माँ की नसीहत
बचपन से यौवन तक, सपनों के गोद पली
पिता और भाई के ,हाथों की झुनझुना
बाबा के कन्धों की ,चंचल गौरैया थी
गाँव के बगीचे के आम के दरख्तों पर
झुला डाल डालों पर सावन झुलाई मैं
कोयल की कूंज बनी कजरी गा इतराई
पंछी बन उड़ गयी पेड़ की फुनगियों तक
सींग चूमे बैलों के भाई के मस्तक- सी
घर की कमाई के दो मज़बूत हाथ थे
बेटी की शादी थी जिनके बदौलत ही
पिता की पगड़ी थी पर्दा दरवाजे की
दीवारों के घर में चमकते रोशनदान थे
बचपन से सुनती थी माँ की नसीहत मैं
बेटी पराई है बेटी पराई है
हुई थी पराई मैं पर आँगन आई मैं
महका कोना- कोना घर का
अंगड़ाई लेती खुशियों ने दौड़ लगाई भर आँगन
छाया सुरमई उमंग आँखों के हर गाँव में
नई सुबह उग आई नई गूंज लहराई
मौसम की रंगीनी घर के कंगूरों तक
धीरे-धीरे बढ़ आई हरिआई,शरमाई ,गहराई
हंसी और ठिठोली का पुरकश आकाश रहा
समय परवान चढ़ा सोहर की पंक्तियों -सी
वत्सलता छलक पड़ी नन्ही- सी किलकारी
जीवन के आँगन में घुटनों के बल दौड़ी
द्वैतराग जाग उठा अनहद की गूंज मिली
फ़ैल गयी तुलसी की अपरिमित तृप्त गंध
नींद गीत बन बैठी मंगल के जंगल में
ढोलक ने थाप दिया नाच उठा मन- मयूर
आसमान सर पे ले पल्लव की कोमलता
धीरे- धीरे पत्र बने पत्रों में पुष्प खिले
डालों पर छा गए अपने- अपने मौसम के
राग अपने- अपने हैं हमराही छोड़ गया
सुनी सड़क मांग हुई आज अपने घर में ही
नोनछूही मिट्टी हूँ धीरे- धीरे सरक गयी
उम्र की कमीज़ भी समय धंसा आँखों में
आँख भी पिचक गयी सोंच नहीं पाई थी
अपना वजूद कभी जीवन की सरहद पर
पर्वत -सा अडिग अब भी माँ की नसीहते है
बेटी पराई है बेटी पराई है ||
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