनोज कुमार सिंह






वंदेमातरम् मित्रों! आज एक कविता आपको समर्पित करता हूँ ,अगर अच्छी लगे तो आप का स्नेह अपेक्षित है ..............

जई-रोटी और बकरे की संस्कृति 
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उसने बार-बार पूछा था

मेरा नाम
और मैं हिचकिचा रहा था
बार-बार
कि कैसे बताऊँ
अपना नाम
कि पकड़ लिया जाऊँगा
भेज दिया जाऊँगा फिर से वहीँ
जहाँ से भाग निकला था एक दिन
विज्ञापित रिश्तों को छोड़कर
चाहता था गुमनाम होकर जीना
पर
उसने बार-बार पूछा था
मेरा नाम
और मैं हिचकिचा रहा था
बार -बार
बड़े प्यार से रोका था उसने मुझे
और दिया था
बहुत सारे इन्द्रधनुषी सपने
उपहार स्वरुप
उसने अपने खुरदुरे हाथों में लगे
कोमल दस्तानों से
मेरी आत्मा की पीठ को सहलाया भी
प्रदर्शित विश्वास की मुहर भी ठोकी
मेरे चेहरे पर
चूँकि
वह मानवीय संवेदनाओं की
कमजोरियों से पूर्णतः वाकिफ था
मनोवैज्ञानिक था ,
विद्वान् था
तर्क का पुरोधा था
एक महान अभिनेता था
मगर मेरे बारे में
जो उसका लेखा-जोखा था
कि रह सकूँगा उसके साथ हीं
फिर खेल सकेगा
मेरी भावनाओं से
मार सकेगा फिर से
मेरी आत्मा की भूख को
कैद कर सकेगा
अपने विचारों के बीहड़ में
जो उसकी भूल थी
महज धोखा था
फिर भी वह दृश्य
बहुत भयानक और अनोखा था
जिसे मैंने
जई-रोटी और बकरे की संस्कृति में
कभी देखा था |

डॉ मनोज कुमार सिंह 






वंदेमातरम् मित्रों !आज कल हो रही टुच्ची सियासत पर कुछ शेर ..............ताजा ग़ज़ल के रूप में 

आपको सादर समर्पित .........................कैसी लगी ? आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित ...................



मच्छरों -सा भिनभिनाना छोड़ दे |


गैर पर तोहमत लगाना छोड़ दे |


खबर में रहना शगल है 'आप' की ,

ख्वाब अब झूठे दिखाना छोड़ दे|


जेट से चलना तुम्हारी सादगी ,

सादगी ऐसी दिखाना छोड़ दे |


अराजक-सा आचरण करके यहाँ ,

नक्सली बनना-बनाना छोड़ दे |


पहले झाडू अपने घर में तो लगा,

अन्य घर झाडू लगाना छोड़ दे |

डॉ मनोज कुमार सिंह