घर में बैठा मैं कविता लिखता हूँ
घर में बैठा
मैं कविता लिखता हूँ
पत्नी
जूठे बर्तनों को माँज- माँजकर
चमकाने में लगी रहती है
बच्चों की धमाचौकड़ी
और
काम का भारी बोझ
के बीच
पत्नी पकाती है
गोल - गोल रोटियाँ
साथ -साथ पकता है
उसका उकताया मन
मक्के की भात की तरह
डुभुर -डुभुर
चूल्हे में लकड़ी कम जलाती है
फिक्र अधिक
धुआँती आँखों से
करती है याद
अपने जीवन के पाठ जैसे
- भुनभुनाती है कभी
- झुझलाती है कभी
स्कूल भेजने से पहले
बच्चों के कुर्ते के
टुटे हुए बटन टांकती
झांकती -
कभी पतीलियों में
देखती है
सींझते समय को
सब्जी के साथ
भरती है
अलग- अलग टिफिन में
अलग- अलग रुचियाँ
समय के हासिए पर
दौड़ते हुए
भेजती है बच्चों को स्कूल
और कुछ समय के लिए
जैसे आश्वस्त हो जाती है
घर का सारा बोझ लिए हुए भी
फचीटती है कपडे, सुखाती है जीवन
उनके आने तक की
प्रतीक्षा के साथ
घर में बैठा मैं कविता लिखता हूँ 1
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