Monday, December 19, 2011


          सृजनात्मकता की सार्थकता
सृजन एक मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें नये विचार, उपाय या कांसेप्ट का जन्म होता है ! वैज्ञानिक मान्यता यह है कि सृजन का फल में मौलिकता और सम्यकता दोनों विद्यमान होते हैं ! रचना प्रक्रिया के बारे में भारत और पश्चिम में भी बहुत पहले से भी विचार होता रहा है और एक बहुस्तरीय जटिल मस्तिष्क की क्रिया होने के कारण सृजन प्रक्रिया को रहस्यमय और विलक्षण माना जाता रहा है ! आज सृजन प्रक्रिया का शरीर विज्ञान के आधार पर अध्ययन करने वाले विद्वान उसका लगभग यांत्रिक विश्लेषण करते हैं ! मनोवैज्ञानिक ने सृजन प्रक्रिया पर अलग से विचार किए हैं, दार्शनिको ने अलग से, अर्थशास्त्रियों ने अलग से , रचनाकारों ने अलग से !
                   आइए रचनाकारों की दृष्टि से रचना को समझें !
कहा जाता है कि जन्म लेने के बाद रचना रचनाकार को अमर कर सकती है ! अभिनव गुप्त के अनुसार प्रतिभा और सृजन शक्ति अलौकिक है ! हर मनुष्य इसे पैदा नहीं कर सकता ! भारत में कवि की तुलना प्रजापति से की गई है ! आनंदवर्धन कहते हैं
          अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति: !
           यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते  !!
                                          ध्वन्यालोक
सृजन प्रक्रिया पर पश्चिम में भी काफी विचार हुआ है ! वैसे स्वीकार करना पड़ता है कि सृजन प्रक्रिया के बारे में कोई सरलीकृत निष्कर्ष देना मुश्किल और जोखिम भरा काम है ! रचना में रचनाकार अपनी और दुनिया दोनों की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगता है ! दोनों के अर्थ और मूल्य की खोज करता है ! यह खोज ही सृजन का गहरा आतंरिक कारण है ! सार्थकता की खोज अर्थात अर्थ की खोज अर्थ यानि जीने का अर्थ ! चीजों का अर्थ ! इस अर्थ की तलाश ही रचना का कारण है !
                

 रचनात्मकता के सन्दर्भ में कह सकते है कि इसका जन्म पीड़ा , विवशता और इच्छा के मिलन से होता है और यह जन्म लेने के बाद रचनाकार को उसकी पीड़ा, विवशता और इच्छा से मुक्त कर देती है ! हर रचना रचनाकार को मुक्त और हल्का करती है ! यदि यह साधन उसके पास न हो तो उसका अंत शायद पागलपन , आत्महत्या या विरक्ति या फिर हथियार उठा लेने में हो ! तो क्या रचना पागलपन या आत्महत्या या विरक्ति के विरूद्ध खड़े होने और जीने की प्रेरणा देती है ? और क्या वह हथियार का विकल्प है ?
        उक्त प्रश्न को सिद्ध करने के लिए एक उदाहरण से सृजनात्मकता या रचनात्मकता को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ ! हमने पीड़ा शब्द का उल्लेख पूर्व में किया है , जिसके आधार पर कहना चाहता हूँ कि अगर आप किसी को सजा देना चाहते हैं तो उसमें भी क्रिएटिव बनिए ! पर पीड़ा की जगह आत्म पीड़ा का इस्तेमाल कीजिए ! नजदीकी रिश्तों में तो यही काम आता है , भले हो या दफ्तर !
               आप कोई भी काम करते हों , उसमें जब तक पोजिटिव और क्रिएटिव नहीं बनेंगे , तब तक आपको बड़ी सफलता नहीं मिल पायेगी ! अगर आप प्यार करते हैं तो आपको अपने प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए इतने अलग और क्रिएटिव तरीके को चुनना पड़ेगा कि आपका प्यार आपसे दूर कभी न जा सके ! इसी तरह अगर आप किसी को सुधारना चाहते है , तो भी आपको लीक से हटकर रास्ता खोजना होगा !
               एक कहानी है ! पिता ने कार खरीदी और अपने जवान हो गये बेटे को सिखाना शुरू किया ! जिस दिन उसने कार सीख ली , पिता ने बेटे से कहा कि आज तुम मुझे मेरे ऑफिस छोड़ो , फिर कार को गैरेज में सर्विस करा लेना ! इस बीच में तुम फलां फलां जगह में जाकर वह काम कर आना ! फिर कार गैरेज से ले लेना और शाम को मुझे लेने इतने बजे ऑफिस आ जाना ! मैं तुम्हारे साथ ही आज घर जाऊंगा ! मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा ! बेटा अपने पिता को ऑफिस छोडता है ! कार गैरेज में रखता है ! उसके बाद एक दो
काम निपटाता है ! फिर सोचता है कि चलो एक फ़िल्म देख आया जाये ! वह फ़िल्म देखता है ! फिर आता है ! कार गैरेज से उठाता है ! पिताजी को ऑफिस लेने पहुँच जाता है ! पर इस काम में वह एक घंटा लेट हो चुका है ! वह सोचता है कि पिताजी हमेशा की तरह डाट वह सहन कर लेगा ! कुछ झूठ बोल देगा !
                     वहाँ पिताजी परेशान हैं ! कहीं एक्सीडेंट बगैरह तो नहीं हो गया ! बेटा देर से पहुंचा ! कारण पूछने पर बताया कि मैकेनिक ने कार बनाने में देर कर दी ! पिताजी ने कहा , तुम झूठ बोल रहे हो ! मैंने एक घंटे पहले मैकेनिक को फोन किया था ! उसने कहा था कि कार कब से सर्विस होकर खड़ी है ! तुम लेने ही नहीं आए ! बेटा फिर भी कुछ न कुछ झूठ कहता रहा ! नाराज होकर पिता ने कहा , अब मैं तुम्हारे साथ कार में नहीं जाऊंगा ! वह पैदल ही अपने घर की ओर निकल लिए ! पीछे पीछे बेटा धीरे धीरे कार चलाते हुए आ रहा था कि पिताजी अभी कार में आकार बैठ जायेंगे ! पर पिता पैदल ही घर पहुंचे !
               घर पहुंचते ही बेटे ने अपने किए के लिए माफी मांग ली ! उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था और आगे कभी झूठ न बोलने और वादा खिलाफी न करने का वादा भी किया ! अगर आपको अपने सबसे प्रिय सहयोगी को सजा देनी हो , तो खुद को पीड़ा पहुंचाइए ! वह तुरंत ठीक हो जायेगा ! ऐसी सजा कभी न दीजिए , जो प्रेडिक्टेबल हो ! जैसे बेटे ने सोंचा कि डांटेंगे तो सह लूँगा ! यह खुद की पीड़ा सहना था , सो उसे मंजूर था ! अगर वह यह सोंचता कि मेरे न जाने से बूढ़े पिता को पैदल आना होगा और उन्हें कितना कष्ट होगा , तो वह गलती ही नहीं करता !
             इसलिए रचनात्मकता जीवन के क्षेत्र में अति सकारात्मक और नयी दिशा प्रदान करने वाली अनोखी प्रक्रिया है ! यहीं रचनात्मकता रत्नाकर डाकू को महर्षि बाल्मिकी का जन्म दिया , जिसमें क्रौच्च के दर्द को अपना दर्द समझ कर बहेलिया को अभिशाप दिया था दुनिया का प्रथम कवि बन गया
   मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा: !
   यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काममोहितम् !!
अत: हमें अपने जीवन में स्रजनात्मकता को बढावा nsuk चाहिए , जिससे जीवन और ये दुनिया खूबसूरत बन सके ! स्वान्त: सुखाय सर्वजन सुखाय बन सके !
        डा. मनोज कुमार सिंह, PGT HINDI
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  • हवन पूजा - एक परिदृश्य .............

आओ मिलकर करें सृजन  
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डरे नहीं हम , घबरायें ना , संघर्षों से करें मिलन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !
              नित अभिनव सद् सोंच गढ़े ,
              कण कण की हर बात पढ़ें !
              जीवन की हर राह सुगम हो ,
              श्रम की उंगली पकड़ बढ़ें !
जीवन की सूखी बगिया में , चलो खिलाएं नया सुमन !
विध्वंसो की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
              रचना के हर नवल भूमि पर
              रचनाकार अमर होता है !
              कार्य कठिन है प्रसवित करना,
             जीवन एक समर होता है !
चलो उगाएँ मरूभूमि में शब्दों का सुरभित उपवन !
 विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
              स्वाद , दृश्य , स्पर्श , घ्राण हो !
              श्रवण साधना काव्य प्राण हो !!
              विविध रंग के भाव भरे हम !
              मन के सारे कष्ट त्राण हो !!
चलो बनायें ऐसी कविता , मन का हर ले सभी चुभन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
              जिसने पत्थर तोड़ तोड़कर
              तराशकर मूर्ति बनाई,
              जड़ता के अंधियारे में जो
              ज्ञान दीप की ज्योति जलाई !
उसे हृदय की दीप शिखा से, आओ करते चले नमन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ आओ मिलकर करें सृजन !!
विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !
              नित अभिनव सद् सोंच गढ़े ,
              कण कण की हर बात पढ़ें !
              जीवन की हर राह सुगम हो ,
              श्रम की उंगली पकड़ बढ़ें !
जीवन की सूखी बगिया में , चलो खिलाएं नया सुमन !
विध्वंसो की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
              रचना के हर नवल भूमि पर
              रचनाकार अमर होता है !
              कार्य कठिन है प्रसवित करना,
             जीवन एक समर होता है !
चलो उगाएँ मरूभूमि में शब्दों का सुरभित उपवन !
 विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
              स्वाद , दृश्य , स्पर्श , घ्राण हो !
              श्रवण साधना काव्य प्राण हो !!
              विविध रंग के भाव भरे हम !
              मन के सारे कष्ट त्राण हो !!
चलो बनायें ऐसी कविता , मन का हर ले सभी चुभन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ , आओ मिलकर करें सृजन !!
              जिसने पत्थर तोड़ तोड़कर
              तराशकर मूर्ति बनाई,
              जड़ता के अंधियारे में जो
              ज्ञान दीप की ज्योति जलाई !
उसे हृदय की दीप शिखा से, आओ करते चले नमन !
विध्वंसों की छाती पर चढ़ आओ मिलकर करें सृजन !!

Wednesday, March 30, 2011

                          
                                    
                                  
                 माँ की नसीहत  
     
                  बचपन से यौवन तक, सपनों के गोद पली 
                  पिता और भाई के ,हाथों की झुनझुना 
                  बाबा के कन्धों  की ,चंचल गौरैया थी 
                  गाँव के बगीचे के आम के दरख्तों पर 
                  झुला डाल डालों पर सावन झुलाई मैं 
                  कोयल की कूंज बनी कजरी गा इतराई 
                  पंछी बन उड़ गयी पेड़ की फुनगियों तक 
                  सींग चूमे बैलों के भाई के मस्तक- सी 
                  घर की कमाई के दो मज़बूत हाथ थे 
                  बेटी की शादी थी जिनके बदौलत ही 
                  पिता की पगड़ी थी पर्दा दरवाजे की 
                  दीवारों के घर में चमकते रोशनदान थे
                  बचपन से सुनती थी माँ की नसीहत मैं 
                   बेटी पराई है बेटी पराई है 
                   हुई थी पराई मैं पर आँगन आई मैं 
                   महका कोना- कोना घर का 
                   अंगड़ाई लेती खुशियों ने दौड़ लगाई भर आँगन 
                   छाया  सुरमई उमंग  आँखों के हर गाँव में 
                   नई सुबह उग आई नई गूंज लहराई
                    मौसम की रंगीनी घर के कंगूरों तक 
                    धीरे-धीरे बढ़ आई हरिआई,शरमाई ,गहराई 
                    हंसी और ठिठोली का पुरकश आकाश रहा 
                    समय परवान चढ़ा सोहर की पंक्तियों -सी 
                   वत्सलता छलक पड़ी नन्ही- सी किलकारी 
                   जीवन के आँगन में घुटनों के बल दौड़ी 
                    द्वैतराग  जाग उठा अनहद की गूंज मिली 
                   फ़ैल गयी तुलसी की अपरिमित तृप्त गंध 
                  नींद गीत बन बैठी मंगल के जंगल में 
                  ढोलक  ने थाप दिया नाच उठा मन- मयूर 
                  आसमान सर पे ले पल्लव की कोमलता 
                  धीरे- धीरे पत्र बने  पत्रों में पुष्प खिले 
                  डालों पर छा गए अपने- अपने मौसम के 
                  राग अपने- अपने हैं हमराही छोड़ गया 
                  सुनी सड़क मांग हुई आज अपने घर में ही 
                  नोनछूही मिट्टी हूँ धीरे- धीरे सरक गयी 
                  उम्र की कमीज़ भी समय धंसा आँखों में 
                  आँख भी पिचक गयी सोंच नहीं पाई थी  
                   अपना वजूद कभी जीवन की सरहद पर
                   पर्वत -सा अडिग अब भी माँ की नसीहते है 
                   बेटी पराई है बेटी पराई है ||

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Tuesday, March 8, 2011

                  

                    सोचता हूँ लिखूं एक कविता 

                                     सोचता हूँ  
                                लिखूं एक कविता 
                         एक ऐसी कविता 
                         जिसे लिख सकूं 
                         और दिख सकूं मैं 
                         खुद उसमे 
                         सुना है आसान नहीं है 
                         कविता लिखना 
                         सचमुच 
                         कविता लिखना 
                         कविता होना है 
                        जैसे आग जलाने के लिए 
                        ताप का होना 
                        जब भी बैठता हूँ 
                        कविता लिखने 
                        लिख नहीं पाता
                        एक भी शब्द 
                        तब भाड़ने लगता हूँ 
                        कागज कोरा 
                        पारने लगता हूँ
                        टेढ़ी -मेढ़ी लकीर यूँ ही 
                        जिसमे देखता हूँ 
                        अनायास 
                        एक पेड़ 
                        पेड़ में उड़ने को आतुर 
                        एक खुबसूरत चिड़िया 
                        चिड़िया में एक लड़की 
                        लड़की में इन्द्रधनुषी आकाश 
                        आकाश में खिलखिलाता चाँद 
                        चाँद में सपने 
                        सपनों में रंगों की बारिश 
                        बारिश में भीगते पेड़ 
                        पेड़ के नीचे 
                        भीगती लड़की 
                        लड़की में भीगता मैं सर्वांग 
                        सोचता हूँ 
                        लिखूं एक कविता |

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                               शर्त ये है कि-----
         
                       मैं अग्नि -परीक्षा से 
                  गुजरना चाहता हूँ 
                   मगर शर्त ये है कि 
                   अग्नि परीक्षक मेरे साथ 
                   आग में खड़ा रहे 
                   यह स-तर्क विचार नहीं 
                  अपितु सतर्क चेतना है 
                   आरोप के खिलाफ 
                    एक कटु आलोचना है 
                   सदियों का षड्यंत्रकारी इतिहास 
                    आभिजात्य मद में चूर है 
                    वर्तमान अगर उसे तोड़ता है 
                    तो मेरा क्या कसूर है |






           

                                             दोहे  मनोज के
                   
                      राजनीति में फँस गई, कविता की पहचान |
                      जोड़ -तोड़ में कवि लगे, कैसे बने महान ||
                                           
                      
                    जाल बिछाकर शेर को, कर पिजरे में बंद |
                    कौवे पढ़ने लग गए, मक्कारी के छंद ||




                   करोड़पति बनना यहाँ, जब से हुआ आसान |
                   गीता के आदर्श को, भूल गया इन्सान ||




                  विश्व सुंदरी बन गई, ले कमनीयता अस्त्र |
                  इंच -इंच नपती रही, सुन्दरता निर्वस्त्र ||




                  बकरी हत्या जुर्म में, कबिरा भोगे जेल |
                  बूचड़खाना दे रहा, न्याय, सजा औ बेल ||


                  
                 सत्ता में दस -बीस दल, औ विपक्ष में चार |
                 सब मिलजुलकर खा गए, जनता का आहार ||




                 जीते इलेक्शन नेता जी, ले गुंडों का संग |
                 जब गुंडे नेता बने, नेता हुए अपंग ||




                  गंगा, यमुना, सरस्वती, इतनी हुईं मलीन |
                  घडियालों के गाँव में, कौन बचाए मीन ||




                 आग सरीखा जेठ जब, जग झुलसाता खूब |
                 तब भी पत्थर फोड़कर, उग आती है दूब ||




                महल बनाते थक गए, जिनके दोनों हाथ |
                फिर भी महलों ने दिया, सोने को फुटपाथ  ||




                शिशु पालन के नाम पर, घोटालों का कंत |
                सौ -सौ चूहा हज़म कर, बना हुआ है संत||
                                                                                


                स्वार्थ और अभिमान की, एक यहीं पहचान |
                अपना घर बस चमन हो, बाकी सब शमशान ||




               अनुशासन अब हो गया, विगत समय की बात |
                संस्कार खाने लगा, गाली, जूता, लात ||


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Thursday, February 17, 2011

                                                       

                          घर में बैठा मैं कविता लिखता हूँ 

          घर में बैठा 
         मैं कविता लिखता हूँ 
         पत्नी 
         जूठे बर्तनों को माँज- माँजकर
         चमकाने में लगी रहती है 
         बच्चों की धमाचौकड़ी 
         और 
         काम का भारी बोझ 
         के बीच 
         पत्नी पकाती है 
         गोल - गोल रोटियाँ
         साथ -साथ पकता है 
         उसका उकताया मन 
         मक्के की भात की तरह 
         डुभुर -डुभुर 
         चूल्हे में लकड़ी कम जलाती है  
         फिक्र अधिक 
         धुआँती आँखों से  
         करती है याद 
         अपने जीवन  के पाठ जैसे 
        - भुनभुनाती है कभी 
       - झुझलाती है कभी 
        स्कूल भेजने से पहले 
        बच्चों के कुर्ते के 
        टुटे हुए बटन टांकती 
        झांकती -
        कभी पतीलियों में 
        देखती है 
        सींझते समय को 
        सब्जी के साथ 
        भरती है
        अलग- अलग टिफिन में 
        अलग- अलग रुचियाँ 
         समय के हासिए पर 
         दौड़ते हुए 
         भेजती है बच्चों को स्कूल 
         और कुछ  समय के लिए
         जैसे आश्वस्त हो जाती है 
          घर का सारा बोझ लिए हुए भी 
         फचीटती है कपडे, सुखाती है जीवन 
         उनके आने तक की 
         प्रतीक्षा के साथ 
         घर में बैठा मैं कविता लिखता हूँ 1

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Tuesday, February 1, 2011



                           रंग आदमियत का  
        वह ग्यारह साल का रघुआ 
        उम्र जिसकी अभी हंसने खेलने खाने की 
        जरुरत है जिसके हाथों को 
        प्रेम के पवित्र अहसास की 
        उड़ते परिंदों - सा सतरंगे 
        खुले आकाश की 
        पता नहीं 
        किसने चुरा लिया उसके 
        होठों का दुधिया मुस्कान 
        और 
        लाद दिया है निर्दोष आँखों में 
        अकथ थकान 
        उदास पड़ा  सड़क के किनारे 
        भीड़ के शहर में 
        धूप की छांव में 
         सुबह से शाम सुनता रहता 
         आते-जाते जूतों की आहट
        जिसे चमकाने में 
        ओढ़ लिया है दुनिया भर की मलिनता 
        समय के इंतजार से 
        भली- भांति परिचित 
        उम्र की यह छोटी-सी किताब 
        पढ़ सको तो पढ़ 
        जिसका अक्षर-अक्षर 
       दर्द का तडपता इतिहास है 
       अरमानों के खून से लथपथ 
       असुरक्षित दस्तावेज है 
       जो कभी भी 
        समय के हासिये से 
        तार-तार हो बिखर सकता है 
        विरासत में प्राप्त 
        उपेक्षा और झिडकियों का 
       वहंगी ढोता यह श्रमरत 
       वर्तमान श्रवण 
       मानो एकमात्र पुत्र प्रमाणिक 
        वह तोडती पत्थर का 
        जब देखता है 
        श्रम की थाली में अर्थ की व्यर्थ ठनक 
         जैसे गर्म तवे पर दो बूंद जल की फद्फदाहत 
          कम है साहब- टोकता है बच्चा 
          पलटते पांव को जैसे रोकता है बच्चा 
          कि प्रतिप्रश्न कि- 
         तू बहुत बोलता है 
         जुबान अधिक खोलता है 
          कुछ डर जाता है बच्चा 
          भीतर ही  भीतर मर जाता है बच्चा 
          और मूक नज़रों से देखने लगता है 
           अठन्नी-चवन्नी में 
           बीमार माँ की दवा
           तीन- तीन जवान बहनों की शादी 
           अपंग पिता की वैसाखी 
           अक्स अपनी बेवसी का 
           सुबह का स्वप्न
            रात की रोटी 
            श्रम का वर्तमान 
           रंग आदमियत का 
           नीयत ईश्वर का 
           जूते अपने हाथ का 
           जिसे कभी भी फेंक सकता है 
           आकाश के चेहरे पर 
           बेहिचक1
             

















      
                                   धरती की लय में 
             चाहता हूँ मैं 
             चिड़ियों की चहक 
             अक्स नन्हीं हंसी का 
              सपनो का एक झरना 
             स्पर्श -वत्सलता की चांदनी 
             गुनगुने शब्दों  की तरलता 
             लोरियों  में छुपी सपनो की गुदगुदाहट 
            वीचि -विचारों की छलक 
            ताकि सुन सकूँ 
            आत्मीय सरगम 
            देख सकूँ 
             हरिआया भविष्य 
             उड़ सकूँ 
            आकाश के कंगूरों तक 
            घोल सकूँ 
            अपनी नम आँखों में  
             विस्मृत रंगों और सपनो को 
             उग सकूँ 
             भूख के पेट में अन्न बनकर 
             बन  सकूँ 
             कांपती  दिशाओं का लिहाफ 
             रच- पाच जाऊं 
             गंध बनूँ मिट्टी की 
             छंद बनूँ कविता की 
             धरती की लय में 1






         
              



























Wednesday, January 26, 2011

                             चौपाया 
     भूख ,भूख ,भूख 
     भूख 
     जब पेट के धरातल पर 
     बेचैनी के ताल  पर 
     नंगी होकर नाचती है 
     तो 
     धैर्य का भी धैर्य 
     साथ छोड़ देता है 
     मन के देह पर 
     विकृतियों के कैक्टस 
     उग आते हैं 
     ईमान 
     घुटने टेकने लगता है 
     तब आदमी 
     धीरे- धीरे 
     चौपाया होने लगता है1









मेरी हँसी और तुम्हारी हँसी

                     मेरी हंसी और तुम्हारी हंसी में 
                    मैं हँसता हूँ 
                     सिर्फ तुम्हारे लिए मेरे बच्चे                                                                               
                     क्योंकि तुम हँसते हो 
                     तुम्हारी हंसी                  
                     ईश्वर की नियामत है                  
                     जिसके बदौलत                 
                     आज भी दुनिया सलामत है                  
                      मैं डरता हूँ 
                      कि तुम कभी भी                          
                     मेरी तरह मत हंसना                           
                    तुम अपनी हंसी हँसना                           
                    मेरे हृदय  के टुकड़े                           
                                              मैं भी तुम्हारी तरह ही 
                                             हँसता था 
                                              अचानक अपनी तरह से 
                                              हंसने लगा 
                                              बिल्कुल आज कि हंसी भांति 
                                              कि हँसना मज़बूरी है 
                                              मेरी हंसी और तुम्हारी हंसी में 
                                              कितनी दूरी है 
                                              कि मुझे हंसने में 
                                              दाँत दिखाना बहुत -बहुत 
                                               जरुरी है 1