मित्रों! बहुत खिन्न मन से दिल्ली के दरिंदों की करतूत और दिल्ली की नियत पर मैं अपना क्षोभ प्रकट कर रहा हूँ ...........
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न दिल के चाहतों में रह गई है, शर्म की दिल्ली |
सियासत ने किया है आजकल, बेशर्म की दिल्ली |
जिसे हम न्याय की सर्वोच्चता का, घर समझते हैं ,
उसी की गोद में ये पल रही ,दुष्कर्म की दिल्ली |
जिसकी धडकनों से, देश का जीवन धडकता था ,
कभी थी प्यार की ,मनुहार की औ धर्म की दिल्ली |
जब से अंग प्रदर्शन का, विज्ञापन हुआ चालू ,
अपनी आग में खुद जल रही, अपकर्म की दिल्ली |
जहाँ तहजीब की बातें बताना, जुर्म है यारों ,
अदीबों के शहर में ढूढ़ता हूँ, मर्म की दिल्ली |
लुटती अस्मिता की चीख, पहुँची चाँद तारों तक ,
जो चीखें सुन नहीं पाती ,वो है किस, कर्म की दिल्ली |
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह
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