Sunday, April 21, 2013


मित्रों! बहुत खिन्न मन से दिल्ली के दरिंदों की करतूत और  दिल्ली की नियत  पर मैं अपना  क्षोभ प्रकट कर रहा हूँ ...........
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न दिल के चाहतों में रह गई है, शर्म की दिल्ली |
सियासत ने किया है आजकल, बेशर्म की दिल्ली |
जिसे हम न्याय की सर्वोच्चता का, घर समझते हैं ,
उसी की गोद में ये पल रही ,दुष्कर्म की दिल्ली |
जिसकी  धडकनों से, देश का जीवन धडकता था ,
कभी थी प्यार की ,मनुहार की औ धर्म की दिल्ली |
जब से अंग प्रदर्शन का, विज्ञापन हुआ चालू ,
अपनी आग में खुद जल रही, अपकर्म की दिल्ली |
जहाँ तहजीब की बातें बताना, जुर्म है यारों ,
अदीबों के शहर में ढूढ़ता हूँ, मर्म की दिल्ली |
लुटती अस्मिता की चीख, पहुँची चाँद तारों तक ,
जो चीखें सुन नहीं पाती ,वो है किस, कर्म की दिल्ली |

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह 

Sunday, April 14, 2013

जीवन के राहों के असली प्यार पिताजी |
नमन तुम्हारे चरणों में सौ बार पिताजी ||
कर्त्तव्यों की गोद ,पीठ ,कन्धों पर अपने ,
मुझे बिठा दिखलाते थे संसार पिताजी |
भूख ,गरीबी ,लाचारी की कड़ी धूप में ,
तुम छाया के बरगद थे छतनार पिताजी |
चोरी करते थे मगर तुम चोर नहीं थे ,
मेरी खातिर गए जेल कई बार पिताजी |
अहसासों की ऊँगली से गढ़ते थे जीवन ,
जीवन की मिटटी के थे कुम्हार पिताजी |
इतने नाज़ुक मधुर ,सरस कि लगते जैसे ,
पुष्प दलों पे ओस बूँद सुकुमार पिताजी |
माँ तो गंगा -सी पावन होती है यारों ,
मगर हिमालय से ऊँचे पहाड़ पिताजी |
मुझे हवाओं में खुशबू बन मिल जाते हैं ,
जाफरान-से अद्भुत खुश्बूदार पिताजी |
तुमको पढ़ना, रामचरित मानस पढ़ना है,
देहाती ,बकलोल, सहज, गँवार पिताजी |
जीवन -सागर के तट,तेरे इन्तजार में ,
बैठा हूँ इस पार ,गए उस पार पिताजी |
कौन कहता है कि वह दूर, नज़र आता है |
देखना चाहो तो जरुर, नज़र आता है |
दिल में इक प्यार का चिराग, जला कर देखो ,
खुदा का अक्स भी भरपूर, नज़र आता है |
खा रहा आदमी को आदमी, सियासत में ,
चेहरा कुर्सियों का क्रूर, नज़र आता है |
बेटे के नाम पर तो बाप की, छाती चौड़ी ,
बेटी के नाम पर मजबूर, नज़र आता है |
जिनका बाज़ार में इश्तेहार बड़ा है जितना ,
आज उतना हीं वो मशहूर, नज़र आता है |
मन में उमंग, हिय प्रेम का तरंग लिए ,
आओ खेलें रंग, संग-संग आज होली में |
भाव के गुलाल डाल, छू के कविता के गाल ,
करें सराबोर, अंग-अंग आज होली में |
बूढ़ा भी हुआ जवान ,मारे पिचकारी तान ,
छाया रोम-रोम में, अनंग आज होली में |
फागुन आवारा-सा, ये बोले बस सारा रा रा ,
मन को बनाया है, मलंग आज होली में |
तंग ना किसी को करें ,पी के दारु और भंग ,
जितना लगा ले चाहे, रंग आज होली में |
त्याग क्लेश ,द्वेष ,डाह,ऊँच-नीच भेदभाव ,
हो गले मिलन का, प्रसंग आज होली में |
जो हैं सागर से गहरे ,कतरे -से दिखना चाहे हैं |
कुछ तो दीपक-सा जलकर हीं सूरज दिखना चाहे हैं |
कुछ तो गुटबंदी ,तुकबंदी ,औ जुगाड़ की ताकत से ,
दो से चार खिताबें लिखकर ,तुलसी दिखना चाहे हैं |
अपने ख्वाब जीवन के सलोना ढूढ़ते है |
जिन्हें भी नींद आती है बिछौना ढूढ़ते हैं |

मुफलिसी लाख हो पर बस्तियों में आज भी बच्चे ,
उन्हें देखा कबाड़ों में खिलौना ढूढ़ते हैं |

ख़बरों से उन्हें क्या वास्ता ,अखबार में बच्चे ,
सुबह में गुदगुदे कार्टून कोना ढूढ़ते हैं |

दिखने के लिए ऊँचा व शोहरत के लिए कितना ,
जमाने में तरीका हम घिनौना ढूढ़ते हैं |

मिटटी में मिलाकर देश को ,इस देश के नेता ,
सियासत के खदानों में ,वे सोना ढूढ़ते हैं |
अपने शौक को महँगा,कोई सस्ता बनाता है |
कोई कठिनाईयों के बीच भी रस्ता बनाता है |

अपने गाँव के दर्जी को हमने आज भी देखा ,
बच्चों के लिए स्कूल का बस्ता बनाता है |

यहाँ पर मुफलिसों की झोपड़ी में रात बिता कर ,
सियासत दां करोड़ों का सदा भत्ता बनाता है |

कभी ईमान ,साहस धैर्य का हथियार बनाकर ,
अकेला आदमी संघर्ष का दस्ता बनाता है |

जिसे सौंपा था हमने मुल्क हिन्दुस्तान ये सारा ,
वहीं इस मुल्क की हालात को खस्ता बनाता है |

सुबह में मुस्कुराते फूल चमकते ओस बूंदों से ,
सूर्य के आगमन पर शज़र गुलदस्ता बनाता है |
अध्याय खुला है, जीवन के संत्रास की |
बात कभी ना होगी, अब संन्यास की |
स्वच्छंदता, सहमति का, अधिकार लिए ,
कानून बनेगा, सोलह में सहवास की |
फ्रायड के मानस पुत्रों के, क्या कहने ,
भूल गए भारत- गौरव, इतिहास की |
नैतिकता ,संयम की बातें, गौण हुईं ,
अठारह की शादी भी, परिहास की |
दूरदर्शी होने का वे, दावा करते ,
दृष्टि नहीं है जिनकी, अपने पास की |
नहीं जरुरत किसी नए कानून की ,
आज जरुरत है एक्शन अभ्यास की |